करीबी मित्रों में थे राजेंद्र पर आज वह भी साथ छोड़ चल दिए। शायद यह हमउम्र वालों के चला-चली की बेला है। सुबह ही गुरुकुल (कानपुर) के संस्थापक और राजेंद्र के शुरुआती दिनों के साथी रहे प्रो. अभय द्विवेदी ने एक पोस्ट भाई रुप नारायण बाथम की एकल प्रदर्शनी को लेकर साझा की थी। जिसमें बाथम जी, उनके और राजेंद्र के कला जुझारूपन का उल्लेख उन्होंने किया है। इसी सिलसिले में अभी जब बाथम भाई को मैंने फोन किया तो पता चला कि आज सायं चार बजे राजेंद्र भाई अलविदा कह गये। अचानक यकीन करना मुश्किल हो गया। अभी कुछ दिन पहले ही तो उनका फोन आया था…पर सच को कौन झुठला सकता है!
इधर कोई एक दशक से, सेवानिवृत्ति के बाद, वे दिल्ली छोड़कर (2012) देहरादून जाकर बस गये थे। उनका पूरा नाम राजेंद्र प्रसाद निगम था पर उनकी पहचान अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षरों से अर्थात आर.पी.निगम से रही। दोस्तों के दोस्त थे वे। कोई याद करें या न करें वह खुद ही उसे खटखटा लेते थे। फोन से या खुद उसकी चौखट पर पहुंच कर। और फिर शिकवे-शिकायत का दौर शुरू हो जाता। कानपुर में कला-शिक्षा की बुनियाद डालने वाले कलागुरु सी. बरतरिया साहब के वे चहेते चेलों में से एक थे। देहरादून जाकर वे अंदर से अकेले हो गये थे। दोस्तों की महफ़िलों में उनकी जान बसती थी। इसीलिए अक्सर वे दिल्ली की दौड़ लगा लेते, और ललित कला अकादेमी के गेस्ट हाउस में रम जाते। पर वो बेहतरीन दौर जो उन्होंने यहां जिया था… फिर नसीब नहीं हुआ। लोग कितना बदल गये है, उफ! वहीं इसी वर्ष 3 फरवरी को उनकी पत्नी के देहावसान ने उन्हें और तोड़ दिया था।
राजेन्द्र अपनी धुन के पक्के थे। मुश्किलों से डरना उन्होंने सीखा नहीं था। राष्ट्रीय पुरस्कार के अलावा अनेक उल्लेखनीय सम्मान उनकी झोली में पड़े। राष्ट्रीय ललित कला अकादेमी के भी वे सदस्य रहे। देश की अनेक महत्वपूर्ण कला प्रदर्शनियों, बिहार की प्रथम अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी सहित,की चयन समितियों के वे जूरी मेंबर रहे थे।
1973 का नया वर्ष लखनऊ में अपने चित्रों की एकल प्रदर्शनी के साथ उन्होंने मनाया था। जिसको ललित कला अकादमी की वीथिका में कानपुर की फाइन आर्ट गैलरी द्वारा प्रायोजित किया गया था। जिस पर टिप्पणी करते हुए एक स्थानीय दैनिक में मैंने लिखा था –
” आधुनिक कला के प्रमुख कलात्मक गुण – आकार का सरलीकरण प्रतीकात्मक ढंग में, रंगों के स्वाभाविक कोमल सौंदर्य की रक्षा, प्रभावपूर्ण संयोजन आदि को चित्रकार ने अपने चित्रों की रचना में लाने का प्रयास किया है। चित्रों को खुरचकर आकार देने व प्रभावशाली बनाने की प्रवृत्ति प्राय: सभी तैल चित्रों में लक्षित है। उनके प्रतीक एक नया मुहावरा गढ़ने की कोशिश में लगते हैं। इस दृष्टि से ‘नाइट न्यूड’ तथा ‘मैसेंजर’ और जल रंग में ‘अंगड़ाई’ चित्र प्रशंसनीय बन पड़े हैं। वहीं वस्तु निरपेक्ष अक्षर कला का कोलाज तथा रंगों के बिखराव द्वारा अमूर्त संयोजन के चित्र अभी और अभ्यास मांगते हैं। अर्धमूर्त चित्र अवश्य कुछ प्रभावशाली बन पड़े हैं, जिनमें ‘भमभीत’ चित्र विशेष उल्लेखनीय है।”
यह टिप्पणी उनके प्रारंभिक काल की पृष्ठभूमि को प्रतिबिंबित करती है, जिसमें एक कलाकार अपनी राह तलाश रहा होता है। बाद में वे रेखांकन करने लगे, जो उनकी पहचान बनाते गये। और फिर अपने रेखांकन के चरित्र वे तैल रंगों में भी गढ़ने लगे थे। उनका जाना भारतीय आधुनिक कला की एक अपूर्णीय क्षति है। पर इन सबसे अलग हमने अपना एक प्यारा दोस्त खो दिया है।
॥ऊं शांति, ऊं शांति, ऊं शांति॥
-अखिलेश निगम