मूर्तिकला की पढ़ाई करते समय जब नाराज़ अध्यापक ने परीक्षा में नम्बर काट लिये थे तब रौबिन डेविड ने विनम्रता से कहा था – ‘आपने नम्बर ही तो काटे हैं, हाथ तो नहीं काटे। इन्हीं हाथों से जीवन भर छेनी- हथौड़ा से पत्थर काटूंगा, मूर्तियां गढ़ूंगा।’ रौबिन डेविड ने यही करके दिखाया।

जीवन के पचहत्तर वसंत पार करने के बाद भी वे नये नये शिल्प गढ़ते हमें नजर आते हैं। बांग्ला भाषा के कवि- लेखक विष्णु डे जिस तरह कलाकार जामिनी राय के अनन्य प्रशंसक थे, रौबिन डेविड के प्रति इन पंक्तियों के लेखक के भाव कुछ वैसे ही हैं।
आगामी 21 फरवरी से दकन यानी तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में रौबिन डेविड के मूर्तिशिल्प की प्रदर्शनी का शुभारंभ होने जा रहा है। ‘ सिरजनहार ‘ कलादीर्घा की यह प्रदर्शनी होली के दो दिन बाद तक यानी सोलह मार्च तक चलेगी।

सिरजनहार की संस्थापक अमनप्रीत कौर ने शांतिनिकेतन से कला की शिक्षा हासिल की है। रौबिन डेविड ग्वालियर में पले बढ़े हैं। शताब्दियों पहले दकन के विद्वान मुल्ला बजही किसी बात का अकाट्य प्रमाण देने के लिए कहते थे – ‘ग्वालियर के गुणियों ने भी यही बात कही है।’ दकन में रौबिन डेविड की प्रदर्शनी ग्वालियर की उसी प्रामाणिकता की एक प्रकार से साक्ष्य होगी।
चार दशक से भी ज्यादा समय हो गया जब कला समीक्षक शान्तो दत्त ने रौबिन डेविड के रचे मूर्तिशिल्पों को देखने के बाद इन्हें ‘संगमरमर में कविता’ बताया था। जीवन के तमाम उतार चढ़ाव और झंझावात सह कर रौबिन डेविड जिस तरह पत्थरों को आकार दे रहे हैं उसे देखते हुए किसी को महाप्राण निराला की यह कविता अनायास याद आ सकती है –
‘ वह तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने
इलाहाबाद के पथ पर ‘

कलाकार वासुदेव कामथ को बीती छब्बीस जनवरी को भारत सरकार ने पद्म-अलंकरण देने की घोषणा करके बहुत अच्छा किया। रौबिन डेविड भी पद्म-अलंकरण के हकदार हैं, पर दावेदार नहीं। इसलिए जिस तरह कवि रामदरश मिश्र जी ने सौ वर्ष की आयु पार करके भी पद्म-अलंकरण सहज निर्विकार भाव से स्वीकार किया, संभव है कि कभी रौबिन डेविड भी उसी भाव से इसे ग्रहण करें।
मूर्धन्य कलाकारों के ‘सप्तर्षि मंडल ‘ में तो वे तभी सम्मिलित हो गये थे जब उन्हें मध्यप्रदेश शासन ने राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से विभूषित किया। इस सम्मान से कलाविद के जी सुब्रमण्यन को भी विभूषित किया गया था। रौबिन डेविड सम्मान और उपाधियों की अपेक्षा किये बिना अपना काम किये चले जा रहे हैं राग मारू विहाग गाते हुए।

शंखो चौधुरी की पहल से आधी शताब्दी पहले ग्वालियर में जो एक महीने का अखिल भारतीय मूर्तिकला शिविर लगा था तभी से यह राग सुनाने की फरमाइश उनसे की जाती रही है। मैंने एक बार डेविड साहब से कहा भारत में इतने विश्वविद्यालय हैं, आपको तो कोई भी अपनी मानद उपाधि से अलंकृत कर खुद को गौरवान्वित महसूस कर सकता है।

डेविड साहब ने पचास साल पहले खेले गये ‘तुगलक’ नाटक का संवाद सुनाया –
‘ दिल्ली की आबोहवा की यही तो खास सिफ़्त है कि यहां अहले दिल्ली, अहले दिल्ली का एतिबार नहीं करते। दिल्ली वालों को हमेशा बाहरी रहनुमाई ही रास आयी है। हम सब घर की मुर्गियां जो हैं !’
-जयंत सिंह तोमर