पिछले दिनों वरिष्ठ कलाकार रवींद्र वर्मा इस दुनिया को अलविदा कहा गए। उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित करता हुआ वरिष्ठ कलाकार व कला समीक्षक वेद प्रकाश भारद्वाज जी का यह आलेख। आलेखन डॉट इन के मंच से इस कला-मनीषी को हम सबकी ओर से सादर श्रद्धा-सुमन..
रवींद्र वर्मा जी से मेरी पहली मुलाकात 2007-8 में हुई थी। उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि हर कोई सहज ही उनकी तरफ खिंचा चला जाता था। मृदुभाषी और साधिकार प्रमाणिकता से अपनी बात कहने की उनकी कला पहली मुलाकात में ही लोगों को प्रभावित कर लेती थी। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था। उनसे मुलाकात कलाकार मित्र असुरवेध ने कराई थी। पहली बार में ही वह जिस आत्मीयता से मिले उसे भुलाना सम्भव नहीं है। कुछ मुलाकातों में ही कला के उनके अनुभवों और जानकारी से ऐसा लगने लगा जैसे किसी ऋषि से मुलाकात हो रही है। ज्ञान का आडम्बर उनमें नहीं था। ज्ञान और अनुभव में अधिक समृद्ध होने के बाद भी वह मुलाकात होने पर वर्तमान कला परिदृश्य के बारे में मेरी राय पूछते थे। मैंने कभी उन्हें कला बाजार के बारे में या कलाकृतियों की कीमत के बारे में बात करते हुए नहीं देखा। कम से कम मेरे साथ तो इस तरह की बात नहीं होती थी। उनसे मुलाकात पर बातचीत का केंद्र कला होती थी। और उससे भी पहले वह मेरा और परिवार का हालचाल पूछते थे। उनसे मिलकर लगता था जैसे परिवार के किसी बड़े व्यक्ति से मिल रहा हूँ।
कला की दुनिया में क्या कुछ हो रहा है, कलाकारों की स्थिति और उनकी समस्याओं को लेकर उनसे चर्चा होती थी। उन्होंने कुछ साल इटली में काम किया था। उन्हें इटेलियन भाषा आती थी और वहाँ उनके कई मित्र भी थे। उनके सम्पर्क के कलाकारों में से कोई इटली जा रहा होता था तो वह उसकी हरसंभव मदद करते थे। उन्होंने भारतीय और पश्चिमी कला जगत को नज़दीक से देखा था। वह अक्सर कहते थे कि भारत में कलाकार को अधिक संघर्ष करना पड़ता है। वह कहते थे कि इटली या अन्य देशों में भी कलाकारों को संघर्ष करना पड़ता है परंतु वहाँ की सामाजिक संरचना कुछ ऐसी है कि संघर्ष में भी आनन्द आता है। इसके विपरीत भारतीय समाज में आधुनिक कला को लेकर कोई चेतना नहीं होने से भारतीय कलाकारों को कई स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है।
दिल्ली के पास, ग्रेटर नोएडा के कलाधाम में रहते हुए उन्होंने वहाँ रहने व काम करने वाले कलाकारों को संगठित करने के साथ ही सोशल मीडिया पर दूसरे कलाकारों से लोगों का परिचय कराने का अभियान शुरू किया था। अपने शिल्पों के बारे में वह ज्यादा कुछ कहते नहीं थे। पूछने पर बस इतना ही कहते थे कि मैंने जो बनाना था बना दिया। मेरे काम ही मेरे कथन हैं। अब यह लोगों पर निर्भर है कि वह उसे कितना समझ पाते हैं। कोरोना संकट में लॉकडाउन के दिनों में उन्होंने टेराकोटा में काम किये थे जो उनकी कला का एक नया आयाम प्रस्तुत करते हैं।