रजा की कलाकृतियां समृद्ध चाक्षुष समझ की मांग करती हैं

अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है । बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में देखने को मिलते हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर जी का भी है। उनकी कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराना। इसी कड़ी में प्रस्तुत है विगत दिनों “कैनवास” संस्था द्वारा आयोजित रज़ा की कलाकृतियों के प्रिंट्स की प्रदर्शनी पर एक रिपोर्ट..

Anish Ankur
  • पटना में सैय्यद हैदर रजा के चित्रों की प्रिंट प्रदर्शनी

  • कैनवास, पटना व रजा फाउंडेशन का आयोजन

पिछले दिनों पटना में ‘कैनवास’, पटना तथा रजा फाउंडेशन, नई दिल्ली के तत्वाधान में सैय्यद हैदर रजा की कलाकृतियों के प्रिंट की प्रदर्शनी लगाई गई। लगभग एक दर्जन कलाकृतियों के प्रिंट की इस प्रदर्शनी ने पटना के कला प्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया। रजा के चित्रों की प्रिंट की यह प्रदर्शनी 3 से 17 अक्टुबर तक बिहार म्यूजियम में लगाई गई थी। कलाकारों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में लेखक, संस्कृतिकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता भी प्रदर्शनी देखने पहुंचे। कोरोना काल के बाद रजा के चित्रों की यह प्रदर्शनी पटना के लिए एक महत्वपूर्ण कला गतिविधि रही।
प्रदर्शनी के उद्घाटन समारोह की एक झलक
रजा ( सैय्यद हैदर रजा) , सूजा ( फ्रांसिस न्यूटन सूजा)  व  हुसेन ( मकबूल फिदा हुसेन)  की तिकड़ी भरतीय कला इतिहास में एक परिघटना की तरह उभर कर किवदन्ती बन चुकी है। इन तीनों में किसी की भी प्रदर्शनी आयोजित होती है तो उसे लेकर कला प्रेमियों में काफी उत्सुकता बनी रहती है। रजा की प्रतिनिधि चित्रों के प्रिंट की इस प्रदर्शनी से पटना के कलाप्रेमियों को रजा के  सृजन संसार से परिचित होने का अवसर प्राप्त हुआ। वैसे किसी चित्रकार द्वारा बनाये गए मौलिक चित्र तथा उसके प्रिंट में काफी फर्क होता है फिर भी दर्शकों को प्रिन्ट के माध्यम से कलाकार के काम का एक अंदाजा सा हो जाता है।
रजा के चित्रों में बिंदु, चांद व इन दोनों प्रदर्शित चित्रों में स्याह रंग से दिखाया जाना देखने वालों के मनःस्थिति पर तीव्र भावबोध जगाता प्रतीत होता है। एक चित्र में रजा ने एक विदेशी शहर में रात्रि वेला के चांद की रौशनी को शहर की छतों पर पड़ने वाली छाया को पकड़ने का प्रयास किया। रजा ने चांद को अपने सुनहरे रंग के बजाए उसे काले रंग से  चित्रित किया तथा  उसकी काली परछाई शहर की छतों पड़कर देखने वाले के  मन पर एक तीव्र भाव सृजित करता है। लेकिन रजा का कमाल यह है कि  मकान व छतों को उसने जहां काले रंग व ब्लू रंग से चित्रित किया है वहीं आकाश पीले सुनहरे रंग से उकेरा गया है। रात की कालिमा को सुनहरे रंग से जबकि सुनहरे चांद  को काले रंग से पेंट एक ऐसा  कंट्रास्ट को सामने लाता है जो मन पर कई तरह की मिश्रित भावनाओं को सामने लाता है। अपने अंदर की तीव्र भावनाओं को कैसे रूपाकारों व रंगों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जा सकता है इसकी मिसाल की तरह है यह चित्र।
जैसा कि कहा जाता है रजा के जीवन में लगभग 1980 के आसपास भारतीय चित्र भाषा की  तलाश के क्रम में बिंदु की खोज एक निर्णायक मोड़ के समान है। रजा ने रंगीन आयताकार आकृति को कई रंगों जैसे लाल, भगवा व  नीले पट्टी से सजाने के बाद एकदम मध्य में एकदम काले रंग के गोलाकार बिंदु को सामने रखा है। रजा के कई चित्रों में इस किस्म की आकृति व बिंदु का दुहराव मिलता है। रजा की अपनी बातचीत के अनुसार भारतीय चित्र भाषा ढूंढने के क्रम में उन्होंने इस बिंदु को पाया। और अब तो यह बिंदु रजा के चित्रों की खास पहचान बन गई है।
बिंदु के प्रभाव के संबन्ध में सैय्यद हैदर रजा बताते हैं “हमारे शिक्षक श्री ‘पंडित जी’ स्कूल के हेडमास्टर, मेरे पिता के मित्र थे। इन्हें कुछ दया आई। एक दिन पढ़ाई के बाद इन्होंने मुझे रोका। एक पेंसिल से शाला की सफेद दीवार पर इन्होंने एक ‘बिन्दु’ बनाया और कहा : तुम यहाँ बैठो सब भूल जाओ, शाला को, खेल को, कुटुम्ब को। केवल इस बिन्दु पर ध्यान दो, इसी पर मन लगाओ। यह क्रम जारी रहा कई दिन, बाद में दूसरे विषय पढ़ाये गये। नये शिक्षक मिले। एकाग्रता बढ़ती गई, चेतावनी मिली। ‘बिन्दु’ शुन्य था, सूर्य बन गया, प्रकाशमय, रंग दिखे। “ रजा आगे बताते हैं “नये जीवन का प्रारम्भ हुआ। यह ‘पाठ’ आज 50 साल से मेरे जीवन में समाया रहा है, समय बदला परिस्थितियाँ बदलीं, देश-विदेश जाना पड़ा, मगर वास्तव में असलियत एक ही रही। अपने को ढूँढ़ना, अपनी सोती हुई शक्तियों को जगाना आसान नहीं है। एकाग्रता, चिन्तन और साधना से ही आत्मविश्वास हो सकता है।“
बिंदु की प्रधानता वाले उनके चित्रों में ऐसा प्रतीत होता है कि कई हजार वर्ष पुरानी भारतीय सभ्यता के पुराने पदचिन्हों को पकड़ने का प्रयास किया जा रहा हो। रजा अपने रंगों, रेखाओं व संयोजन से जिस चित्र भाषा का सृजन करते है वह दर्शकों को एक नए चाक्षुष अनुभव से गुजारता है। साथ ही दर्शकों में एक न्यूनतम चाक्षुष समझ की मांग भी करता है। चीजों को देखने की प्रकट यथार्थ के अंदर के छिपे हुए अर्थ को उजागर करता है। सैय्यद हैदर रजा के चित्रों को देखना एक अनूठे कला अनुभव से तो गुजरने के साथ- साथ आत्मा की खुराक पाने जैसा भी है।
रजा के चित्रों को देखते हुए आप निरपेक्ष नहीं रह सकते। उनके चित्रों में मौजूद रंगों की परियोजना, रेखाओं की गति आपसे कुछ कहा चाहती प्रतीत होती है। चित्रकार के मन मे चल रहे उथल-पुथल को चटख रंगों से अभिव्यक्त करने के लिए व्यग्र से नजर आते हैं उनके काम। मन मे उठ रहे तीव्र भावों को शब्दों व भंगिमाओं से नहीं, अपितु रंगों की सहायता से प्रकट किया जा रहा है। जैसा की खुद रजा कहते हैं “ चित्रकार जीवन या कलाकृतियों के आसपास ही बात कर पाता है। स्वाद, सुगन्ध, पीड़ा, आनन्द- समझाये नहीं जाते हैं। इनका अनुभव चाहिये। प्रेम-माँ के हृदय में ही संचित है, आँखों में, हर क्रिया में, शब्दों की सीमा के बाहर।“
प्रदर्शित एक चित्र में कई अमूर्त से रेखांकन में एक ऐसे मृत शरीर और उसके समक्ष बैठे एक परेशान बालक की आकृति है। तस्वीर कुछ ऐसा कहना चाहती है जिससे आप अब तक उदासीन से रहे हैं लेकिन मानो आपका जानना उसे बेहद जरूरी है। मनुष्य की आकृति में चुप्पी है परंतु उस चुप्पी से भी काफी कुछ कहा जा रहा है। उसका बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस तरह उसे देख रहे हैं। यह तस्वीर  विचलित करने वाली है। पूरे चित्र में ऐसी ही अमूर्त आकृतियां हैं जो देखने वाले से गहरे संवेदना व दृष्टि की मांग करता है।
सैय्यद हैदर रजा अपने रेखांकनों से कुछ ऐसा विशिष्ट रचते हैं जो अब तक देखे गए चित्रों से उन्हें भिन्न बनाता है। एक भारतीय मानस की खोज, इसके लिए प्राचीन स्मृतियों छवियों की ओर मुड़ने की कवायद उनकी सभी चित्रों की एक खास पहचान है। चित्रों में संस्कृत के श्लोक, प्राचीन भारतीय प्रतीक लगातार उपस्थिति बनाये रखते हैं।
‘कैनवास’ और ‘रजा फाउंडेशन’ द्वारा यह प्रिंट प्रदर्शनी एक ऐसे समय में आयोजित हो रहा है जब पूरा भारतीय समाज कोरोना के अंधकार भरे त्रासद समय से गुजरकर सामान्य होने की कोशिश कर रहा है। भले ही रजा के चित्र एक भिन्न संदर्भ व समय को ध्यान में रखकर बनाये गए हों उनकी लगभग सभी चित्रों में काले व स्याह रंग की कई किस्म की मौजूदगी अभी हाल में गुजरे समय की भयावहता की याद दिलाती प्रतीत होती है। एक अच्छी कला इसी प्रकार अपने समय का अतिक्रमण करती प्रतीत होती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *