शैलेन्द्र कुमार के छायाचित्र

एक कलाकार के तौर पर शैलेन्द्र कुमार बिहार ही नहीं देश के कला जगत में एक सुपरिचित नाम हैं। यह अलग बात है कि बतौर छायाकार उनके काम को विशेष तौर पर सराहा जाता रहा है। कुछ माह पूर्व यानि लॉकडाउन से पहले, पटना स्थित बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर में शैलेन्द्र कुमार की एकल छाया प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। प्रस्तुत है इस प्रदर्शनी के तमाम पहलुओं को रेखांकित करता वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी/ कला लेखक अनीस अंकुर का यह आलेख..

लगभग तीन दशक से भी ज्यादा पहले की बात है जब पटना विश्वविद्यालय के अंतर्गत कला एवं शिल्प महाविद्यालय में कला स्नातक के पाठ्यक्रम की शुरुआत हुई । बताते चलें कि वर्ष १९८० से पहले यहाँ डिप्लोमा कोर्स ही उपलब्ध था। तो इसी कला स्नातक पाठ्यक्रम के पहले बैच के छात्र रहे हैं शैलेन्द्र कुमार।

एक लंबे अरसे बाद उनकी एकल प्रदर्शनी आयोजित की गई जिसमें कुछ नया व पुराने कामों को प्रदर्शित किया गया। बिहार सरकार के कला संस्कृति युवा विभाग के ‘कला मंगल’ श्रृंखला के तहत शैलेन्द्र कुमार के इन चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित की गई।

दो तीन कृतियों को छोड़ अधिकांश फोटो प्रदर्शनी में शामिल किए गए थे। हालाँकि कुछ ऐसी भी कलाकृति थी जिसमें फ़ोटो पर कूची चलाकर पेंटिंग बना दिया गया था। शैलेन्द्र कुमार पारंपरिक छवियों के प्रति थोड़े मोहाविष्ट नज़र आते हैं। इनकी अधिकांश फोटोग्राफी इन्हीं छवियों को कैद करती है। छठ, पिंडदान, आदिवासी, अजन्ता -एलोरा आदि से शैलेन्द्र कुमार का सहज लगाव (कंफर्टेबल ज़ोन) नज़र आता है। शैलेन्द्र तकनीक रूप से बेहद समृद्ध छायाकार हैं। इनके द्वारा कैद छवियों में प्रकाश व छाया को ऐसा साध संतुलन है कि कैमरे में कैद वस्तुएं पूरे ब्यौरे व तफसील के साथ उपस्थित होते हैं।

छठ जैसे धार्मिक पर्व में सूर्य को अर्ध्य देते वक्त सामुहिक श्रद्धा भाव के लम्हों को कैमरे में कैद किया है। इस क्षण को ऐसे कोण से पकड़ा है जिससे तालाब, उसके चारों ओर सूर्य की ओर मुख किये जनसमूह में निहित पूजा की पवित्र भंगिमा बखूबी अभिव्यक्त होती है। शैलेन्द्र कुमार की फोटो प्रदर्शनी में विशेषकर धार्मिक क्रियाओं में संलग्न समूह में कैमरे का एंगल प्रभावित करता है। जहां कहीं भी धार्मिक कार्य में सामूहिक रूप से लोग शामिल रहते हैं वहां टॉप व्यू से तस्वीरें ली गई हैं।

शैलेंद्र धार्मिक क्रियाओं को उस क्षण कैद करते हैं जब श्रद्धालु का मन जैसे उसी में डूबा हुआ है। पेड़ के चारों ओर महिलाओं द्वारा रंगीन धागों को बांधने में शैलेन्द्र ने कैमरे का फोकस उजले धागे के रंगे गए हिस्से पर केंद्रित रखा है।

प्रदर्शनी में कुछ ऐसी मूर्तियों की तस्वीर भी शामिल हैं जो टूटी-फूटी अवस्था में रही हैं। ग्रामीण इलाकों में इन मूर्तियों को लोग पूजा करने लगते हैं। कई बार उस पर सिंदूर आदि लगाकर पूजा की जाती है। इनकी बहुत अच्छी फोटो शैलेन्द्र कुमार ने ली है। पत्थर की इन मूर्तियों के सूक्ष्म ब्यौरे सामने लाये गए हैं जिससे धार्मिक भाव से लगाए गए सिंदूर की परतों के पीछे उसकी ऐतिहासिकता का अहसास दर्शकों को होता है।

शैलेन्द्र ने अजन्ता- एलोरा की प्राचीन मूर्तियों को कुछ इस अंदाज़ में अपने कैमरे में कैद किया है मानो उसकी पूरी भव्यता नंगी आंखों से देखी जा रही हो। गुफा के अंधेरे में मौजूद मूर्तियों को बहुत मद्धिम रौशनी में तस्वीर ली गई है, जैसा करना कैमरे पर बगैर असाधारण पकड़ के सम्भव प्रतीत नहीं होती। कम रौशनी में साफ व स्पष्ट तस्वीरें लेना फोटोग्राफरों के लिए हमेशा चुनौती का विषय रहा है।

प्रदर्शनी की कुछ यादगार फोटो में से है नदी के कछार में अकेले विचरण कर रहे हैं संभवतः मछुआरे की तस्वीर। ढ़लते सूर्य में नदी का आकर्षक विस्तार, पानी जैसे बालुई सतह के ठीक नीचे हो, उसमें इकलौते व्यक्ति की उपस्थिति। टॉप एंगेल से की गई यह तस्वीर अलग से ध्यान खींचती है।

ऐसी ही एक तस्वीर जो मिथकों व धार्मिक छवियों से इतर कुछ तस्वीरों पर नज़र ठहर जाती है उसमें नहर की उड़ाही करते, बालू ढोते, काटते मज़दूरों की सामूहिक तस्वीर है। ऊपर से ली गई इस तस्वीर में कामगारों का पृष्ठभाग दिखता है। दोनों तरफ बालू के ढेरों के बीच संकरे रास्ते में मज़दूर काम कर रहे हैं।श्रम के सौंदर्य को प्रकट करती यह तस्वीर शैलेन्द्र कुमार की मिथकों व धार्मिक कृत्यों से भरी छवियों से बिल्कुल भिन्न आस्वाद कराती है। श्रम जब अपने सामूहिक स्वरूप में उपस्थित होता है तो जिस सौन्दर्यानुभिति का अहसास कराता है इसकी बानगी है ये तस्वीर। वैसे प्रदर्शनी में ऐसी तस्वीरों की कुछ कमी है।

यहाँ उनके कैमरे से खींची गई पुरानी परंपरागत मिथकों व धार्मिक कृत्यों की छवियां बहुतायत में है। कैमरे की आंख से उन्होंने इन छवियों को उनकी पूरी भव्यता व उनमें निहित अंदरूनी सौंदर्य को सामने लाया है। समकालीन दुनिया मानो शैलेन्द्र कुमार के लिए अनुपस्थित है।

प्रदर्शनी में आदिवासी लोगों की व्यक्तिगत तस्वीर है। उनकी निजी तस्वीर को शैलेन्द्र कुमार ने उनके माहौल के साथ, उनके घर, उन पर बनी आकृतियों के साथ उपस्थित किया है। यानी यहाँ वे अपने सम्पूर्ण परिवेश के साथ उपस्थित हैं, जिसके कारन इन तस्वीरों में जो चीज उभरकर आती है उसमें सबसे बढ़कर है आदिवासी कौतूहल, जो उनके सहज स्वाभाविक निर्दोष भाव के साथ यहाँ प्रकट होती है।

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