“आबिद” वाले आबिद सुरती 

कहानीकार, उपन्यासकार, चित्रकार, कार्टूनिस्ट, नाटककार आबिद सुरती से अपने हालिया मुलाकात का हाल बयां कर रहे हैं युवा कलाकार  अरविन्द ओझा

भारत सरकार द्वारा 1993 में अपनी कहानी श्रृंखला “तीसरी आंख” के लिए “नेशनल अवार्ड” से सम्मानित प्रख्यात कहानीकार, उपन्यासकार, चित्रकार, कार्टूनिस्ट, नाटककार और मुंबई में “ड्रौप-डेड” जैसे जल की एक-एक बूंद बचाने की व्यक्तिगत मुहीम छेड़ने वाले विलक्षण कलाकार “आबिद सुरती” से मिलना दरअसल कला की असंख्य धाराओं से एक साथ मिलने जैसा होता है । कला में प्रयोगधर्मिता की आत्यांतिक दृष्टि ही किसी भी कलाकार को मौलिक और रचनात्मक बनाती है ।‌ आज के कला जगत में जहां लगभग सारे कलाकार अपनी विशिष्ट पहचान बनाने की एक पूर्व नियोजित प्रक्रिया के तहत किसी न‌ किसी स्थापित शैली में स्वत: बंध जाने को सदैव तत्पर रहते है वहीं आबिद जी जैसे बहुआयामी कलाकार हर बार अपने स्थापित ईमेज से स्वयं ही बाहर आते दिखाई देते है।‌ चाहे धर्मयुग पत्रिका में “डब्बूजी” जैसे बेहतरीन कार्टून का चर्चित किरदार का सृजन हो या बाद के समय में कार्टून की दुनिया का “बहादुर” जैसा जांबाज पुलिस आफिसर का रोमांचक किरदार, साहित्य की दुनिया में चाहे “वासकसज्जा”, “मुसलमान” और “काली किताब” जैसे चर्चित उपन्यास रहें हों या उनके सफलतम प्रयोगात्मक चित्र रचना का एक अद्भुत संसार – आबिद जी सभी माध्यमों में विलक्षण रहें है । फिल्म डिवीज़न द्वारा उनके उपर बनायी गई फिल्म “आबिद” उनके कलात्मक जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है ।

आबिद सुरती और अरविन्द ओझा

कई महीनों बाद उनके मीरा रोड स्थित घर पर आज शाम हमारी मुलाकात फिर से हुई और देर तक साहित्य और कला पर चर्चा होती रही । हालांकि हाथ में चोट लग जाने के कारण कई दिनों से वे अस्वस्थ चल रहे है वावजूद इसके उनकी पुरानी स्मृतियों में जाने कितनी बार आज हुसैन, सुजा, आरा और जाने कितने अन्य कलाकार, साहित्यकार और विद्वान आते और जाते रहे थे । देश की लोक कलाएं और लोक कलाकारों की चुनौतीयो को लेकर हमारी विशेष बातचीत हुई । अपनी पचास या साठ की दशकों की पुरानी कुमाऊं यात्राओं को याद करते उन्होंने सिने अभिनेता स्व. दिलीप कुमार का एक किस्सा भी सुनाया । तब चर्चित फिल्म “मधुमती” की शुटिंग नैनीताल और भीमताल के बीच कहीं चल रही थी और आबिद जी हमेशा की तरह अपनी पेंटिंग किट और कैनवास लिए कुमाऊं की यात्रा पर अकेले घूम रहे थे । घुमते घुमाते वे भी शुटिंग के लोकेशन तक चले गए और देखा कैसे दिलीप कुमार अपनी जेब से एक रूपये के नये नोटों की गड्डियां निकाल वहां उपस्थित गांव वालों और अन्य कबीलाई लोगों में बहुत प्यार से रूपए बांट रहे थे । कला, साहित्य और फिल्म से जुड़ी जाने कितनी ही कहानियां उनके पास थी !!!

पच्चासी साल पार कर चुके आबिद जी जैसे कलाकार की रचनात्मक ऊर्जा अभी भी देखते बनती है। वहीं खोजी दृष्टि, विचारों में नूतनता, आवाज और उँगलियों में उर्जा का एक अदम्य प्रवाह और कुछ नया कर गुजरने की निरंतर चाहत। यह सच है कि सारी कलाएं कलाकारों से ही अभिव्यक्ति पाती है लेकिन अपनी पूर्णता में किसी दिन हरेक प्रबुद्ध और गंभीर कलाकार स्वयं ही कला की एक सार्थक अभिव्यक्ति बन जाता है और ठीक इसी बिन्दु पर कला का असली सौंदर्य स्वतः स्थापित होता जाता है।

सभी चित्र: अरविन्द ओझा के सौजन्य से

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