कलाकार, लेखक व कला समीक्षक अशोक भौमिक के जन्मदिन के मौके पर प्रस्तुत है, महावीर वर्मा का यह आलेख। जो अशोक भौमिक की कला यात्रा के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व के तमाम पहलुओं को उद्घाटित करते हैं।

“किसी रचनाकार के खाते में कम से कम एक ऐसी प्रतिनिधि रचना हो, जिसके कारण वह सदैव याद किया जाए तो मेरी दृष्टि में उसका रचनाकर्म सफल है।”
– गंगा शरण सिंह (लेखकऔर समीक्षक)
गंगा शरण सिंह की यह टिप्पणी सटीक है क्योंकि कलाकार खाक हो जाता है, लेकिन उसकी कृति समाज में सदैव जिंदा रहती है, उसके प्रतिनिधि के रूप में। हमारे समय की एक ऐसी ही शख्सियत जो समाज में अपनी पहचान एक बहुआयामी रचनाकार के रूप में बना चुके है, उनके व्यक्तित्व के एक पक्ष का जिक्र मैं यहां करना चाहूंगा।
बात है सन 2000 के लगभग कि जब मैं नौकरी के लिए रतलाम आया था क्योंकि नौकरी रेलवे में थी, सो अकेलेपन की ऊब को तोड़ने के लिए मैं अक्सर रेलवे स्टेशन पर किताबों की दुकान के आगे मंडराता रहता था। इस कोशिश में की कोई अच्छी किताब दिख जाए तो पढ़ने के लिए लिया जाए ताकि कुछ समय तो निकल सके। एक दिन अनायास ही दुकान की सामने वाली सेल्फ में रखी एक पुस्तक ने मेरा ध्यान बरबस ही खींचा, उसके कवर पर श्याम- श्वेत रंग में एक चेहरा बना दिखा, जो लगता तो था सामान्य आदमी का चेहरा लेकिन उसके सिर पर ताज भी बना हुआ था जैसे कोई राजा हो, पुस्तक का शीर्षक ऊपर छपा था “गुनाहों का देवता”। धर्मवीर भारती का एक बहुचर्चित उपन्यास। मेरी पहली दिलचस्पी तो इसमें थी कि आवरण चित्र को मन भर कर देखूँ, मैंने उस पुस्तक को खरीद लिया । चित्र को देखा तो पाया कि वह पेन एंड इंक से क्रॉस हैचिंग विधि से बना हुआ था। चित्र की प्रकाश व्यवस्था और संयोजन बहुत आकर्षक थे। उपन्यास मैंने लगभग तीन-चार दिनों में पूरा पढ़ लिया था लेकिन उसका कथानक आज भी मुझे पूरा स्मरण नहीं होता है,पर चित्र आज भी ताजा है, जैसे अभी कुछ समय पहले ही देखा हो।
इस घटना का जिक्र मैं यूं ही नहीं कर रहा हूं ,यही तो मेरा पहला परिचय था बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी चित्रकार, साहित्यकार और समीक्षक अशोक भौमिक से। इस घटना के लगभग 8 साल बाद वरिष्ठ चित्रकार अक्षय आमेरिया से उनके निवास पर मिलना हुआ तो बातों बातों में प्रसंगवश उन्होंने मुझे एक बड़ा सा कैटलॉग दिखाया।उसके चित्रों को देखकर मुझे एकाएक “गुनाहों का देवता” का आवरण याद आ गया। उस समय मैंने क्रॉस हैचिंग का विषय वैविध्य और संयोजन के नयेपन को साथ देखा। मेरी मुख मुद्रा को देखकर अक्षय जी ने मुझसे कहा देखो पेन एंड इंक से कितना बड़ा और अद्भुत चित्र संसार रचा जा सकता है। यह बात मुझे कहने के पीछे शायद उनका आशय यही रहा होगा कि मेरे चित्रों का माध्यम भी पेन एंड इंक ही था लेकिन बिना किसी खास तकनीकी समझदारी के ।

कैटलॉग दिखाने का मंतव्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने मुझे समझाया कि पेन एंड इंक को चित्र के माध्यम के रूप में अपना बड़ी चुनौती तो है लेकिन स्वयं को एक कलाकार के रूप में तैयार करने के लिए बहुत ही सही और कारगर माध्यम है। बात बारास्ता कानों से सीधे दिल तक पहुंच चुकी थी ।
कुछ समय बाद मुझे संदेश मिला कि जब भी मुझे उज्जैन आना हो तो साथी चित्रकार मुकेश बिजोले के स्टूडियो से अपना सामान याद से ले ले जो तुम्हारे लिए चित्रकार अशोक भौमिक ने भिजवाया है । मैं सुनकर रोमांच से भर गया। वह उपहार शीघ्र ही मैंने मुकेश के यहां से प्राप्त कर लिया। जिज्ञासा से भर मैनें जब उसका आवरण हटाया तो देखता हूं कि मेरे हाथों में विंसर एंड न्यूटन की इंडियन इंक की बोतल थी ।उसके कांच की चमकीली देह पर चिपके स्टीकर पर संदेश लिखा था, प्रिय महावीर के लिए तथा नीचे लिखा था अशोक भौमिक, नई दिल्ली और मोबाइल का नंबर। प्रतिक्रिया शून्य मुझे सिर्फ आज कबीर का दोहा याद आ रहा था :-
“जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे आकाश।
जो है जा को भावना सो ताहि के पास।।”
नैतिकता के निर्वहन में मैंने अशोक दा को बोतल पर चस्पा किए गए मोबाइल नंबर पर फोन कर अपना धन्यवाद ज्ञापित किया तो प्रतिक्रिया में, अशोक दा ने कहा कि पता चला है तुम इंक से काम करते हो सो तुम्हारे लिए इंक भिजवाया था। खूब काम करो और मुझे भी अपने चित्र दिखाओ कैसा काम करते हो।
अब मैं समझ पा रहा था कि मैं चित्र तो बनाता था लेकिन किसी पेशेवर की तरह नहीं बस शौकिया तौर पर, कभी कभार, लेकिन अब मुझे समझ में आ गया था कि ये तो बहुत ही नायाब तरीका हैं किसी सोये हुए कलाकार को जगाने का। बस उसी नैतिक दबाव के चलते चित्र बनाता और यथा योग्य तरीकों से उन तक उनकी फोटो पहुंचाने लगा। कुछ समय बाद मुझे पता चलता कि वह चित्र किसी न किसी पत्र या पत्रिका का हिस्सा बन जाते थे। ये जो नए रिश्तों की डोर हाथ में बढ़ती जा रही थी, वो कला, कलाकार और कला चर्चा की खुटीयों से बंधी हुई थी।
यह बात स्वीकारते हुए मुझे बहुत गर्व भी होता है कि बैठे-बिठाए वरिष्ठ कला मित्र के रुप में एक मार्गदर्शक मिल गया था जो समय-समय पर होने वाली कला वार्ताओं के जरिए मुझे न सिर्फ रिफाइन करते बल्कि सही मायनों में मेरी कला शिक्षा के वास्तविक एवं पेशेवर पहलू का भी आरंभ कर चुके थे, जो अकादमी के दबाव से बिल्कुल मुक्त थी।
अशोक दा को जब नजदीकी से जाना तो पाया कि यह व्यक्तित्व तो अपने आप में सर्जनधर्मिता का पूरा महाविद्यालय हैं। जिसमें साहित्य ,नाटक, चित्र ,समीक्षा और डिजाइन राजनैतिक पोस्टर की धाराएं समानांतर बहती है ।यहां कोई भी एक धारा दूसरी धारा का अतिक्रमण नहीं करती है। एक साक्षात्कार में अशोक दा ने कहा था कि “मैंने साहित्य से सीखा है कि चित्र कहानी कहने का माध्यम नहीं है ।”अर्थात कहानियों या कथा की पहली आवश्यकता ही भाषा का आश्रय है और चित्रकला अपने आप में परिपूर्ण वैश्विक भाषा है । जिसमें संप्रेषण के लिए कोई किसी कथा की जरूरत नही है क्योंकि चित्र किसी भी घटनाक्रम का एक ठहरा हुआ पल होता है।

बकौल अशोक दा, हम भारतीयों को चित्र और चित्रण के भेद को जानना आवश्यक है क्योंकि हमारा कला इतिहास चित्रण से भरा पड़ा है। जहां हम चित्र के माध्यम से कथा को कहने के आदि हैं । जब-जब अशोक दा के स्टूडियो में जाने का मौका मिलता तो उस दौरान दिन में कला विषयक विषयों पर गहन बातचीत होती तथा सायं कालीन बैठकी में स्टूडियो के कोने में रखा कोई कोरा कैनवास हमारे लिए सिनेमा के पर्दे में बदल जाता और प्रोजेक्टर के इंद्रधनुषी प्रकाश से आलोकित हो उठता। यह सभा आधुनिक भारतीय चित्रकला के विकास को गति देने वाले गुमनाम चित्रकारों के चित्रों को पावर प्वाइंट प्रदर्शन के माध्यम से देखने और उन पर बातचीत करने का मौका बनती, जिसके चलते मैं सोमनाथ होर की तेभागा डायरी, चित्तप्रसाद, कमरुल हसन ,जैनुल आबेदीन , प्राणनाथ मागो, सतीश गुजराल , अमृता शेरगिल , रविंद्र नाथ टैगोर के चित्रण और चिंतन की धारा से परिचित हो सका। छात्र जीवन में कला शिक्षा के दौरान पढ़े कला इतिहास में से ये कई चित्रकार मेरे लिए नए थे साथ ही चित्र देखने का तरीका भी काफी कुछ नया था। चित्रों के अनुशीलन का यह तरीका अब अकादमिक शिक्षा के प्रति मेरी आसक्ति को तोड़ता जान पड़ रहा था क्योंकि अब तक श्रेष्ठ चित्र और चित्रकार की जो अवधारणा मेरी बनी हुई थी वह हर आम कला रसिक की भी रही होगी ,वह यह कि जो चित्र विश्व प्रसिद्ध नीलाम घरों की नीलामी में ऊंचे दामों में बिके वही श्रेष्ठ कृति होता है । पर कला संवादों और प्रदर्शनों के उन सायंकालीन बैठकों ने तो मस्तिष्क के सभी जालों को हटा दिया था और अपनी ही समझ पर प्रश्न पैदा होना शुरू हो गए ।
जो भी प्रश्न पैदा होते समयानुकूलता के साथ उनका निदान भी अशोक दा से मिलने लगा। एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न जो लगता सामान्य सा था लेकिन बेचैन बहुत कर रहा था वह की कला किसे कहेंगे?
क्योंकि अब तक कला की समझ के सारे किले ध्वस्त हो चुके थे। जवाब इसका कुछ यूं मिला हमारे कला इतिहास की सैकड़ों वर्षो पुरानी परंपरा हमें प्राय: मूर्तियों के रूप में ही दिखती है। चित्रों के संदर्भ तो पाषाण काल और उत्तर पाषाण कालीन नगरीय संस्कृति के पश्चात सीधे मध्यकालीन लघु चित्रों में ही नजर आते हैं। जबकि अजंता जैसी महान धारा जिसको कला इतिहास का स्वर्णिम युग माना जाता है ,की खोज 1920 में हुई थी। इसी तारतम्य में कुछ दिनों पूर्व ही प्रभु जोशी (ख्यात चित्रकार )के लेख में पढ़ने को मिला कि जब हरबर्ट रीड, पचास के दशक में भारत आए थे तब उन्होंने भारत की कला जगत में अपनी जगह बनाती आधुनिक कृतियों को देखा तो गहरे अवसाद में भरकर उन्होंने कहा कि “मैं तो सोचता था कि दो ढाई हजार साल के कला और संस्कृति के इतिहास वाला राष्ट्र अपनी ही तरह से अपनी आधुनिकता को अविष्कृत कर ही लेगा ,लेकिन देखकर गहरा अफसोस हुआ कि यह तो पश्चिम के उच्छिष्ट (त्याज्य) में ही अपनी आधुनिकता का भविष्य खोज रहा है ।”
भारत जैसे विविधता से भरे विशाल राष्ट्र के सांस्कृतिक स्वर्ण काल में जो भी रचा गया वह एक अलग उद्देश्य को केंद्र में रखकर, जहां कला के द्वारा धार्मिक प्रचार हो रहा था। आज उसी को हम आधुनिक भारतीय कला के विकास की अपनी जड़ों के रूप में चिन्हित करते हैं ।इस पर अशोक दा अपनी राय प्रकट करते हुए कहते हैं कि अजंता जैन ,राजस्थानी ,मुगल और पहाड़ी चित्रों की परंपरा ही मूलतः कथाश्रित है साथ ही चित्रों का लघु स्वरूप व्यक्तिगत मनोरंजन का साधन भी था। यहां चित्र अपने संदर्भ और स्वामित्व से मुक्ति नहीं पाते हैं और चित्रों की रचना का उद्देश्य राजनीतिक एवं धार्मिक प्रचार था।
कला का एक दूसरा पहलू जो लोक का प्रतिनिधित्व करता था। स्वतंत्रता के बाद विकसित आधुनिक भारतीय कला को अब अपनी जड़ें लोक शैलियों में नजर आने लगी थी। परिणामस्वरूप लोक शैलियों में चित्र बनाना प्रारंभ हो गए जबकि लोक कलाओं से जो लिया जाना चाहिए था, वह यह कि वर्ली से फॉर्म का सरलीकरण, विषय की मुक्तता गौंड जैसी कला से फॉर्म एवं स्पेस का अंतर संबंध ,स्पेस के साथ फॉर्म का रचनात्मक डिस्टॉर्शन ,विषय वस्तु के रूप में प्राकृतिक परिवेश का उन्मुक्तता से अंकन ,राजस्थानी फड़ चित्रों से चटक रंगों का सौंदर्य और अंग्रेजों के आने के बाद कालीघाट के पट चित्रों से विषय वस्तु की समकालीनता लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत कि हम इन से सीखने की जगह इनकी नकल करने लग गए इससे ना तो हम आधुनिक हो सके ना ही और न ही लोक कलाकारों का जीवन स्तर उठा पाए बल्कि लोक कलाओं के संरक्षण के नाम पर गांव ,गांव ही बनने लगे और लोक कलाकार सामाजिक व आर्थिक स्तर पर पिछड़ते रहे ।जबकि लोक कलाओं का गंतव्य कला संग्रहालय होना था । हमें यह सोचना पड़ेगा कि पाब्लो पिकासो (1881 से 1973) ने किस तरह आधुनिकता की रचना में लोक कला की रचनात्मकता को लिया। गौरतलब है कि घनवादी शैली की रचना में नीग्रो मुखौटों के घनीय प्रभाव से युक्त ज्यामितीय लय को आकारों के साथ जोड़कर अपनी नई चित्र भाषा को विकसित किया था न कि निग्रो मुखौटों का अनुकरण ।
यह सीख अशोक दा जैसे कला साधक ही दे सकते हैं कि जो आदिम है, इतिहास है पुरातन है उसका सम्मानजनक स्थान केवल कला संग्रहालय है न कि चित्रों में आधुनिकता के नाम पर हो रहा उनका दोहराव। एक बार अशोक दा से मैंने काउंटर प्रश्न किया कि आप हमेशा ही अजंता जैसे स्वर्णिम आधार को लेकर विकसित हो रहे बंगाल स्कूल और आधुनिक भारतीय चित्रकला के पितामह अवनीन्द्रनाथ टैगोर ,नंदलाल बसु जैसे चित्रकारों को आधुनिक क्यों नहीं मानते हैं? तो अशोक दा ने बड़ी सहजता से प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अजंता की रचना का उद्देश्य धर्म का प्रचार था। बंगाल स्कूल के कलाकार भारतीय आधुनिक चित्र परंपरा की नींव रख रहे थे, उनको वहां से फॉर्म लेना था जैसा कि उनका मंतव्य था लेकिन वह उसके साथ में वहां से टेक्स्ट (कथ्य)भी साथ में ले आए ,तो स्थिति पूर्ववत ही रह जाती है। इसके परिणाम स्वरूप हम चित्रों में आधुनिकता के सन्दर्भ में दृश्यगत आकारों में अभिनवता, प्रकाश, परिप्रेक्ष्य जैसे मूल तत्वों पर काम ही नहीं कर सके जिससे कला को पुरातन बंधनों से मुक्ति मिल सकती और चित्रों की स्थापना स्वतंत्र चित्रों के रूप में हो सकती । गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने चित्रकला के बारे में कहा है कि “विश्व में जितनी भी कलाएं हैं उनमें से चित्रकला ही मुक्ति की कला है।” जो भाषा,जाति ,धर्म प्रांतीयता से कला को मुक्त करती हैं।
पिछले दिनों चित्रों में मानवतावाद विषयक सामग्री को पढ़ रहा था तो अशोक दा से वार्ता के दौरान मैंने चित्रों में मानवतावाद क्या है ,आपके लिए ? पूछा उन्होंने अपने विचार 1850 में स्थापित मद्रास कॉलेज ऑफ आर्ट्स के उद्देश्य से जोड़ कर रखें कि डॉक्टर एलेग्जेंडर हंटर (संस्थापक, सर्जन अंग्रेज विद्वान) ने इस संस्था का उद्देश्य बताते हुए कहा था कि “चित्रकला मानवतावादी संस्कृति की प्रतिनिधि कला है।” कहना पर्याप्त होगा कि चित्र ही मानवतावाद को संप्रेषित करने का ताकतवर जरिया है। अशोक दा बताते हैं कि मेरे लिए मानवतावाद से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है। मैं अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचना चाहता हूं । इसके लिए मैं उन सभी लोगों के खिलाफ हो जाऊंगा जो क्यूरेटर, कला समीक्षक और शिक्षाविदों के भेष में आम आदमी को उनके क्रियाकलापों और छद्म दार्शनिक व जटिल विवरणों से आतंकित करते हैं। बीसवीं सदी के अंत में चित्र अब अपने परिवेश से मानव उपस्थिति को ही नकारते प्रस्तुत होने लगे थे और जब चित्रों में मानव उपस्थिति ही नहीं है तो सारा परिवेश ,भावों के धरातल पर कम और रोमांचकारी तकनीकी क्रीड़ा की भूमि पर ज्यादा खड़ा नजर आने लगा । पोस्ट मॉडर्न चित्रों के इस समय मेंं कला तत्वों की ये रोमांचक क्रीड़ा दार्शनिक मीमांसा के सहारे खेली जाने लगी, जिसने हमेशा आम आदमी को आक्रांत कर कला परिसरों से बाहर धकेल दिया हैं।
अशोक दा का मानवतावाद उनके चित्र “फेरी विद आउट टेल ,द बुल विथ द बर्ड, कोल माइनर्स- एंड द कैनरी ,सड़क के बच्चे जैसी श्रृंखलाओं में दिल छू लेने वाले भावों का ही विस्तार है। यह मानवतावाद सिर्फ चित्रों में ही नहीं वरन अशोक दा के लेखन में भी भरपूर मिलता है। इनकी प्रकाशित महत्वपूर्ण कहानियां बदबू ,कील, अंधेरा ,वापसी, शुरुआत का अंत , आइस -पाइस ,सृष्टि की पहली कविता , मुक्ति तथा मोनालिसा हंस रही थी, शिप्रा एक नदी का नाम है जैसे उपन्यास व जीवनपुर हाट जंक्शन जैसे संस्मरण मानवतावादी एवं मार्मिक चिंतन का ही प्रमाण है।
इसके अलावा कला संबंधी विषयों पर निबंध, टिप्पणियां, लेख ,समीक्षा पुस्तकें जैसे -समकालीन चित्रकला :हुसैन के बहाने, अकाल की कला और जैनुल आबेदीन, भारतीय चित्रकला का सच, चित्तप्रसाद: एक जीवनी, सोमनाथ होर की तेभागा डायरी, चित्रकथा ,चित्रों की दुनिया, कल्पना के चित्र, अमृता शेरगिल तथा सादेकैन । साथ ही रंगमंच पर केंद्रित बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच मौलिक चिंतन के ही दस्तावेज हैं। चाहे साहित्य हो या रंगमंच हो, समीक्षा हो या चित्रकला अशोक दा हमेशा कला के लिए सृजन के पक्षधर रहे हैं। व्यापार के लिए कला जैसा विकल्प उन्होंने नहीं चुना। इस पर मुझे एक घटना याद आती है लगभग 2009 या 2010 की बात है अशोक दा के चित्रों के विक्रय का कार्य भारत की एक बहुत प्रतिष्ठित कला दीर्घा( नई दिल्ली में) करती थी उस दरम्यान उनके “द बुल एंड द बर्ड” श्रृंखला के चित्रों की मांग बाजार में बढ़ गई थी परिणाम स्वरूप कला दीर्घा के संचालकों ने अशोक दा से लगभग 300 चित्र इस श्रृंखला से बनवाने के अनुबंध की तैयारी कर दी थी लेकिन अशोक दा ने यह प्रस्ताव यह कहते हुए नकार दिया कि इससे कलाकार की रचनात्मकता नष्ट हो जाएगी। मैं वह रचना सुख भी नहीं ले पाऊंगा । जबकि अनुबंध में बहुत ऊंचे दामों का प्रस्ताव था।
मैंने इस घटना का जिक्र इसलिए उचित समझा क्योंकि रचनाकर्म में प्रगतिशीलता के लिए रचनाकार की कथनी व करनी में समानता ही उसकी तटस्थता और मौलिकता को प्रकट करती है। घटना के पीछे अशोक दा का मंतव्य साफ था कि ‘मैं अपनी कला को समाज के एक बड़े वर्ग के लिए सुलभ बनाता हूं और मैं एक ऐसे कलाकार के रूप में याद किया जाना चाहता हूं जिसने भारतीय आधुनिक कला में घृणित दोहराव की प्रथा को अस्वीकार कर दिया था।”
अशोक दा के जीवन का फलसफा भी यह रहा है कि उनका समाज वर्गहीन हो जहां क्लास , जाति , धर्म, लिंग के आधार पर विभाजन न हो। वहां सिर्फ मानवता रहे सभी के लिए संवेदना, प्यार और आदर यह सभी पक्ष अशोक भौमिक के रचनाकार , चिंतक, समीक्षक, कलाकार को समझने और पहचानने में सहायक है। यदि मैं कहूं कि अशोक दा अपने आप में एक महाविद्यालय हैं जहां जीवन के सभी रंग अपने पूरे वैभव के साथ खिले नजर आते हैं तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।