आधुनिक कला इतिहास में अमूर्तता (Abstraction) का आगमन एक निर्णायक मोड़ था, जिसने दृश्य भाषा की पारंपरिक शैलियों को चुनौती दी और एक नई प्रकार की सौंदर्यशास्त्रीय समझ को जन्म दिया। यह प्रश्न लंबे समय से कला समीक्षकों, इतिहासकारों और दार्शनिकों के मध्य बहस का विषय रहा है कि क्या अमूर्तता का आगमन एक स्वाभाविक, आंतरिक विकास था, या यह किसी सांस्कृतिक या राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था। इस निबंध में हम इस बहस के दोनों पक्षों की विस्तार से चर्चा करेंगे।
अमूर्त कला की परिभाषा और उत्पत्ति: अमूर्तन वह शैली है जिसमें कलाकृति किसी प्रत्यक्ष वस्तु, आकृति या दृश्य यथार्थ की नकल नहीं करती, बल्कि रंग, रूप, रेखा, संरचना और गति जैसे तत्वों के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति करती है। 20वीं सदी के प्रारंभ में वासिली कैंडिंस्की, मालेविच और पीट मोंड्रियन जैसे कलाकारों ने अमूर्त कला की नींव रखी। कैंडिंस्की ने कहा था कि रंग और रूप की अपनी “आत्मिक आवाज़” होती है, जो किसी भी दृश्य वस्तु के बिना भी दर्शक से संवाद कर सकती है।

स्वाभाविक विकास की दृष्टि से अमूर्तता : यदि हम अमूर्तता को कला के स्वाभाविक विकास के रूप में देखें, तो इसके पीछे कई ऐतिहासिक और सौंदर्यशास्त्रीय कारण मिलते हैं। फोटोग्राफी के आविष्कार ने 19वीं सदी में यथार्थ चित्रण की आवश्यकता को कम कर दिया। कलाकार अब दृश्य यथार्थ की नकल से मुक्त होकर अपने आंतरिक अनुभव, भावनाओं और विचारों को चित्रों में व्यक्त करने लगे।
इसी के साथ यूरोप में मनोविश्लेषण (Psychoanalysis) और आध्यात्मिक आंदोलनों का प्रभाव भी बढ़ा। इन प्रवृत्तियों ने कलाकारों को आत्मा, अवचेतन और आत्म-अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख किया, जिसका प्रभाव अमूर्त कला में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस दृष्टिकोण में अमूर्तता एक ऐसा अनिवार्य कलात्मक प्रयोग था, जिसने कलाकार को अपनी सीमाओं से बाहर निकलने का अवसर दिया।
अमूर्तता सांस्कृतिक रणनीति के रूप में : दूसरी ओर, कुछ विद्वान अमूर्तता के उदय को एक सुनियोजित सांस्कृतिक रणनीति मानते हैं, विशेष रूप से शीत युद्ध के संदर्भ में। माना जाता है कि अमेरिका ने 1940 और 50 के दशकों में अमूर्त अभिव्यक्तिवाद (Abstract Expressionism) को सांस्कृतिक स्वतंत्रता और व्यक्तिवाद के प्रतीक के रूप में बढ़ावा दिया। जैक्सन पोलक, मार्क रोथको, विलेम डी कुनींग जैसे कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत कर यह दिखाने की कोशिश की गई कि अमेरिकी लोकतंत्र में कलात्मक स्वतंत्रता का कितना महत्त्व है।
इस रणनीति का एक मुख्य उद्देश्य था—सोवियत संघ द्वारा प्रायोजित समाजवादी यथार्थवाद (Socialist Realism) का विरोध। अमेरिका में सीआईए जैसे संगठनों ने अमूर्त कला की प्रदर्शनियों को विदेशी भूमि पर आयोजित करने में वित्तीय सहायता दी, ताकि अमेरिका की सांस्कृतिक श्रेष्ठता का प्रचार हो सके। इस तरह से, अमूर्तता को एक राजनीतिक औजार के रूप में भी इस्तेमाल किया गया।
भारतीय संदर्भ में अमूर्तता: भारत में अमूर्तता का प्रवेश पश्चिमी प्रभावों के साथ-साथ स्थानीय आत्म-अन्वेषण के माध्यम से हुआ। स्वतंत्रता के बाद भारतीय कलाकारों को यह प्रश्न मथ रहा था कि वे न तो पूरी तरह पश्चिम का अनुकरण करें, न ही परंपरा की जड़ता में फंसे रहें। इस द्वंद्व ने कई भारतीय कलाकारों को एक देशज आधुनिकता (Indigenist Modernism) की तलाश में प्रेरित किया।
जे. स्वामीनाथन, के.सी.एस. पनिक्कर, रामकुमार, रज़ा और गुलाम मोहम्मद शेख जैसे कलाकारों ने अमूर्तता की अपनी-अपनी व्याख्याएं प्रस्तुत कीं। स्वामीनाथन ने भारत भवन और ‘रूपंकर संग्रहालय’ की स्थापना कर लोक और आदिवासी कला के साथ अमूर्तता के संवाद की एक नई दिशा दिखाई। उन्होंने हिमाचली लघुचित्र परंपरा को अमूर्तता के आधुनिक ढांचे में ढालने की कोशिश की।

अमूर्तता और कलात्मक स्वतंत्रता: अमूर्तता ने कलाकार को एक ऐसी भाषा दी जो राजनीतिक, सांस्कृतिक और वैचारिक सीमाओं से परे थी। क्योंकि इसका कोई निश्चित व्याकरण नहीं था, और न ही कोई निश्चित प्रतीक। यही कारण रहा कि यह शैली कई कलाकारों के लिए प्रयोग की भूमि बनी। लेकिन यह स्वतंत्रता स्वयं में एक चुनौती भी थी—जैसे अर्थ के विखंडन की चुनौती, दर्शक से संवाद की चुनौती।
आलोचना और वैधता का प्रश्न: कुछ आलोचकों का मानना है कि अमूर्तता एक प्रकार का “एलिटिस्ट एस्केप” है—यानी एक ऐसी शरणस्थली, जहाँ कलाकार दर्शकों के प्रत्यक्ष प्रश्नों से बच निकलता है। ऐसे में जो कुछ प्रश्न खड़े होते हैं, वे यह कि जब कोई कलाकृति सामान्य दर्शक के लिए अपठनीय हो जाती है, तो क्या वह समाज से कट नहीं जाती? क्या यह सब दृश्य भाषा की लोकतांत्रिकता का हनन नहीं?
वहीँ दूसरी तरफ अमूर्तता के समर्थन में यह भी कहा जा सकता है कि हर कला का उद्देश्य संप्रेषण ही नहीं, बल्कि संवेदना, प्रयोग और नवाचार भी है। अमूर्तता ने इन तीनों उद्देश्यों की सिद्धि में अपनी भूमिका निभाई है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि सदियों से जो कला किसी धार्मिक कथानक और उसके पात्रों के इर्द-गिर्द रची जा रही थी, उसने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की I किसी चित्र को देखते समय अब आवश्यक नहीं रह गया कि आप उस घटना या कथानक से परिचित हों I
निष्कर्ष: अतः यह कहा जा सकता है कि अमूर्तता का आगमन न तो पूर्णतः स्वाभाविक विकास था, न ही पूरी तरह राजनीतिक रणनीति। यह एक मिश्रित प्रक्रिया थी—जहाँ कलाकारों की आत्माभिव्यक्ति, पश्चिमी प्रभाव, राजनीतिक परिस्थितियाँ और दर्शकों की बदलती समझ सभी ने अपना-अपना योगदान दिया। कतिपय इन्हीं कारणों से अमूर्तता एक तरह की प्रयोगशीलता का प्रतीक बनकर आज भी समकालीन कला के केंद्र में बनी हुई है, और यही इसकी स्थायित्व की सबसे बड़ी पहचान है।
अंतरराष्ट्रीय कलाकारों के उदाहरण:
वासिली कैंडिंस्की (Vassily Kandinsky): रूसी जर्मन कलाकार कैंडिंस्की को अमूर्त कला का जनक माना जाता है। उनकी कृति Composition VII (1913) रंगों, रेखाओं और गतियों का एक ऐसा समुच्चय है जो बिना किसी यथार्थवादी वस्तु के भी गहरे भाव पैदा करता है। उनके अनुसार, “रंग आत्मा पर सीधे प्रभाव डालते हैं।” यह कथन अमूर्तता के उस आध्यात्मिक पक्ष को दिखाता है जो कला की स्वाभाविक विकास प्रक्रिया का हिस्सा रहा।
जैक्सन पोलक (Jackson Pollock): अमेरिकी अमूर्त अभिव्यक्तिवादी पोलक की drip painting शैली, जैसे Autumn Rhythm (1950), ने दर्शक को कला की प्रक्रिया में शामिल कर लिया। पोलक का यह नवाचार सीआईए द्वारा प्रचारित “High Modernism” के परिप्रेक्ष्य में भी देखा गया है—एक ऐसी शैली जिसमें मानव आकृति की अनुपस्थिति, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रतीक बनी।

कुछ चर्चित भारतीय कलाकार :
वी. एस. गायतोंडे : गायतोंडे को भारतीय अमूर्त कला का अग्रदूत माना जाता है। वे स्वयं को ‘अमूर्त कलाकार’ नहीं बल्कि अ-आकृतिक कलाकार (non-objective painter) कहते थे। उनके कैनवस पर फैले हुए सूक्ष्म बनावट वाले रंगक्षेत्र (color fields), रहस्यमयी ध्वनिहीनता और सूफियाना सौंदर्य उनकी साधना का परिणाम हैं। गायतोंडे की पेंटिंग्स में गहराई, बनावट और रोशनी की महीन परतें होती थीं। वे स्पैचुला और रोलर से पेंट लगाते थे और बार-बार उसकी परतें हटाकर सूक्ष्म प्रभाव रचते थे। उनके कार्यों में चीनी और जापानी ज़ेन सौंदर्यबोध, कालिदास की नायिकाओं की मौनता, और भारतीय दर्शन का गहन प्रभाव था। गायतोंडे की अमूर्तता, पश्चिमी प्रभावों (जैसे मार्क रोथको, पॉल क्ली) को आत्मसात करने के बाद भी भारतीय दर्शन से जुड़ी थी। उन्होंने यह सिद्ध किया कि भारतीय कला आधुनिक हो सकती है बिना अपनी आत्मा खोए। उनके लिए अमूर्तता कोई ‘विदेशी तकनीक’ नहीं, बल्कि ‘अंतर्मुखी ध्यान’ थी।
एस.एच. रज़ा : रज़ा की बिंदु श्रृंखला में भारतीय आध्यात्मिकता और अमूर्तता का विलक्षण संगम दिखाई देता है। रज़ा ने रंगों और ज्यामितीय संरचनाओं के माध्यम से ‘बीज’, ‘प्रकृति’ और ‘चेतना’ जैसे भारतीय वैचारिक तत्वों को अमूर्त भाषा में प्रस्तुत किया।
रामकुमार: रामकुमार ने अपने आरंभिक सामाजिक यथार्थवादी चित्रों से आगे बढ़ते हुए बनारस और पहाड़ों के अमूर्त दृश्य रचने शुरू किए। इन चित्रों में रूपाकार का विघटन दिखाई देता है, जो भारतीय परिदृश्य का एक मानसिक और संवेदनात्मक रूपांतरण है।

के.सी.एस. पनिक्कर: उन्होंने Words and Symbols श्रृंखला में अमूर्तता को एक प्रकार के ‘नव-तांत्रिक’ दृष्टिकोण से जोड़ा। इसमें उन्होंने रहस्यमयी संकेतों, रंगमंडलों और कल्पनात्मक लिपियों का प्रयोग कर एक दृश्य-वैज्ञानिक चेतना को विकसित किया।
प्रभाकर कोलते: प्रभाकर कोलते गायतोंडे के बाद की पीढ़ी के कलाकार हैं, जिनकी कला में अमूर्तता का एक नया शहरी और भाषिक आयाम है। सर जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में उन्होंने पहले एक छात्र और फिर एक शिक्षक के रूप में अमूर्तता का विश्लेषण और प्रयोग किया। कोलते की पेंटिंग्स में बनावट (texture), सतहों के टकराव, और आकस्मिक प्रतीत होने वाले रंगों का विश्लेषणात्मक संयोजन होता है। उनका कार्य हमें शहरी दीवारों की जर्जरता, रंगों के उतरते-चढ़ते लेयर, और स्थापत्य की टूटन जैसी संरचनात्मक अमूर्तता से जोड़ता है। अलबत्ता कोलते की अमूर्तता भारतीय होने का दावा नहीं करती, पर वह पूरी तरह स्थानीय है। वे कहते हैं कि “कला को किसी ‘इंडियननेस’ से परिभाषित करने की ज़रूरत नहीं” – यह स्वयं दर्शक में जाग्रत होती है। उनके लिए अमूर्तता एक ‘बोलती दीवार’ है — जो वक्त और अनुभवों की परतों को अपने भीतर समेटे होती है।
अमूर्त कला के विकास में कला समीक्षकों और लेखकों की भूमिका :
अमूर्त कला (Abstract Art) ने जब पारंपरिक यथार्थवाद से अलग होकर अपने स्वतःनिर्मित सौंदर्यबोध को विकसित किया, तब उसकी भाषा, प्रयोजन और समाज से संबंध को समझने और स्थापित करने में कलाकारों के साथ-साथ कला समीक्षकों और लेखकों की भूमिका अत्यंत निर्णायक रही। इन आलोचकों ने न केवल अमूर्त कला की व्याख्या की, बल्कि उसकी वैधता, सौंदर्यशास्त्रीय गहराई, और सामाजिक सांस्कृतिक प्रसंग को भी गढ़ा।
जब कला में आकृतियाँ गायब होने लगीं और रंग, रेखाएँ तथा बनावट ही संदेश के वाहक बने, तब सामान्य दर्शक के लिए यह समझना कठिन था कि आखिर यह कलाकृति ‘कहती’ क्या है। ऐसे समय में कला आलोचकों और लेखकों ने अमूर्त कला की नई भाषा को परिभाषित करने का कार्य किया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह कला दृश्य यथार्थ के चित्रण से परे जाकर भाव, संवेदना और विचार की शुद्ध अभिव्यक्ति है।
उदाहरण के लिए, क्लेमेंट ग्रीनबर्ग (Clement Greenberg) जैसे आलोचकों ने अमूर्तता को ‘उच्च आधुनिकतावाद’ (‘High Modernism’) का हिस्सा बताते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह कला स्वयं अपने स्वरूप, माध्यम और संरचना पर केंद्रित होती है। ग्रीनबर्ग ने जैक्सन पोलक जैसे कलाकारों के कार्य को “शुद्ध कला” कहा – जहाँ कला केवल ‘पेंटिंग’ के माध्यम से अपनी शर्तों पर अस्तित्व में आती है।

कई बार अमूर्त कला को ‘न समझ आने वाली’ या ‘बिना उद्देश्य की’ कहकर खारिज कर दिया गया। यहां आलोचकों की जिम्मेदारी बनती है कि वे समाज के सामने यह रखें कि अमूर्त कला भी विचारों और भावनाओं का उतना ही शक्तिशाली माध्यम है जितना यथार्थवादी चित्रण। भारतीय सन्दर्भ में, गीता कपूर, प्रयाग शुक्ल, और रंजीत होस्कोटे जैसे कला लेखकों ने भारतीय अमूर्तता को केवल पश्चिमी प्रभाव नहीं, बल्कि भारतीय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना के साथ जोड़कर देखा है। रज़ा की “बिंदु” या रामकुमार की लहराती बनारस की दीवारों में उन्होंने “संवेदनात्मक अमूर्तता” (emotive abstraction) को पहचाना। इन लेखकों ने यह दर्शाया कि अमूर्त कला न केवल सौंदर्य का मामला है, बल्कि वैचारिक स्थिति भी है। यह कभी औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रतिरोध में उभरी, तो कभी पश्चिमी पूंजीवादी नीतियों की सांस्कृतिक रणनीति के रूप में प्रचारित हुई।

जॉन बर्जर (John Berger) ने अमूर्तता में छिपी विचारधारात्मक संरचनाओं को उजागर किया। तो हर्बर्ट रीड (Herbert Read) ने अमूर्तता को आधुनिक मनुष्य की संवेदनशीलता के अनुकूल बताया – जो स्पष्ट, अंतिम उत्तरों की बजाय अनुभूति, अनंत की संभावनाओं और प्रश्नों में जीता है।
इस तरह से हम कह सकते हैं कि अमूर्त कला के विकास में कला आलोचकों और लेखकों की भूमिका केवल द्रष्टा या विवेचक की नहीं, बल्कि सह-निर्माता की रही है। उन्होंने इस जटिल और गूढ़ कला को न केवल परिभाषित किया, बल्कि उसकी सौंदर्यशास्त्रीय, वैचारिक और सांस्कृतिक अर्थवत्ता को भी स्थापित किया। अमूर्तता की यात्रा बिना इन विचारशील व्याख्याकारों के संभव नहीं होती। यदि अमूर्त चित्रों ने चुप्पी में भाव रचे, तो इन आलोचकों ने उस मौन को अपने शब्द देकर मुखरित किय । यही कारण है कि अमूर्त कला आज भी गूंजती है – रंगों, रेखाओं और अर्थों के स्तर पर।