ए. रामचन्द्रन की कलाः आधुनिकतावाद को खारिज करती एक सौन्दर्य-दृष्टि

यह आम आदमी सुबोध गुप्ता के आम आदमी से एकदम भिन्न है। सुबोध का आदमी जहाँ अभिजात्य वर्ग के बीच एक गुलाम हिन्दुस्तानी की तरह अभिव्यक्त होता है वहीं रामचन्द्रन का आम आदमी अपनी गरिमा का पुनः स्थापन पाता है। एक कला समीक्षक ने सही लिखा है कि वे समकालीन कला में उपेक्षित और वंचित जनों की सुधियों के कलाकार हैं।” –विनय कुमार 

विनय कुमार

विनय कुमार बिहार प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं। लेकिन कला जगत में आपकी पहचान एक कलाकार,समीक्षक, कला प्रशासक और आयोजक वाली  है। छात्र जीवन से ही ललित कलाओं के प्रति आपकी रूचि और कला आयोजनों में सक्रियता के अनेक चश्मदीदों में एक नाम अपना भी है। ए. रामचंद्रन के निधन पर विनय कुमार ने अपने फेसबुक पोस्ट पर यह विस्तृत आलेख आज साझा किया है। उनकी अनुमति से प्रस्तुत है आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए यह लेख ….

रामचन्द्रन के चित्रों से गुजरना भारतीय वाङमय से गुजरने जैसा है। रामचन्द्रन के चित्रों को देखना भारतीयता का सिंहावलोकन करना है। रामचन्द्रन के चित्रों का अवलोकन भारतीय समाज के विकास का अवलोकन है। इस क्रम में आप भारतीय सौन्दर्य-दृष्टि से भी परिचित होते हैं यानी समय और समाज के बदलाव के साथ-साथ रामचन्द्रन की कला भी विकसित होती नजर आती है। बदलाव का यह स्पन्दन रामचन्द्रन के कैनवस, प्रिण्ट और मूर्तिशिल्पों पर महसूस किया जा सकता है।

समकालीन भारतीय कला जिस तरह से पाश्चात्य कला की पिछलग्गू रही है और जिस तरह से तथाकथित एक अत्यन्त छोटे-से, औपनिवेशिक भारत के अवशेष, आज भी मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम अंगे्रजी बोलनेवाले कला समीक्षकों, कला दीर्घा के मालिकों ने भारतीय कला के घिनौने व बकवास परिदृश्य को बतौर भारतीय कला दुनिया के सामने रखने की जो कोशिश की है। उस निरर्थक आधुनिकतावाद को खारिज करती सौन्दर्य-दृष्टि है, रामचन्द्रन की कला। रामचन्द्रन की कलात्मक परिपक्वता के तार्किक कारण हैं, रामचन्द्रन की पारिवारिक और उनकी अकादमिक पृष्ठभूमि।

केरल के एक सुदूर कस्बे अट्टिगल में 1935 में जन्मे रामचन्द्रन ने अपनी किशोरावस्था में दस वर्षो तक शास्त्रीय संगीत की औपचारिक शिक्षा ग्रहण की। कृष्णस्वामी मन्दिर के भित्तिचित्रों ने बचपन में इनके मानस पर गहरा असर किया। बाद में आपने मलयामल साहित्य में केरल विश्वविद्यालय से एम.ए. किया। उसके बाद साहित्यिक और शास्त्रीय गायन के क्षेत्र में काफी सक्रिय रहे। साथ ही तिरूवन्तपुरम आकाशवाणी के लिए गाया भी।

केरल विश्वविद्यालय के एक स्कॉलरशिप पर कला भवन शान्तिनिकेतन में नामांकन कराया और फाइन आर्ट की उनकी यह पढ़ाई 1961 में समाप्त हुई। यहाँ उन्होंने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य किया और वह था, कला भवन के लिए मातनचेरी महल के कुमारसम्भव म्यूरल की अनुकृति बनाना। साथ ही इस दौरान रामचंद्रन ने सुदूर केरल की यात्राएँ कीं तथा वहाँ के भित्तिचित्रों का सर्वे व डाक्यूमेंटेशन का काम किया। इस अध्ययन का प्रभाव आगे चलकर रामचन्द्रन की समग्र कला पर दिखता है। साहित्य और संगीत के अध्ययन ने उनके व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान की। वहीँ मलयाली साहित्य के अध्ययन ने उन्हें तार्किक बनाया।

इसके बाद कला भवन, शान्तिनिकेतन का दौर इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा कि उनकी कला दृष्टि को बनाने में नन्दलाल बोस, रामकिंकर बैज जैसे कला आचार्यो ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामकिंकर बैज की वजह से इनकी दिलचस्पी सन्थालों, आदिवासियों के प्रति बढ़ी। इन सबने मिलकर रामचन्द्रन को वह दृष्टि दी जो देशी सौन्दर्य के अवलोकन के लिए जरूरी थी। आदिवासियों में सौन्दर्य का मतलब था विशुद्ध भारतीय सौन्दर्य। रामचन्द्रन ने न सिर्फ देखा बल्कि उसकी नित नवीन व्याख्या अपने चित्रों में करते रहे। चाहे वे राजस्थान के झील हों या वहां के सुदूर गाँवों के ग्रामीण। समकालीन भारतीय कला में एक तरह से भारतीय तत्त्वों का निषेध सा दिखता है। आज के कुछ चर्चित कलाकारों की बात करें तो चाहे सुबोध गुप्ता हों या शिल्पा गुप्ता, जीतीश कलात हों या रियाज कोमू अथवा कृष्णाचारी बोस, सभी पाश्चात्य सौन्दर्यमुखी चित्रकार हैं।

रामचन्द्रन के विगत लगभग चार दशकों की कला-यात्रा पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाए तो पाएँगे कि इनकी कला में सतत विकास का एक ग्राफ स्पष्ट दिखता है। इस सतत विकास के कारण ही उनकी कला सदैव परिवर्तनगामी रही है। साठ के दशक में यानी शान्तिनिकेतन छोड़ने और जामिया मिलिया इस्लामिया में आने के बाद इन्होंने अपने को विशुद्धतावादी बनाने का यत्न किया। एनाटॉमी, गेस्चर, ह्यूमन बाडी, मैन एण्ड सीटेड फीगर, होमेज आदि चित्रों के जरिए उन्होंने एनॉटॉमी, मानव शरीर के सौष्ठव, मांसपेशियाँ पर मास्टरी हासिल की। इसके साथ उस उम्र की स्वाभाविक जिज्ञासाओं के लिए कैनवास पर लगातार प्रयोग किए। रेखाओं, रंगों, आकृतियों, स्पेस सभी के साथ। साथ ही स्त्री-पुरूष सम्बन्ध, माननीय सम्बन्ध को समझने का प्रयास भी किया। स्केवेंजर वूमन के पोट्रेट को अभिजात्यवर्ग का सुधी दर्शक शायद एप्रीशिएट नहीं कर सकता था, पर रामचन्द्रन ने किया। उन्होंने ईसा को, गाँधी को चित्रित किया। लास्ट सपर को पुनः चित्रित किया। रामचन्द्रन के इस समय के अधिकतर चित्र हिंसा के विरूद्ध थे। एनकाउण्टर, काली पूजा, मशीन, रिजरेक्शन शीर्षक चित्र कुछ ऐसे ही चित्र हैं। यह रामचन्द्रन का सामाजिक एवं राष्ट्रीय सरोकारों से उनके जुड़ाव व उनकी रचनात्मक/प्रतिक्रियाओं का प्रतिफलन था। ज्ञातव्य है कि उस दशक में भारत ने दो महत्त्वपूर्ण युद्ध भारत-चीन और भारत-पाक युद्ध झेला था। तब रामचन्द्रन की रचनात्मक अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि में यह तात्कालिक परिवेश कहीं महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा था। इस समय रामचन्द्रन ने एचिंग माध्यम से कुछ छापा चित्रण भी किये। इन कृतियों में द लवर्स, लास्ट सपर, स्केवेंजर वूमन का पोर्ट्रेट, क्रूसिफिकेशन, द क्राईस्ट महत्त्वपूर्ण हैं।

सत्तर के दशक में रामचन्द्रन की कला थोड़ी और आगे बढ़ती है। यादवों का अन्त, न्यूक्लिअर रागिनी, द चेज, ऑडिएन्स, सीलिंग जैसे समसामयिक विषयों का प्रवेश होता है। शहरी जीवन की भागमभाग, आतंक हिंसा उनके पसन्दीदा विषय रहे। पर सत्तर के दशक के अन्तिम वर्षों में एक बार फिर से परिवर्तन आने लगता है, मिथकीय विषयों, नायकों नायिकाओं का प्रवेश होता है। जो अस्सी के दशक तक आते-आते परिपक्व होता है।

गान्धारी, अभिसारिका नायिका, विरहिणी नायिका जैसे नायिका श्रृंखला के चित्र, मिनिएचर श्रृंखला, द फ्लाई, द डाइंग बहादुरशाह जफर, बास्को डी गामा, सीटेड वूमन, मदर टेरेसा जैसे चित्रों के जरिए रामचन्द्रन का क्रमिक शिफ्ट दिखता है। इनके जरिए रामचन्द्रन सत्यान्वेषी तरीकों का इस्तेमाल करके ऐतिहासिक विषयों का समकालीन बनाते हैं। पर मिथकीय चरित्रों का कैनवस पर उभरना जातीय स्मृति का रंगीन अंकन माना जाना चाहिए।

अस्सी के दशक का उत्तरार्ध रामचन्द्रन का नया प्रवेश है। आँधी, ययाति, ऊषा, मध्याह्न, सन्ध्या डांसिंग वूमन, नीयर लोटस पौंड, ऑरेंज लोटस पौंड, लोटस पौंड के जरिए रामचन्द्रन भारतीय मिथ में प्रवेश कर जाते हैं। ये चित्र काल के लिए आघात की तरह हैं। अपनी चित्रभाषा दृश्यता, स्वप्नशीलता और उत्कृष्ट व उदात्त रंग-योजना के कारण वे भारतीय कला दर्शकों को अभिभूत कर जाते हैं। साथ ही ये मिथकीय आख्यान लोक जड़ो से गहरे जुडे़ होने के कारण संवादपरक भी हैं।

नब्बे के दशक में रामचन्द्रन का सम्पूर्ण कला व्यक्तित्व निखर जाता है। अपनी खास सांगीतिक चित्र शैली को रामचन्द्रन आविष्कृत करते हैं। इस चित्र शैली में भारतीय सौन्दर्य परम्परा, भारतीयता, भारतीय विचारधारा की गूँज-अनुगूँज जादुई ढंग से सुनाई पड़ती है। रामचन्द्रन ने ययाति, उर्वशी, गान्धारी कुन्ती, कूर्मावतार, रामदेव, मानसरोवर, ऊषा, सन्ध्या सभी का पुनराविष्कार किया है। ये सभी चरित्र संवादपरक हैं।

रामचन्द्रन की समूची कला यात्रा को देखने पर हम पाते हैं कि उनकी संवेदनशीलता लगातार विस्तार पाती रही है। जिस न्यूक्लियर रागिनी शीर्षक चित्र का सृजन 1975 में हुआ उसका विस्तार हम जेनेसिस ऑफ कुरूक्षेत्र (2005) में पाते हैं। हिरोशिमा में न्यूक्लियर विस्फोट, बंगाल में नक्सलवादी हिंसा और पोखरन न्यूक्लियर विस्फोट के बाद न्यूक्लियर रागिनी का विकास हुआ था। उक्त चित्र में एक रागिनी नायिका को एक आईना दिखाया जा रहा है। जिसमें उसके खूबसूरत चेहरे के बजाय चेहरे का कंकाल ही दिख रहा है। यह चित्र आण्विक युद्ध की सच्चाई को दिखाता है और इसकी जड़ें तलाशने रामचन्द्रन कुरूक्षेत्र जा पहुँचते हैं। जिसमें वे कुन्ती और गान्धारी के जरिए, चौपड़ के जरिए महाभारत युद्ध की जड़ें तलाशने का प्रयास करते हैं।

मानसरोवर श्रृंखला (1997), कमल सरोवर श्रृंखला में कमल वाले तालाबों का अद्भुत चित्रण रामचन्द्रन ने किया है। ये दरअसल रामचन्द्रन के बचपन की स्मृतियाँ हैं जिसने उन्हें सम्मोहित कर रखा है। यहाँ केरल के उनके कस्बे अट्टिगल की स्मृतियाँ हैं। जिसका प्रसव मानसरोवर श्रृंखला में परिपक्व रूप में हुआ पाते हैं। अलबत्ता इस पर एक मिथकीय आवरण भी दिखता है। कमल सरोवर में अलग-अलग समय में अलग-अलग रूप दिखता है। यहाँ कृष्ण के बाँसुरी के साथ सरोवर में उड़ते कीटों का अद्भुत चित्रण है। तो देखा जाए कीटों के बहाने सरोवर और कमल की अद्भुत सौन्दर्यपरक व्याख्या का अन्यतम उदाहरण है यह कलाकृति।

प्रकृति से रामचन्द्रन का यह लगाव अनायास नहीं है। क्योंकि बंगाल और केरल की प्राकृतिक छटा का असर होना ही था। चाहे महुआ हो या कदम्ब, पलाश हो या कंचन उसकी पत्तियाँ, उसके फल, उनसे लगे फूल और बेल-बूटे सभी अपने बाह्य और अन्तरजगत की सुन्दरता के साथ रामचंद्रन के कैनवास पर मौजूद होते हैं। रामचन्द्रन का एक और रूप है, आदिवासी चरित्रों को मिथकीय चरित्रों में अभिव्यक्त करने वाला। राजस्थान से रामचन्द्रन का गहरा जुड़ाव रहा है। वहां की हरेक यात्रा में उन्होंने भीलों, भील कन्याओं और मजदूरों का रेखांकन किया है। ‘हन्ना और उसकी बकरियाँ‘ ऐसे चित्रों में प्रमुख हैं। हन्ना उन्हीं भील लड़कियों में एक थी जिनके लिए रामचन्द्रन स्नेह से मुक्त हो पाने की असमर्थता जताते हैं (रूपिका चावला एक निबन्ध में) ‘कूर्मावतार के साथ सविता‘ बनेश्वर मेला के मार्ग पर, नागन्धा पर पुनर्जन्म, सुखा का व्यक्ति चित्र, रत्नी का व्यक्ति चित्र, कमला का व्यक्ति चित्र, लोगर का व्यक्ति चित्र, अहल्या पीले में, युवा दुल्हन के रूप में सोल्की, जमुना/हन्ना और अमलताश, एक नयनी, सुन्दरी का व्यक्ति चित्र कुछ ऐसे ही प्रमुख चित्र हैं।

भीलों और सन्थालों के चित्रण के साथ रामचन्द्रन के चित्रों में आम आदमी स्थापित होता है। भीलों की ओर ध्यान आकृष्ट करने में रामचन्द्रन के चित्रों की भूमिका अहम रही है। यह आम आदमी सुबोध गुप्ता के आम आदमी से एकदम भिन्न है। सुबोध का आदमी जहाँ अभिजात्य वर्ग के बीच एक गुलाम हिन्दुस्तानी की तरह अभिव्यक्त होता है वहीं रामचन्द्रन का आम आदमी अपनी गरिमा का पुनः स्थापन पाता है। एक कला समीक्षक ने सही लिखा है कि वे समकालीन कला में उपेक्षित और वंचित जनों की सुधियों के कलाकार हैं।

रामचन्द्रन के अधिकतर चित्र तैल माध्यम से सृजित हैं। इसके साथ इन्होंने जलरंग और मूर्तिशिल्प में भी कार्य किया है। जल रंगों में भी रामचन्द्रन का सौन्दर्य-बोध पूरी क्षमता के साथ अभिव्यक्त होता है। गीत गोविन्द पर आधारित मानसरोवर श्रृंखला (1997), अज्ञात की मिथकीय यात्रा (1996), इन्कारनेशन श्रृंखला (1995), कदम्ब का पेड़ और नन्दी साँड़ (1995), नागलिंग का पेड़ (1995), बाकर्स एट लिलि पौंड (1995), नागदा में मत्स्य अवतार (1996), मत्स्य अवतार (1996), बनेश्वर मेला से सम्बन्धित चित्र (1998), रामदेव (1998), तूतीनामा श्रृंखला (1999), कमल का चुनना (2002) से लेकर ध्यान चित्र श्रृंखला (2007) तक रामचन्द्रन के जलरंगों का विस्तार है।

चित्रकार रामचन्द्रन की रचनात्मकता का विस्तार विगत वर्षो में मूर्तिशिल्प और इन्स्टॉलेशन में भी हुआ है। गर्ल विद वाटर लिलिज, इन ट्रान्स, दल गर्ल विद प्लांट एण्ड इन्सेक्ट्स, ब्राइड ट्वायलेट (2004), जेनेसिस ऑफ कुरूक्षेत्र (2005), बहुरूपी (2006) इनके महत्त्वपूर्ण मूर्तिशिल्प हैं। जेनेसिस आफ कुरूक्षेत्र के बहाने महाभारत के उत्स ढूंढने का प्रयास करते हैं रामचन्द्रन, तो बहुरूपी तक आते-आते रामचन्द्रन की सम्पूर्ण कला दृष्टि एक उच्चतम शिखर तक पहुँच जाती है यानी ध्यानस्थ रामचन्द्रन, बकरी में तो कभी स्त्री के पैरों के नीचे, कभी आईना दिखाते तो कभी मुखलिंग के रूप में रामचन्द्रन सभी जगह मौजूद होते हैं, एक समवेत् दृष्टि के साथ।

वर्तमान समकालीन कला में पश्चिम से आक्रांत भारतीय कलाकारों के मध्य रामचन्द्रन हमेशा ऐसे प्रकाश स्तम्भ की तरह रहेंगे जो अपने सृजन में कलात्मक व प्रगतिशील मानवीय मूल्यों के कारण सबसे अलग हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *