भागलपुर से प्राप्त प्रतिमा और लकुलीश

पिछले दिनों सोशल मीडिया के हवाले से पता चला कि वर्तमान भागलपुर के शाहकुंड प्रखंड में एक मंदिर के पास की खुदाई से एक प्रतिमा सामने आयी है । इससे संबंधित जानकारी पहले पहल स्थानीय इतिहासकार शिव शंकर पारिजात जी के पोस्ट से मिली । बाद में इतिहास के प्राध्यापक दिनेश कुमार गुप्ता जी के पोस्ट से जो विवरण मिला वह उनके ही शब्दों में –

“भागलपुर जिला के शाहकुंड प्रखंड के समीप यह प्रतिमा नाले की खुदाई में कल प्राप्त हुई है। मेरे ख्याल से यह प्रतिमा लकुलीश की हो सकती है। हिन्दू धर्म में शिव के 24वें अवतार के रूप में लकुलीश को माना गया है। कहा जाता है कि लकुलीश ने पाशुपत शैव धर्म की स्थापना की थी। कालान्तर में ‘लकुलीश सम्प्रदाय’ अपनी लोकप्रियता के साथ-साथ योगीश्वर शिव के स्वरूप के साथ मिल गया।

ऐसी संभावना है कि लकुलीश की मूर्तियों का अंकन एवं पूजन सातवीं शताब्दी से प्रारम्भ हो गया था। यद्यपि गर्भगृह का प्रमुख पूजा प्रतीक शिव लिंग ही तथापि लकुलीश शैव मन्दिरों में प्रमुख देव के रुप में माने जाने लगे थे।

लकुलीश की प्रतिमा के संबंध में यह मान्यता है कि यह चार भुजाओं, श्रीवत्स लांछन, जटामुकुट तथा पद्मासन मुद्रा में बैठे हुए उत्कीर्ण किए जाते थे। ग्याहरवीं शताब्दी तक आते आते लकुलीश की प्रतिमा को एक आकार मिल गया। इसका एक विधान निश्चित रुप में स्वीकार किया गया। लकुलीश की प्रतिमा तपस्वी के रुप में उत्कीर्ण की जाने लगी जो गौतम बुद्ध तथा तीर्थंकर जैन की मूर्तियों से समानता धारण किये रहती थी। कालान्तर में लकुलीश जटामुकुट युक्त अंकित होने लगे थे। बिहार के भागलपुर के शाहकुंड प्रखंड से मिली यह प्रतिमा बहुत ही महत्वपूर्ण है।”

बहरहाल मूलतः आधुनिक व समकालीन कला से जुड़े रहने के बावजूद विगत कुछ वर्षों से प्राचीन कला इतिहास से अपना कुछ खास जुड़ाव सा बनता चला गया है। तो ऐसे में कुछ चंद पुस्तकों के हवाले से जो कुछ जानकारी अपने पास है उसके आधार पर मेरा भी यही मानना है कि यह प्रतिमा लकुलीश की ही है । लेकिन इसी क्रम में ख्यात पुराविद अरविन्द महाजन जी की यह राय भी सामने आयी कि-

Image does not follow the iconographical traits of Lakulisha. Only on the basis erected Linga, you can’t say it Lakulisha. The period to which this image belongs, do the cult of Pashupati or Lakulisha was in vogue?

इसी प्रतिमा से जुड़े एक प्रश्न के लिए उनका उत्तर कुछ यह है –

This can’t be pala because material appears to be sandstone. The fold of garment which is hanging down between legs is very similar to that in Didar ganj yakshi image. High pedestal of the image also is like the Didar ganj yakshi. Body contour is also early. So until and unless I see the image it is difficult to take a call.

अब ऐसे में अरविन्द महाजन जी के इस बयान के बाद अपने लिए कुछ और भी कहना संभव नहीं जान पड़ता है । क्योंकि महाजन जी एक ऐसे गंभीर अध्येता के तौर पर जाने जाते हैं, जिन्हें अगर प्राचीन मूर्तिकला का इनसाइक्लोपीडिया कहा जाय तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। अतः ऐसे में यह निर्णय की यह प्रतिमा लकुलीश की है या किसी और का इसका फैसला तो अब विशेषज्ञों की राय पर ही छोड़ता हूँ । किन्तु कुछ पुस्तकों के आधार पर लकुलीश और उनके पाशुपत सम्प्रदाय के बारे में जो जानकारी मिलती है वह कुछ यह है ।

डॉ.नील पुरषोत्तम जोशी की पुस्तक ‘प्राचीन भारतीय मूर्तिविज्ञान’  में लकुलीश का विवरण कुछ इस प्रकार है-

ईस्वी -सन की पहली शताब्दी तक लकुलीश नामक आचार्य ने पश्चिमी भारत के कायावरोहण-तीर्थ में पाशुपत मत की स्थापना की थी । इसकी मान्यता इतनी बढ़ी कि लकुलीश शिव का प्रतीक हो गया । लकुलीश प्रतिमा का मुख्य लक्षण ऊधर्वलिंग होना तथा डंडा लिए रहना है। अब तक कि ज्ञात प्रतिमाओं में राजस्थान के नांदगांव के शिवलिंग पर अंकित लकुलीश को प्राचीनतम मानना होगा ।यहाँ उष्णीय धारी शिव को आसान पर दोनों पैर रखे बैठा दिखलाया गया है।

लकुलीश की एक गुप्तकालीन मूर्ती मथुरा संग्रहालय में है । यहाँ वे द्विभुज हैं, बायीं केहुनी पर दंड संभाला गया है और दोनों हाथ व्याख्यान मुद्रा में है । घुटनों पर योगपट्ट भी दिखलाई पड़ता है ।इसी काल में खड़े लकुलीश के भी दर्शन होते हैं ।मथुरा संग्रहालय में चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय का एक अभिलिखित स्तम्भ है जिसपर नग्न और मुक्तकेश दंडधारी लकुलीश दिखलाई पड़ते हैं ।अहिछत्रा के मृतफलकों में भी डॉ. अग्रवाल ने लकुलीश को पहचानने का यत्न किया है, किन्तु वह सन्देहातीत नहीं है ।

दंड और ऊधर्वलिंग लकुलीश के चिन्ह माने जाते हैं, किन्तु प्रारंभिक काल की जिन मूर्तियों का अभी हम उल्लेख कर आये हैं, उनमें समान रूप से दोनों चिन्ह नहीं मिलते । ‘लकुलीश’ (या लगुडीश= लगुडेश) नाम से शिव के इस ध्यान में दंड का होना अपरिहार्य लगता है । नांद-मूर्ति में दंड के विषय में कुछ नहीं कह सकते, गुप्तकालीन माधुरी मूर्तियों में दंड तो है, पर एक में ऊधर्वलिंग नहीं है । लगता है कि ढलते गुप्त काल में ये दोनों चिन्ह एक साथ आ गए ।यह भी संभव है कि लकुलीश का लगुड गांधार शिव की गदा का परिवर्द्धित रूप हो।

बात अब पाशुपत सम्प्रदाय की करें तो पाशुपतों के लिए शिव के साथ साथ लकुलीश भी आराधना व पूजा के हकदार हैं। हालांकि महाभारत में इस मत के संस्थापक का कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता है, किन्तु इसके बाद के पुराणों व ग्रंथों में आई चर्चा के आधार पर समझा जाता है कि लकुलीश या लकुलिन ने लोगों को पाशुपत योग सिखलाया था। इस लकुलीश को जहां भगवान शिव का अवतार माना गया है वहीं इसे कृष्ण का समकालीन माना गया है। सर्वदर्शन संग्रह नामक ग्रंथ में लकुलिन को पाशुपत संप्रदाय का प्रवर्तक माना गया है। जिसकी पुष्टि 971 वीं सदी के नागराज मंदिर के शिलालेख व अन्य शिलालेखों से होती है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा वृतांत में पाशुपत संप्रदाय का उल्लेख मिलता है, जिसका काल सातवीं सदी माना जाता है। इस विवरण के अनुसार इन मतावलंबियों की मुख्य पहचान यह समझी जाती थी कि वे शरीर पर भस्म मले रहते थे। कतिपय इसी पहचान के आधार पर ह्वेनसांग ने इनका नाम भस्मधारी रख दिया था। ये पाशुपत अपने सिर पर शिवलिंग भी धारण करते थे। बाणभट्ट की कादंबरी में भी पाशुपत साधकों का जिक्र आया है। यहां एक स्थान पर वर्णन आता है कि अमात्य शुक्रनास से कुछ शैव मिलने आए थे जिन्होंने रक्तवस्त्र धारण कर रखा था।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ये रक्तांबर वस्त्रधारी पाशुपत संप्रदाय की ही एक शाखा के अनुयायी थे। सर्वदर्शन संग्रह नामक ग्रन्थ में पाशुपतों को शैव मत के प्रमुख संप्रदाय में एक माना गया है। इस संबंध में डा. धर्मानंद कौशंबी का कथन कुछ यह है- एक ओर वाममार्ग में प्रविष्ट तरुण भिक्षु और दूसरी ओर जटिल तपस्वी, इन दोनों ने पाशुपतों का पंथ चलाया और शकों के राज्यकाल में यह बराबर फैलता गया। इस पंथ ने अपना एक भिन्न पाशुपत दर्शन बनाया। उनके आचारों में से कुछ थे, जिनकी क्रिया थी- जटा धारण करना, शरीर पर तीन बार भस्म लगाना, नग्न रहना अथवा चर्म-खण्ड धारण करना तथा लिंग पूजा करना। इसमें संदेह नहीं कि इसी पंथ के कारण लिंग पूजन को महत्ता प्राप्त हुई।

अभी तक जो सर्वसुलभ जानकारी अपने पास है या कहें कि चन्द पुस्तकों में जो कुछ वर्णित है, उसके आधार पर अभी तो इतना ही कहा जा सकता है कि यह प्रतिमा नवीन शोध की संभावनाओं को जन्म दे रहा है। क्योंकि उत्तर भारत खासकर बिहार में लकुलीश और पाशुपत सम्प्रदाय से संबंधित कोई विशेष चर्चा इससे पहले शायद ही हुयी हो । कुछ मित्रों की राय यह भी आयी है कि यह शायद यक्ष प्रतिमा हो, किन्तु प्रतिमा शास्त्र में उपलब्ध विवरण इसके यक्ष प्रतिमा होने कि किसी भी सम्भावना को लगभग नकारते ही प्रतीत होते हैं।

डा. नील पुरुषोत्तम जोशी कुछ इन शब्दों में यक्षों का वर्णन करते हैं – प्राचीन साहित्य में यक्षों की गणना भूत, किन्नर, राक्षस, गन्धर्व, नाग, दानव, किंम्पुरुष आदि अमानुषिक वर्ग में की गई है। वेद, ब्राह्मण, उपनिषद, सूत्र, पुराण-साहित्य, जातकादि पालि-ग्रंथ तथा जैनों के आर्षग्रन्थों में एवं संस्कृत के कथा साहित्य में यक्षों के प्रचुर उल्लेख मिलते हैं। आज यद्यपि यक्ष-पूजन अपने प्राचीन रूप में लुप्त हो चुका है, तथापि विभिन्न प्रकार के लोक-धर्मों के रूप में यह आज भी आसेतुहिमाचल (समुद्र से लेकर हिमाचल तक) मान्य है। महाराष्ट्र की जारवमाता, वीरेदेव, मानविणी मुंज्या, वेताल तथा उत्तर प्रदेश के वीर, ब्रह्म आदि लोकदेवता प्राचीन यक्षों के नवीन संस्करण हैं। यक्षों की उत्पत्ति के विषय में मतभिन्नता है। रामायण के अनुसार प्रजापति ने जल का संरक्षण करने के लिए खास प्रकार के जनों का सृजन किया और ‘रक्षध्वम’ का आदेश दिया। उनमें से कुछ ने कहा ‘रक्षाम:’ और कुछ बोल उठे ‘यक्षाम:’। पहले वाला वर्ग राक्षस कहलाया और दूसरा वर्ग यक्ष नाम से प्रसिद्ध हुआ। पहले से ही यक्षों के दो रूपों की कल्पना की गई है। एक तो लोकमंगलकारी अद्भुत सामर्थ्य वाले नयनमनोहर रूप की कल्पना है, पर दूसरे में यक्ष बड़ी बड़ी आंखोंवाले, विवृतमुख, बड़े पैरों एवं भयंकर देहवाले माने गए हैं। प्रथम अर्थ में अग्नि, इन्द्र, कृष्ण, बलराम,स्कन्द आदि सभी को यक्ष नाम से पुकारा गया है। यक्षों की ही भांति यक्षिणियां भी अतीव सामर्थ्य वाली, मायाओं से पटु तथा सुन्दर रूपवाली मानी गई हैं। इसीलिए लक्ष्मी, एकानंशा जैसी देवियां अथवा ताड़का जैसी मायाविनी स्त्रियां यक्षिणी कही गई है। विकृत रूपवाले यक्षों को हास्य का भी आलम्बन माना गया है। यक्षों के मन्दिर या ‘थानों’ को यक्षायतन या यक्षस्थान कहते हैं। लोकदेवता के रूप में यक्ष ब्रााह्मण, बौद्ध और जैन – तीनों धर्मों में सहजरूप से प्रवेश पा गए थे, पर महाविलयन पद्धति के अनुसार उन्हें सदा उपदेवता का स्थान मिलता रहा।

संलग्न सभी चित्र दिनेश कुमार गुप्ता जी के फेसबुक वाल से साभार I

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *