बौद्ध परंपरा में “कार्तिक अमावस्या” का उल्लेख प्रत्यक्ष रूप से वैदिक अर्थों में नहीं मिलता, किंतु इस समय से जुड़ी प्रकाश और ज्ञान की अवधारणा अत्यंत गहरी है। यह अवधि बौद्ध पंचांग में कत्तिका मास के रूप में जानी जाती है, जब बुद्ध के अनुयायी “वस्सावास” यानी वर्षा-वास के पश्चात अपने मठों में दीपदान का पर्व मनाते हैं। यह पर्व अंधकार पर ज्ञान के प्रकाश की विजय का प्रतीक है।
थेरवाद परंपरा में म्यांमार, थाईलैंड और श्रीलंका में इसी काल को थडिंजुत्सव के रूप में मनाया जाता है। यह बुद्ध के त्रायस्त्रिंश स्वर्ग से पृथ्वी पर अवतरण की स्मृति का पर्व है, जब देवताओं और मनुष्यों ने मार्ग को दीपों से आलोकित किया था। इसीलिए बौद्ध मान्यताओं में इस अमावस्या या उसके आसपास दीपदान का विधान है I

पाली ग्रंथ दीप सुत्त , अंगुत्तर निकाय 4.44 में बुद्ध का प्रसिद्ध कथन मिलता है —“अत्तदीपा विहरथ, अत्तसरणा” अर्थात “अपने दीप स्वयं बनो, स्वयं में शरण लो।” किन्तु यह उपदेश बाह्य दीपों से कहीं अधिक आंतरिक प्रकाश यानी आत्मज्ञान का प्रतीक है। अलबत्ता इस काल में दीप जलाना केवल अनुष्ठान नहीं, बल्कि अपने भीतर के अंधकार को मिटाने का साधन है।
पुरातात्त्विक रूप से भी बोधगया, सांची, नालंदा और अमरावती जैसे स्थलों पर दीपाधार और दीपदान के अवशेष मिले हैं, जो इस परंपरा की ऐतिहासिक पुष्टि करते हैं। महावंस, अध्याय 31 में उल्लेख है कि श्रीलंका के राजा देवानामपिया तिस्स ने कार्तिक मास में बुद्ध विहारों में दीपदान करवाया था।

अतः बौद्ध दृष्टि में कार्तिक अमावस्या केवल अंधकार की रात्रि नहीं, बल्कि धम्म के प्रकाश की अनुभूति का समय है। यह दीपों के माध्यम से नहीं, ज्ञान के आलोक से संसार को प्रकाशित करने का संदेश देती है — “बुद्ध दीपं, धम्म दीपं, संघ दीपं।”
यदि संक्षेप में कहें तो बौद्ध मान्यताओं में दीपों-जलाने का चलन शायद रहा होगा — किन्तु यह स्तूप प्रांगण, मठ विहार आदि में भक्त-श्रद्धालुओं द्वारा किया गया हो सकता है — लेकिन आज जिस तरह का “दीपोोत्सव” हिन्दू-परंपरा में मनाया जाता है, उसका किसी तरह का ऐतिहासिक-पुरातात्विक प्रमाण बौद्ध विशिष्ट परंपराओं में प्रमुखता से उपलब्ध नहीं है।
पाली त्रिपिटक और प्रारंभिक बौद्ध ग्रंथ के विनय पिटक में “दीपदान” (lamp-offering) का उल्लेख मठों में अंधकार हटाने के उपाय के रूप में हुआ है। “Bhikkhūnaṃ vihāresu padīpe jāletvā rattiṃ dhammassavanaṃ hoti.” — Vinaya Pitaka, Cullavagga V. 33, अर्थात् “भिक्षु अपने विहारों में दीपक जलाकर रात्रि में धर्म-श्रवण करते हैं।” यहाँ स्पष्ट है कि दीप न केवल प्रतीकात्मक बल्कि व्यावहारिक-आवश्यकता से भी मठ-जीवन का अंग था।
वहीँ अंगुत्तर निकाय (AN IV. 44, Dīpa Sutta) में बुद्ध कहते हैं: “Attadīpā viharatha attasaraṇā…”
अर्थात् — “स्वयं अपने दीप बनो, अपने में शरण लो।” यहाँ “दीप” आंतरिक ज्ञान-प्रकाश का प्रतीक है, जो आगे चलकर बाह्य दीपदान-संस्कार में रूपांतरित हुआ। महायान सूत्रों में दीप-प्रदान का प्रत्यक्ष उल्लेख इस तरह से मिलता है, सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र (लोटस सूत्र, अध्याय 23) में “दीप-दान” को बुद्ध-पूजन का श्रेष्ठ कर्म कहा गया है।
“यः स तेलदीपं बुद्धाय प्रदत्तवान्, स अपरिमित पुण्यं लभते।”अर्थात् — “जो बुद्ध के प्रति तेल-दीप अर्पित करता है, वह अनंत पुण्य अर्जित करता है।” वहीँ ललितविस्तर (Lalitavistara Sutra, अध्याय 19) में बुद्ध-जन्मोत्सव के प्रसंग में “हजारों दीपों का प्रज्वलन” वर्णित है, जिससे “ज्ञान-प्रकाश” की प्रतीकात्मकता स्पष्ट होती है। अवतंसक सूत्र (Avataṃsaka Sutra, “Ten Offerings” section) में “दीप” को दान-दशा में गिना गया है —“Dīpadānam avidyāndhakāranāśanam ucyate.” अर्थात् — “दीपदान अज्ञान-अंधकार के नाश का साधन है।”

ऐसे में पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक संदर्भ पर नज़र डालें तो सांची, अमरावती, नालंदा, और बोधगया के पुरातात्त्विक उत्खननों में पत्थर या धातु के दीप-पात्र मिले हैं — जिन पर धम्मदीपा या Buddhassa dīpaṃ pūjāmi जैसे ब्राह्मी अभिलेख अंकित हैं। बोधगया महाबोधि मंदिर के परिसर में 1st CE–7th CE काल के दीपाधार (लैंप स्टैंड्स) अब भी पाए जाते हैं। नालंदा महाविहार की खुदाइयों में भी दीवार-कोटरों में “दीप-स्थापन” के लिए विशेष खोखले हिस्से मिले हैं, जिनका वर्णन Marshall, John. (1918) Archaeological Survey Reports of India में हुआ है।
Source: Chatgpt
