वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार श्रीवास्तव यूं तो विज्ञानं व तकनीक में विशेषज्ञता रखते हैं। राष्ट्रीय सहारा अख़बार में वर्षों तक फीचर का ज़िम्मा संभाला है, इसके अलावा अन्य प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थानों से भी जुड़े रहे हैं। रहते तो दशकों से दिल्ली एनसीआर में, लेकिन अपनी जन्मभूमि से भी लगाव-जुड़ाव बनाये रखते हैं। ऐसे में अपनी जन्मभूमि के इस ऐतिहासिक धरोहर के नष्ट होने का मलाल उन्हें गहरे सालता है। प्रस्तुत है धरमसिंहवा के स्तूप की वर्तमान दुर्दशा और उसके प्रति बरती गयी सरकारी उपेक्षा को उजागर करता उनका यह आलेख-
आखिर अति जर्जर हो चुका धम्मसंघ धड़ाम हो गया। २,500 बरस पुराने इस स्तूप का पतन ऐसा हुआ कि ठीक ठाक खंडहर भी नहीं बचा। संतकबीर नगर का धर्मसिंहवा बाज़ार तो बदस्तूर बचा रहेगा, मगर जिसकी वजह से इसका यह नाम है अब उसका कोई नामो निशान नहीं होगा। लोग बस किताबों में पढेंगे कि इसका यह नाम कैसे पड़ा। लेकिन उस धम्मसंघ स्तूप को कभी नहीं निहार पायेंगे जिस ने इस को यह पहचान दी। जो भारतीय इतिहास का एक अमूल्य धरोहर था। जिसकी मृण्मय मूर्तियों ने पुरातत्त्व और कला की किताब में एक नया अध्याय लिखा था। स्थानीय निवासी बेचन हेल्ला कहते हैं, “धरम सिंहवा का बाप मर गया. आखिर जिस के नाम से यह पैदा हुआ वह अब कहां रहा।”
तिल तिल कर मरा २,500 साल का यह इतिहास जल्द ही पूरी तरह मिट्टी में मिल जायेगा और फिर इस सुचिक्कण जमीन पर नयी इमारतों की कोई नई इबारत लिखी जायेगी। संभव है पर्यावरण व संस्कृति मंत्रालय, सरकार से मिले पैसे और विधायक निधि से इस जगह पर इस स्तूप की कोई संग ए मजार लगवा दी जाये, शिलापट्ट लगवा दिया जाये जो हमारी नाकामी का बयान भविष्य में करता रहे। यह बताता रहे कि विश्वगुरु अपने इतिहास, पुरातत्व और कला के प्रति कितना संवेदनशील है।
सरकारी अधिकारियों ने उसका जायजा लिया था, गंभीरता समझ तत्काल कुछ करने का आश्वासन भी दिया था। समय बीत गया। किसी ने कोई सुध नहीं ली। आखिर उसको बचाने के लिये स्थानीय लोग पैसा जुटाने लगे, विधायक ने अपनी निधि का चौथाई देने का दावा किया और मुख्यमंत्री से भी गुहार लगाने की दौड़ा-भागी में कसर नहीं छोड़ी। विरासत, इतिहास, गौरव, वगैरह की दुहाई दिया। उस के खड़े हो जाने से रोजगार कमाई और दूसरे फायदे भी गिनाए। मगर कुछ नहीं हुआ। वह नहीं बचा। अब इमदादी पैसे मिल भी जायें उसे ठीक नहीं किया जा सकता। पुनर्जीवित करने की उम्मीद खत्म है। वह मर गया। अब बस उसका पुतला, प्रतिकृति ही बनाई जा सकती है। पर इस से भी क्या होगा।
धर्मसिंहवा महज बौद्ध धर्म के लिये या फिर पुराने होने के नाते इतिहास के विद्यार्थियों अथवा पुरातवविदों के लिये महत्वपूर्ण हो ऐसा नहीं है, इसका कला के क्षेत्र में भी बहुत महत्व है। यहां से मिली मूर्तियां मिट्टी की हैं और वे कुम्हारों द्वारा हाथों से, चुटकी द्वारा, बिना सांचों के बनी हैं और सांचे वाली भी हैं। ये मिट्टी की मूर्तियां बताती हैं यहां मौर्य काल, शुंग काल और कुषाण काल की भी मूर्तियां मौजूद हैं। एक शोधार्थी शमशेर अहमद खान ने लिखा है,“ धम्म संघ से प्राप्त मिट्टी की मूर्तियां पांच पर प्रकार की हैं। पहली मूर्ति निगमेश की है, जो हाथ से ढालकर बनायी गयी है। यह मौर्यकाल या उससे भी पूर्व की प्रतीत होती है, क्योंकि इसमें अनगढ़पना है तथा सिंधुकालीन मूर्ति की शैली-सी प्रतीत होती है। दूसरी मूर्ति पशु मृण्मूर्ति है, जो स्वान की प्रतीत होती है। यह भी हाथ से ढालकर बनायी गयी है। तीसरी मूर्ति किंचित सूकर की है।”
वे आगे बताते हैं, “चौथी मूर्ति स्त्री की है, जिसका केवल मध्य भाग ही सुरक्षित है। उभरे हुए वक्षस्थल पर मोतियों की माला पिरोई हुई प्रतीत होती है तथा कटि प्रदेश में मेखला बनी हुई है। पांचवी मूर्ति किसी पुरुष की है, जिसके की मस्तक पर पट्टी बंधी है। आंखें व भौहें स्पष्ट दिखायी देती हैं। यह सांचे में ढली मूर्ति है। ललाट चौड़ा तथा कान लंबे हैं। कान के पर्णों में सूराख हैं, संभवतः उस समय इस तरह आभूषण पहनने की परंपरा हो। इस मूर्ति की विशेषता यह है कि इसके गले को मुख्य मूर्ति के ढांचे में फिट किया जा सकता है। इससे प्रमाणित होता है कि यह मूर्ति कुषाणकालीन है, क्योंकि इस काल में मूर्तियों के ब्लाक बना कर परस्पर जोड़ने की परंपरा रही है।” मिट्टी की मूर्तियों का काल निर्धारण बहुत से ऐतिहासिक पुरातात्विक रहस्य खोल सकता है। यहां ऐसी अनेक मूर्तियां और भी मिल सकती हैं।
उपेक्षित सा धर्मसिंहवा दो चार दिन से अचानक सुर्खियों का सबब बना रहा। देश के बड़े अखबारों के स्थानीय संस्करणों में सितंबर के आखीर में खबर आई थी कि चार दिन की लगातार बरसात में धर्मसिंहवा का स्तूप ढह गया। तब गोरखपूर के एक सूत्र ने बताया था कि एक हिस्सा ढहा है। लेकिन हालिया फोटो बताते हैं कि अब एक बहुत छोटा सा ही हिस्सा बचा है। इतना छोटा हिस्सा जिस से स्तूप के पुराने आकार की कल्पना नहीं की जा सकती। हमारे देश में स्मारिका के तौर पर नहीं बल्कि माले गनीमत वाली शैली में लावारिस समझ कर ऐतिहासिक स्थलों की ईंटे उठा लेने का चलन है। अब 16 फीट के स्मारक का महज डेढ फीट का इतना हिस्सा बचा है कि है कि अगर कुछ स्थानीय लोग ईंटे उठा उठा कर ले गये तो यहां महज एक छोटा सा मैदान ही बचेगा।
सन 1953 में छपी एक पत्रिका में इस जगह और इसके महत्व का जिक्र मैंने पहली बार पढा था। इस पत्रिका को मैंने राजस्थान के शेखावटी से एक कबाड़ी से खरीदा था और उस कबाड़ी ने वहीं के आज़ाद पुस्तकालय से। दूसरी बार 2003 में प्रकाशित नवनीत मासिक में मूर्तिशिल्प संबंधी एक आलेख को पढते हुये इसका संदर्भ मिला जिसमें धर्मसिंहवा की महत्ता इस क्षेत्र में भी रेखांकित की गई थी। इतिहास, पुरातत्व, कला की अभिरुचि तो खैर अलग बात, मैं संत कबीर नगर का रहने वाला हूं तो यहां के बारे में मेरी रुचि स्वाभाविक है। लेकिन मुझे लगता है कि देश के हर उस व्यक्ति को इससे सरोकार होना चाहिये जो अपने इतिहास, पुरातत्व, कला से ज़रा भी लगाव महसूसता हो।
धर्मसिंहवा सिद्धार्थ नगर और संतकबीर नगर की सीमा पर छोटा सा कस्बा है। 6-7 हजार की आबादी वाला। बौद्ध काल में यह धम्म संघ नाम से पुकारा जाता था। उस से पहले यह मेतुलप्प था। जिसे आजकल मेंहदावल कहते हैं और जो यहां से सटा हुआ है। शाक्य काल में इस जगह की अलग ही रौनक थी। यह बौद्ध कालीन नगर खासा संपन्न था। यह कपिलवस्तु जो सिद्धार्थ के पिता की राजधानी थी उस से बहुत नजदीक और शाक्य गणराज्य के महत्वपूर्ण नगरों में से एक था। कुछ इतिहासकारों ने यह साबित करने की कोशिश की कि ढाई हजार वर्ष पूर्व यह कस्बा सभी सुख-सुविधाओं से भरपूर व्यापारिक गतिविधियों वाला नगर था, आध्यात्मिक एवं कला का प्रमुख केंद्र तो था ही संभवत: यहां छावनी भी थी। वैशाली तथा श्रावस्ती के मध्य यह बौद्ध भिक्षुओं की सक्रियता वाला क्षेत्र था। सभ्यता एवं संस्कृति से समृद्ध यह नगर तब हर क्षेत्र में आगे था। पर ये सब उत्तर प्रदेश सरकार का ध्यान आकर्षित करने में विफल रहे।
आज की राप्ती जो तब अचिरावती थी पास से बहती थी। कालांतर में यह उत्तर की और मुड़ गई। इसका गवाह यहां का छिबरा का रैना पोखरा ही रह गया है। बुद्धत्व की खोज में गौतम बुद्ध कपिलवस्तु से सारनाथ जाने के क्रम में यहां एक रात रुके, विश्राम किया। यहां के पोखरे में स्नान किया और फिर आगे गये। उनकी स्मृति में यहां स्तूप बना। स्थान का नाम ही धम्म संघ रख दिया गया। फिर यह नगर खूब विकसित हुआ। बुद्ध की विश्राम स्थली पर ढेरों बौद्ध आते थे. यह तीर्थ भी था।
बौद्ध धर्म का जोर कम हुआ तो यह धर्मसिंहवा नाम से पुकारा जाने लगा। यहां एक धर्म चक्र हुआ करता था जो एक लाट या स्तंभ पर बना था, फिलहाल लखनऊ के संग्रहालय में है। धर्मसिंहवा में इधर दो चार दशकों में बौद्ध कालीन संस्कृति के बहुत से प्रामाणिक प्रमाण मिले हैं। इन को देखकर अनुमान लगाया गया कि यहां प्रचुर मात्रा में बौद्धकालीन इतिहास दबा हुआ है। बनारस हिंदू विश्व विद्यालय के पुरातत्व विभाग के शोधार्थी बहुत पहले बता चुके हैं कि इस के उत्खनन, अध्ययन की महती आवश्यकता है, पर किसे पड़ी है। अब जब स्तूप का भी नामोनिशा मिट जायेगा और इस पर यहाँ आसपास के भू माफिया ने कब्जा जमा लिया तो खुदाई की सभी संभावना समाप्त हो जायेंगी।
मेंहदावल के विधायक ने राकेश सिंह बघेल ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को चिट्ठी लिखी, बौद्ध स्तूप के पुनरुद्धार के लिए धन मांगा। उन्होंने कहा कि बौद्ध स्तूप बौद्ध परंपरा की विरासत है, मरम्मत से बौद्ध सर्किट में पर्यटन लाभ होगा, बौद्ध भिक्षु आयेंगे, क्षेत्र पर्यटन का हब बनेगा तो रोजगार और कमाई बढेगी। लेकिन किस्सा कोताह यह कि हुआ कुछ नहीं रखरखाव के अभाव में 2500 साल पुराना बौद्ध स्तूप नहीं रहा और व्यवस्थागत अकर्मण्यता के चलते सपने भी मर गये।
Excellent essay. Full of information.