जोनी एम. एल. हमारे समय के एक ऐसे कला समीक्षक/ कला इतिहासकार हैं जिनकी सजग दृष्टि कला जगत की तमाम गतिविधियों पर केन्द्रित रहती है I इतना ही नहीं समकालीन कला में आ रहे बदलावों और भटकावों पर उनकी धारदार टिप्पणी भी अक्सर सामने आती रहती है I यहाँ प्रस्तुत है उनके फेसबुक पोस्ट की हालिया टिप्पणी का हिंदी अनुवाद आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए I- संपादक
— जोनी एम. एल.
भारत के ललित कला महाविद्यालयों की वार्षिक प्रदर्शनियों पर एक सरसरी निगाह डालें, तो साफ़ दिखाई देता है कि उभरते कलाकारों में नई सामग्री के प्रति जुनून, पुरानी वस्तुओं की पुनर्रचना, पारंपरिक तकनीकों पर अति-निर्भरता और इन सबका एक उलझा हुआ समाहार देखने को मिलता है। कुछ कलाकृतियाँ छत से झूलती हैं, जैसे वे केवल छाया बनाने के लिए बनी हों, कुछ ठोस मूर्तियाँ मंच पर सजी हुई हैं। दीवारों पर टँगीं पेंटिंग्स भी कलाकारों की उस व्यग्रता को दर्शाती हैं, जिसमें वे कुछ ‘अलग’ दिखने की ज़द्दोज़हद में हैं।
कला के विद्यार्थी आमतौर पर तीसरे वर्ष तक आते-आते पुराने को त्यागकर नए की ओर मुड़ जाते हैं। अंतिम वर्ष में वे अपने इस अलगाव को एक ‘उपलब्धि’ की तरह प्रस्तुत करते हैं, और स्नातकोत्तर स्तर तक आते-आते तो यह लगभग अनिवार्य हो जाता है कि वे नए और अनसुने माध्यमों की खोज करें। यह प्रवृत्ति केवल स्थानीय नहीं, बल्कि वैश्विक दृश्य-संवेदनाओं की ही एक धारा का हिस्सा है—जहाँ परंपरागत शिल्प, भूली-बिसरी तकनीकों और अनपेक्षित सामग्रियों के पुनराविष्कार में रुचि बढ़ती जा रही है।
लेकिन इस ‘नई वस्तुगतता’ (new materiality) के साथ एक भ्रम भी जन्म लेता है—”डिज़ाइन” का मिथ। जैसे फैशन अपने आप में एक प्रदर्शन होता है—जिसे केवल एक बार पहना और दिखाया जाना होता है—वैसे ही आजकल की डिज़ाइन-केंद्रित कला का उद्देश्य केवल ध्यान खींचना और कुछ क्षणिक वाहवाही बटोरना रह गया है। वह दीर्घकालिक संवाद या स्मृति नहीं रचती।
कई युवा कलाकार आज फैशन, डिज़ाइन और सामग्री को एक साथ मिलाकर एक सनसनीखेज कलाकृति गढ़ने का प्रयास करते हैं। यह ‘विवाद’ कभी-कभी कला को चर्चा में भी लाता है, लेकिन दुर्भाग्य से आज का विवाद केवल कलाकार के मन में सीमित रह गया है—वह किसी व्यापक सार्वजनिक संवाद में रूपांतरित नहीं हो पाता।
ये कलाकृतियाँ अक्सर अपनी सामग्री से कट चुकी होती हैं—ऐसे में न उनमें सन्दर्भ बचता है और न अर्थ। कुछ लोग मानते हैं कि कला में अर्थ आवश्यक नहीं; ठीक है, पर सन्दर्भ तो फिर भी आवश्यक है। कोई भी सामग्री—लकड़ी, कपड़ा, धातु, काग़ज़—किसी सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ के बिना अस्तित्व में नहीं आती। जब कला इनसे कट जाती है, तब वह केवल ‘डिज़ाइन’ या ‘क्राफ़्ट’ बनकर रह जाती है—न तो कला, न संवाद।
यादें और अनुभव किसी भी रचना के मूल स्रोत होते हैं। लेकिन आज के युवा कलाकार अपनी कला को केवल व्यक्तिगत स्मृतियों तक सीमित रखते हैं—वे इतिहास, वर्तमान घटनाओं और सामाजिक हिंसा के प्रत्यक्ष अनुभव से दूर हैं। इस दूरी के कारण उनकी कला एक खोखला खोल बनकर रह जाती है।
भारतीय कला जगत में कुछ बड़े नाम, वैश्विक बाज़ार के सहारे, इस ‘पृष्ठभूमि कला’ को बढ़ावा दे रहे हैं—ऐसी कला जो प्रदर्शनियों में केवल सजावट बनकर रह जाती है। वहाँ कला नहीं दिखती, बल्कि ब्रांडेड परिधान पहनकर खड़े लोग दिखाई देते हैं। ये लोग न तो कलाकारों से प्रेम करते हैं, न कला से—वे बस कला के नाम पर भोगवाद और बाज़ारवाद की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।
जब कोई संवेदनशील कलाकार अपने अनुभव, विचार और सामग्री को एक साझा मंच पर लाकर रूपांतरित करता है, तभी सच्ची कला जन्म लेती है। लेकिन आज यह प्रक्रिया लगभग लुप्त होती जा रही है।
तो प्रश्न यह है—कला को दिशा कौन दे रहा है? और उससे भी बड़ा प्रश्न यह है—युवा कलाकार क्या इस भ्रम से निकलकर अपने भीतर की सच्ची आवाज़ को सुन पाएँगे?