सौंदर्यशास्त्र बनाम कला

अक्सर यह सवाल सामने आता है कि कला और सौन्दर्य शास्त्र के बीच क्या कोई परस्पर संबंध है? और अगर है तो यह एक दुसरे को कैसे और कितना प्रभावित करते हैं  I इन्हीं तथ्यों की पड़ताल करता हुआ, ब्रॉक रफ के लेख “Aesthetics vs. Art” का हिंदी अनुवाद सादर साभार प्रस्तुत है आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए I

ब्रॉक रफ

कुछ लोग ‘सौंदर्यशास्त्र’ (aesthetics) को व्यापक रूप में ‘कला के दर्शन’ (philosophy of art) के रूप में देखते हैं, लेकिन यह जानना भी जरुरी है कि ये दोनों अवधारणाएँ कहाँ और कैसे एक-दूसरे से अलग होती हैं। इनकी उपयुक्त सीमाओं के बीच का अंतर समझना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जब अठारहवीं शताब्दी के मध्य में अलेक्ज़ेंडर बॉमगार्टन ने ‘aesthetic’ शब्द को इंद्रियों द्वारा स्वाद (taste) के अध्ययन के लिए चुना, तभी से इनकी परिभाषा को लेकर भ्रम बना रहा।

इस भ्रम को इम्मैनुएल कांट के “सौंदर्य का विश्लेषण” (Analytic of the Beautiful) को लंबे समय से गलत व्याख्या करके और बढ़ाया गया, जिसे अक्सर कला से जोड़कर देखा गया, जबकि वह केवल सौंदर्यशास्त्र से संबंधित था। लेकिन इस भेद को स्पष्ट किया जा सकता है: सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन इंद्रियों से प्राप्त अनुभवों की भाव-गुणवत्ता (felt quality) का अध्ययन है, जबकि कला का अध्ययन कला वस्तुओं के निर्माण की ऐतिहासिक प्रक्रिया का अध्ययन है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि ये दोनों विषय समान रूप से व्याप्त हैं, लेकिन इस निबंध में मैं दिखाऊँगा कि सौंदर्य गुण न तो कला के लिए आवश्यक हैं और न ही पर्याप्त, और यह भी बताऊँगा कि इस विषय में कौन से मुद्दे शेष हैं। इस अंतर को सबसे स्पष्ट रूप से सौंदर्य गुणों और कलात्मक गुणों के भेद के ज़रिये समझा जा सकता है।

सौंदर्य गुण वे होते हैं जिन्हें हम इंद्रिय अनुभवों में ‘स्वाद’ के रूप में पहचानते हैं—जैसे ‘सुंदर’, ‘गत्यात्मक’ (dynamic), ‘नैसर्गिक’ (graceful)। फ्रैंक सिबली ने इन गुणों की सूची बनाना पसंद किया और कहा कि ये केवल इंद्रिय-गुण नहीं हैं, बल्कि वे इंद्रिय-गुणों पर आधारित होते हैं, और इन्हें समझने के लिए ‘स्वाद’ की ज़रूरत होती है। ये गुण केवल भौतिक विशेषताओं पर आधारित नहीं होते; इन्हें सिबली ने “condition-governedness” (स्थिति-आधारित निर्धारण) से मुक्त बताया।

दूसरी ओर, कलात्मक गुण वे होते हैं जो कला-कार्य से संबंधित होते हैं: जैसे वह किस सन्दर्भ में बना, कलाकार कौन था, कब बनाया गया, कलाकार की मंशा क्या थी, इत्यादि। कुछ विद्वान आज भी यह मानते हैं कि कला की परिभाषा सौंदर्य के आधार पर होनी चाहिए, लेकिन कई कारण हैं जिनकी वजह से इस विचार का विरोध करना चाहिए।

एक सहज उदाहरण लें—हम अक्सर प्रकृति को ‘सुंदर’ कहते हैं, जैसे एक सूर्यास्त को, लेकिन हम प्रकृति को कला का कार्य नहीं मानते। दूसरी ओर, बीसवीं सदी की बहुत सी कलाकृतियाँ सौंदर्य की परवाह नहीं करतीं, जैसे मार्सेल डुशां का The Fountain या कॉन्सेप्चुअल कला जैसे रॉबर्ट बैरी का Telepathic Piece, जिसमें भौतिक वस्तु ही नहीं होती और कोई पारंपरिक सौंदर्य गुण नहीं होते।

Fontain by Marcel Duchamp

सौंदर्यशास्त्र का अध्ययन कई ऐसे क्षेत्रों में भी होता है जहाँ कला नहीं होती या जहाँ ‘कला वस्तु’ (art object) की कोई परंपरा नहीं है:

  • डिज़ाइन का सौंदर्यशास्त्र
  • प्रकृति का सौंदर्यशास्त्र
  • दैनिक जीवन का सौंदर्यशास्त्र
  • स्पर्श का सौंदर्यशास्त्र
  • शारीरिक जागरूकता (proprioception) का सौंदर्यशास्त्र
  • खुजली मिटाने के अनुभव का सौंदर्यशास्त्र
  • घृणित भोजन खाने के सुखद अनुभव का सौंदर्यशास्त्र
  • सूक्ष्म और विशाल ब्रह्मांडीय चीज़ों (यहाँ तक कि हाथियों) का सौंदर्यशास्त्र

अगर हम यह मानें कि हर इंद्रिय अनुभव में सौंदर्य गुण होते हैं, तो हमें ‘कला’ को भी हर इंद्रिय अनुभव तक फैलाना पड़ेगा—जो अव्यावहारिक है। इसलिए, यह स्पष्ट है कि कला’ और ‘सौंदर्यशास्त्र’ दो अलग अध्ययन क्षेत्र हैं

यह अंतर और अधिक स्पष्ट हो जाता है जब हम नकली (forgery) कलाकृतियों पर विचार करते हैं। यदि कला केवल सौंदर्य गुणों पर आधारित होती, और वे केवल भौतिक गुणों से तय होते, तो एक पूरी तरह से नकली चित्र भी मूल जितना ही कलात्मक मूल्य रखता। लेकिन ऐसा नहीं होता—इससे स्पष्ट होता है कि कला और सौंदर्यशास्त्र को मिलाना गलत है।

फिर भी, कोई पूछ सकता है—इतिहास में इतने कलाकार सुंदर वस्तुएँ क्यों बनाते रहे हैं?

यह सही है कि कला के इतिहास में बहुत सी वस्तुएँ सुंदर होती हैं और सौंदर्य से जुड़ी होती हैं। लेकिन कई लोगों ने इसे ऐतिहासिक संकीर्णता (historical myopia) कहा है। कॉन्सेप्चुअल कलाकार जोसेफ कोसुथ ने कहा था:

Joseph Kosuth

“हमें सौंदर्यशास्त्र को कला से अलग करना चाहिए, क्योंकि सौंदर्यशास्त्र इंद्रिय अनुभवों की सामान्य रायों से जुड़ा है।” और यह भी कहा: “आकारवादी चित्र और मूर्तियाँ ‘कला की स्थिति’ तो पा सकती हैं, लेकिन केवल तब, जब उन्हें किसी कला विचार के संदर्भ में प्रस्तुत किया जाए।”

कोसुथ का विचार अंतिम नहीं है, लेकिन डुशांप के बाद से यह विचार मुख्यधारा में आ गया है। इसका सार यह है: कला सौंदर्य के बारे में नहीं, किसी विचार या उद्देश्य के बारे में होती है, भले ही परंपरागत रूप में उसमें सौंदर्य भी सम्मिलित रहा हो। इतिहास में दोनों में सामंजस्य रहा हो सकता है, लेकिन तर्क की दृष्टि से वे भिन्न हैं।

शेष समस्याएँ :

मान लिया जाए कि ‘कला’ और ‘सौंदर्यशास्त्र’ अलग चीजें हैं, तब भी इनके बीच का अंतर स्पष्ट करना कठिन है। उदाहरण के लिए, यह तय करना अभी बाकी है कि कौन से गुण केवल कलात्मक हैं और कौन से सौंदर्यात्मक। क्या कुछ गुण दोनों भूमिकाएँ निभा सकते हैं? दूसरी कठिनाई यह है कि कौन से गुण पूरी तरह से सौंदर्यात्मक हैं। कुछ लोग इंद्रिय-गुण (sensory properties) और सौंदर्य गुणों के बीच भी अंतर बनाए रखना चाहते हैं। हालाँकि यह सीमा धुंधली है, फिर भी कोई स्पष्ट तरीका नहीं है जिससे हम यह कह सकें कि:

  • गर्म पानी में उतरने पर जो सुख मिलता है,
  • सूर्यास्त देखकर जो विस्मय होता है,
  • और कैरवाज्जियो (Caravaggio) की पेंटिंग को देखकर जो सौंदर्य अनुभव होता है —इनमें क्या अंतर है, और किन्हें सौंदर्य कहा जाए।

अंततः, अगर कलात्मक और सौंदर्यात्मक गुणों में भेद है, तो फिर साहित्यिक कृतियों में सौंदर्य गुणों का क्या? किताबें एक भौतिक वस्तु के रूप में तो सौंदर्य रखती हैं, लेकिन उनके अमूर्त (abstract) विषय-वस्तु में ऐसा क्या है जो हमारी इंद्रियों से सौंदर्य के रूप में ग्रहण किया जा सके?

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