कला को परिभाषित करने को लेकर तमाम तरह की मत भिन्नताएं पायी जाती हैं, फिर भी यहाँ एक कोशिश है विभिन्न सन्दर्भों के आधार पर कला को जानने समझने की.। – मॉडरेटर
कला : कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है। कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है।
र. वि. साखलकर के शब्दों में : “कला मानवनिर्मित है, और मानव की निर्मिति को मानव के संपूर्ण जीवन से कैसे पृथक किया जा सकता है । वृक्ष की जड़, तना, शाखा, पत्ता,फूल या फल के जन्म, विकास व कार्य का वृक्ष की कल्पना के बिना पृथक ज्ञान असंभव है । मानव की कला, विज्ञानं, व्यवहार व कृति को मानव के जीवन से ही अर्थ प्राप्त होता है । सभी एक विशाल पुरुष के अंग हैं ।”
मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में: अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है — (साकेत, पंचम सर्ग) दूसरे शब्दों में -: मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति ही कला है। कला शब्द का प्रयोग शायद सबसे पहले भरत के “नाट्यशास्त्र” में ही मिलता है। पीछे वात्स्यायन और उशनस् ने क्रमश: अपने ग्रंथ “कामसूत्र” और “शुक्रनीति” में इसका वर्णन किया। “कामसूत्र”, “शुक्रनीति”, जैन ग्रंथ “प्रबंधकोश”, “कलाविलास”, “ललितविस्तर” इत्यादि सभी भारतीय ग्रंथों में कला का वर्णन प्राप्त होता है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 मानी गयी है। जबकि “प्रबंधकोश” इत्यादि में 72 कलाओं की सूची मिलती है। “ललितविस्तर” में 86 कलाओं के नाम गिनाये गये हैं। प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ “कलाविलास” में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सम्बन्धी, 32 मात्सर्य-शील-प्रभावमान सम्बन्धी, 64 स्वच्छकारिता सम्बन्धी, 64 वेश्याओं सम्बन्धी, 10 भेषज, 16 कायस्थ तथा 100 सार कलाओं की चर्चा है। वैसे सबसे अधिक प्रामाणिक सूची “कामसूत्र” की ही मानी जाती है।
यूरोपीय साहित्य की बात करें तो यहाँ भी कला शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौशल के लिए ही अधिकतर हुआ है। वहाँ प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है। कला का अर्थ है रचना करना अर्थात् वह कृत्रिम है। प्राकृतिक सृष्टि और कला दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं। कला उस कार्य में है जो मनुष्य करता है। कला और विज्ञान में भी अंतर माना जाता है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला में कौशल का। कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को कला की संज्ञा दी जाती है। कौशलविहीन या बेढब ढंग से किये गये कार्यों को कला में स्थान नहीं दिया जाता।
इस तरह हम पाते हैं कि कलाओं के वर्गीकरण में मतैक्य का होना सम्भव नहीं है। वर्तमान समय में कला को मानविकी के अन्तर्गत रखा जाता है जिसमें इतिहास, साहित्य, दर्शन और भाषाविज्ञान आदि भी आते हैं। वहीँ पाश्चात्य जगत में कला के दो भेद किये गये हैं- उपयोगी कलाएँ (Practice Arts) तथा ललित कलाएँ (Fine Arts)। परम्परागत रूप से निम्नलिखित सात को ‘कला’ कहा जाता है- स्थापत्य कला (Architecture), मूर्त्तिकला (Sculpture), चित्रकला (Painting), संगीत (Music), काव्य (Poetry), नृत्य (Dance), रंगमंच (Theater/Cinema) आधुनिक काल में इनमें फोटोग्राफी, चलचित्रण, विज्ञापन और कॉमिक्स भी जुड़ गये हैं।
इस तरह से देखें तो उपरोक्त कलाओं को निम्नलिखित प्रकार से भी श्रेणीकृत कर सकते हैं-
साहित्य – काव्य, उपन्यास, लघुकथा, महाकाव्य आदि
निष्पादन कलाएँ (performing arts) – संगीत, नृत्य, रंगमंच
पाक कला (culinary arts) – बेकिंग, चॉकलेटरिंग, मदिरा बना
मिडिया कला – फोटोग्राफी, सिनेमेटोग्राफी, विज्ञापन
दृश्य कलाएँ – ड्राइंग, चित्रकला, मूर्त्तिकला
कुछ कलाओं में दृश्य और निष्पादन दोनों के तत्व मिश्रित होते हैं, जैसे फिल्म।
कला का महत्त्व: जीवन, ऊर्जा का महासागर है। जब अंतश्चेतना जागृत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि आत्मा का सत्य स्वरुप झलकता है। कला उस क्षितिज की भाँति है जिसका कोई छोर नहीं, इतनी विशाल इतनी विस्तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे, तभी तो कवि मन कह उठा- साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छ विषाणहीनः ॥
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के मुख से निकला “कला में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है ” तो प्लेटो ने कहा – “कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है।”
टालस्टाय के शब्दों में अपने भावों की क्रिया रेखा, रंग, ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करना कि उसे देखने या सुनने में भी वही भाव उत्पन्न हो जाए कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रूप लेती है, कलाकार का अन्तर्मन मानो मूर्त ले उठता है चाहे लेखनी उसका माध्यम हो या रंगों से भीगी तूलिका या सुरों की पुकार या वाद्यों की झंकार। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्यम है। यह कठिन तपस्या है, साधना है। इसी के माध्यम से कलाकार सुनहरी और इन्द्रधनुषी आत्मा से स्वप्निल विचारों को साकार रूप देता है।
कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। कला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ , परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उदात्त बनाती है। वह व्यक्ति को “स्व ” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” से जोड़ती है।
कला ही है जिसमें मानव मन में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। मनोरंजन, सौन्दर्य, प्रवाह, उल्लास न जाने कितने तत्त्वों से यह भरपूर है, जिसमें मानवीयता को सम्मोहित करने की शक्ति है। यह अपना जादू तत्काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्तरण प्रस्तुत कर सकती है। जब यह कला संगीत के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्य आत्मविस्मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्हार राग से मेघ बरसना यह कला की साधना का ही चरमोत्कर्ष है। संगीत की साधना; सुरों की साधना है। मिलन है आत्मा से परमात्मा का; अभिव्यक्ति है अनुभूति की।
भाट और चारण भी जब युद्धस्थल में उमंग, जोश से सराबोर कविता-गान करते थे, तो वीर योद्धाओं का उत्साह दोगुना हो जाता था और युद्धक्षेत्र कहीं हाथी की चिंघाड़, तो कहीं घोड़ों की हिनहिनाहट तो कहीं शत्रु की चीत्कार से भर उठता था; यह गायन कला की परिणति ही तो है। संगीत केवल मानवमात्र में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों में भी अमृत रस भर देता है। पशु-पक्षी भी संगीत से प्रभावित होकर झूम उठते हैं तो पेड़-पौधों में भी स्पन्दन हो उठता है। तरंगें फूट पड़ती हैं। यही नहीं मानव के अनेक रोगों का उपचार भी संगीत की तरंगों से सम्भव है। कहा भी है: संगीत है शक्ति ईश्वर की, हर सुर में बसे हैं राम। रागी तो गाये रागिनी, रोगी को मिले आराम।।
संगीत के बाद ललित-कलाओं में जिसे स्थान दिया गया है तो वह है- नृत्यकला। चाहे वह भरतनाट्यम हो या कत्थक, मणिपुरी हो या कुचिपुड़ी। विभिन्न भाव-भंगिमाओं से युक्त हमारी संस्कृति व पौराणिक कथाओं को ये नृत्य जीवन्तता प्रदान करते हैं। शास्त्रीय नृत्य हो या लोकनृत्य इनमें खोकर तन ही नहीं मन भी झूम उठता है।
कलाओं में कला, श्रेष्ठ कला, वह है चित्रकला। मनुष्य स्वभाव से ही अनुकरण की प्रवृत्ति रखता है। जैसा देखता है उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्न करता है। यही उसकी आत्माभिव्यंजना है। अपनी रंगों से भरी तूलिका से चित्रकार जन भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है तो दर्शक हतप्रभ रह जाता है। पाषाण युग से ही जो चित्र पारितोषक होते रहे हैं ये मात्र एक विधा नहीं, अपितू ये मानवता के विकास का एक निश्चित सोपान प्रस्तुत करते हैं। चित्रों के माध्यम से आखेट करने वाले आदिम मानव ने न केवल अपने संवेगों को बल्कि रहस्यमय प्रवृत्ति और जंगल के खूंखार प्रवासियों के विरुद्ध अपने अस्तित्व के लिए किये गये संघर्ष को भी अभिव्यक्त किया है। धीरे-धीरे चित्रकला शिल्पकला सोपान चढ़ी। सिन्धुघाटी सभ्यता में पाये गये चित्रों में पशु-पक्षी मानव आकृति सुन्दर प्रतिमाएँ, ज्यादा नमूने भारत की आदिसभ्यता की कलाप्रियता का द्योतक है।
अजन्ता, बाध आदि के गुफा चित्रों की कलाकृतियों पूर्व बौद्धकाल के अन्तर्गत आती है। भारतीय कला का उज्ज्वल इतिहास भित्ति चित्रों से ही प्रारम्भ होता है और संसार में इनके समान चित्र कहीं नहीं बने ऐसा विद्वानों का मत है। अजन्ता के कला मन्दिर प्रेम, धैर्य, उपासना, भक्ति, सहानुभूति, त्याग तथा शान्ति के अपूर्व उदाहरण है।
मिथिला या मधुबनी शैली, पहाड़ी शैली, तंजौर शैली, मुगल शैली, बंगाल शैली अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण आज जनशक्ति के मन चिन्हित है। यदि भारतीय संस्कृति की मूर्त्ति कला व शिल्प कला के दर्शन करने हो तो दक्षिण के मन्दिर अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। जहाँ के मीनाक्षी मन्दिर, वृहदीश्वर मन्दिर, कोणार्क मन्दिर अपनी अनूठी पहचान के लिए प्रसिद्ध है।
यही नहीं भारतीय संस्कृति में लोक कलाओं की खुश्बू की महक आज भी अपनी प्राचीन परम्परा से समृद्ध है। जिस प्रकार आदिकाल से अब तक मानव जीवन का इतिहास क्रमबद्ध नहीं मिलता उसी प्रकार कला का भी इतिहास क्रमबद्ध नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि सहचरी के रूप में कला सदा से ही साथ रही है। लोक कलाओं का जन्म भावनाओं और परम्पराओं पर आधारित है क्योंकि यह जनसामान्य की अनुभूति की अभिव्यक्ति है। यह वर्तमान शास्त्रीय और व्यावसायिक कला की पृष्ठभूमि भी है। भारतवर्ष में पृथ्वी को धरती माता कहा गया है। मातृभूति तो इसका सांस्कृतिक व परिष्कृत रूप है। इसी धरती माता का श्रद्धा से अलंकरण करके लोकमानव में अपनी आत्मीयता का परिचय दिया। भारतीय संस्कृति में धरती को विभिन्न नामों से अलंकृत किया जाता है। गुजरात में “साथिया” राजस्थान में “माण्डना”, महाराष्ट्र में “रंगोली” उत्तर प्रदेश में “चौक पूरना”, बिहार में “अहपन”, बंगाल में “अल्पना” और गढ़वाल में “आपना” के नाम से प्रसिद्ध है। यह कला धर्मानुप्रागित भावों से प्रेषित होती है; जिसमें श्रद्धा से रचना की जाती है। विवाह और शुभ अवसरों में लोककला का विशिष्ट स्थान है। द्वारों पर अलंकृत घड़ों का रखना, उसमें जल व नारियल रखना, वन्दनवार बांधना आदि को आज के आधुनिक युग में भी इसे आदरभाव, श्रद्धा और उपासना की दृष्टि से देखा जाता है।
आज भारत की वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण “ताजमहल” है, जिसने विश्व की अपूर्व कलाकृत्तियों के सात आश्चर्य में शीर्षस्थ स्थान पाया है। लालकिला, अक्षरधाम मन्दिर, कुतुबमीनार, जामा मस्जिद भी भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण है। मूर्त्तिकला, समन्वयवादी वास्तुकला तथा भित्तिचित्रों की कला के साथ-साथ पर्वतीय कलाओं ने भी भारतीय कला को समृद्ध किया है।
भारतीय मनीषियों के अनुसार कलाओं की सूची: “कामसूत्र” के अनुसार 64 कलाएँ निम्नलिखित हैं I “शुक्रनीति” के अनुसार कलाओं की संख्या असंख्य है, फिर भी समाज में अति प्रचलित 64 कलाओं का उसमें उल्लेख हुआ है।
वात्स्यायन के “कामसूत्र” की व्याख्या करते हुए जयमंगल ने दो प्रकार की कलाओं का उल्लेख किया है – (1) कामशास्त्र से सम्बन्धित कलाएँ, (2) तंत्र सम्बन्धी कलाएँ। दोनों की अलग-अलग संख्या 64 है। काम की कलाएँ 24 हैं जिनका सम्बन्ध सम्भोग के आसनों से है, 20 द्यूत सम्बन्धी, 16 कामसुख सम्बन्धी और 4 उच्चतर कलाएँ। कुल 64 प्रधान कलाएँ हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय साधारण कलाएँ भी बतायी गयी हैं। प्रगट है कि इन कलाओं में से बहुत कम का सम्बन्ध ललित कला या फ़ाइन आर्ट्स से है। ललित कला – अर्थात् चित्रकला, मुर्त्तिकला आदि का प्रसंग इनसे भिन्न और सौंदर्यशास्त्र से सम्बन्धित है।