-श्री वी. ऐच. भणौत
वर्ष 1946में प्रकाशित यह विस्तृत आलेख तत्कालीन कलाजगत की कला-समीक्षा का एक बेहतरीन उदाहरण है।साथ ही यह आलेख उस दौर की कला चेतना व कला की अंतर्धारा को भी जाहिर करती है।
–मॉडरेटर
कला एक ऐसा विषय है जिसके बारे में बकवाद करना बहुत ही सरल है, और बुद्धिमानी की बात करना उतना ही कठिन। किसी ने इसका कारण समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा था, ”जब मैंने पहिले-पहल यह अनुभव किया कि दो और दो चार, और चार ही, होते हैं, तब मुझे एक अतीव सन्तोष आैर सुख हुआ ”। बात यह है कि मानव मन हमेशा ही ऐसी ” सन्तुष्टियों” का भूखा रहता है। हम सदा ही ”शाश्वत तत्त्वों” आैर ”सनातन सत्यों” को अनुभव करने के लिए लालायित रहते हैं, यह जानने के लिए दो जमा दो हमेशा, हर परिस्थिति में ,चार ही के बराबर होते हैं। यद्यपि वास्तव में यह ”सत्य” केवल एक गणित का ही सत्य है- क्योंकि दो आैर दो के जोड़ने से अनेक प्रकार के बिल्कुल अप्रत्याशित परिणाम भी निकल सकते हैं। यहाँ तक कि इकाई में से भी दो या अधिक बन सकते हैं। मसलन रक्तकणों (ब्लड सैल्स) को ले लीजिए, आैर इससे भी विचित्र बातें हो सकती हैं, खासकर कला में।
एक उदाहरण लीजिए। आज से 15-20 वर्ष पूर्व बंगाल में ”अजन्ता स्कूल” का प्रादुर्भाव हुआ। उसके अनुयायिायों ने प्राचीन अजन्ता के भित्तिचित्रों के रंग, भावभंगी, आैर अंकन (डिज़ाइन) के साथ पाश्चात्य (क्यारॅस्क्यूरो) का संमिश्रण किया, उसमें आजकल के निसर्गवाद (नैचुरैलिज़्म) का पुट मिलाया, और साथ ही कई एक आधुुनिक सन्तुलन (बैलेन्स) आैर लालित्य (ग्रेस) की धारणाएँ भी उस पर प्रयुक्त्त कीं। यह सब लक्षणाएँ प्रशंसनीय आैर वाञ्छनीय हैं। अत: ऐसी आशा की जा सकती थी कि उनके संश्लेषण से एक एक अभूतपूर्व, अत्युत्तम नहीं तो उत्कृष्ट, कला आविर्भूत होगी। परन्तु वास्तव में ऐसा हुआ नहीं- कम से कम आजकल हम यही सोचने लगे हैं कि यह प्रयोग विफल रहा। यद्यपि आज से बीस वर्ष पहले जब इस शैली का जन्म हुआ था, हम मुक्त्तकण्ठ से उसकी प्रशंसा ही करते थे। आज तो हम इसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि इस प्रकार के विरोधी गुणों को निश्चित करने से सभी एक-दूसरे को काट डालते हैं, और यह अवश्यम्भावी है कि फल शून्य के आस-पास ही हो। अर्थात् दो जमा दो बराबर शून्य।
जैसा कि ऊपर कहा, मानव-ह्मदय में ”सनातन सत्यों” की एक दुर्दमनीय भूख है। फलत: कई एक धारणाएँ हमारे बिल्कुल अनजाने में ही हमारे मन में घर कर लेती हैं। हम शायद ही उन धारणाओं, उन रूढिजन्य मतैक्यों की विवेकपूर्ण आलोचना करते हों। इन मतैक्यों में कोई भी परिवर्तन बहुत ही मन्थर गति से होता है, और अनजाने में ही, यद्यपि कालान्तर में काफ़ी विभेद हो जाता है। परिणाम यह होता है कि हरएक युग में किन्हीं विशिष्ट धारणाओं के परिणामों के विरुद्ध पूर्वग्रह होते हैं- या यों कहना चाहिए कि विशिष्ट धारणाओं के परिणामों के विरुद्ध यद्यपि इन पूर्वग्रहों में एक प्रकार का साम्य भी है, और वह यह कि वह इस विश्वास पर स्थापित होते हैं, कि कला के सम्बन्ध में भी सार्व-भौम आैर सदा-विश्वास्य, अपरिवर्तनीय, सर्वसामान्य नियम हैं जिनकी तुलना में गणित के ”दो जमा दो बराबर चार” से की जा सकती है। परन्तु सच तो यह है कि कला-विषयक ऐसे शाश्वत सनातन ”नियम” हो ही नहीं सकते- क्योंकि कला अपनी तर्क पद्धति का निर्माण स्वयं करती है।
परन्तु यहाँ यह भी इङ्गित कर देना अभीष्ट है कि अङ्कन के मूल तत्त्वांश (एलिमेण्ट्स ऑव डिज़ाइन) स्थायी, नित्य आैर सीमित हैं, जिनमें विशेष तबदीलियाँ नहीं हो सकतीं। इसलिए आप कह सकते हैं कि सौन्दर्याङ्कन के बारे में नियम गढ़े जा सकते हैं। कदाचित् यह भी सम्भव हो कि व्यक्तिमात्र के लिए उन तत्वों की अनुभूति भी सम्भव हो सके- बशर्ते कि आप दृश्य और गूढ़, आकृति आैर अन्तर्भूतार्थ (फ़ॉर्म एण्ड कॉन्टेन्ट) को अलग अलग बाँट सकें। यहाँ गूढ़ से हमारा तात्पर्य मनोरथ (इन्टेशन) से है, अर्थात् अभिव्यक्ति के पीछे निहित कलाकार के उद्देश्य से। यह बिल्कुल सम्भव है कि हम किसी स्थापत्य -कला की वस्तु पर उसकी बाह्याकृति (एक्सटरनल फ़ॉर्म) के कारण ही मुग्ध हो जाँय, और फलत: हमें लगे कि हम उस कलावस्तु की शुद्ध सौन्दर्यानुभूति (ईस्थेटिक ऐप्रिसियेशन) कर रहे हैं, परन्तु हमें यह न भूलना चाहिए कि अङ्कन के मूल तत्त्वांशों की समष्टि ही कला नहीं है। क्योंकि सच तो यह है कि कलावस्तु का आकार (फ़ॉर्म) स्वयंभू नहीं है, वरन् उसकी उत्पत्ति गूढ़ से, निहित उद्देश्य से ही हुई है। आकार सदा ही हेतुजन्य है और यह कथन प्रत्येक कला आैर कलावस्तु पर लागू है। भले ही हम यह समझते हों कि किसी कलावस्तु का आकार (फ़ॉर्म) अच्छा, वाञ्छनीय है, या हो सकता है, और उसके मूल उद्देश्य को हम बालाएताक़ रखकर भी कलावस्तु की समीक्षा कर सकते हैं। हमें यह सदा याद रखना चाहिए कि उद्देश्य ने ही रूप, आकार को जन्म दिया है। नहीं तो समीक्षा करते समय अनर्थ हो सकता है।
निहित मनोरथ और आकार के इस पारस्परिक सम्बन्ध को हम यदि न भूलें, तो स्पष्ट है कि जब भी हम किसी विशिष्ट कला के प्रतीक एक कलावस्तु के इरादे (इन्टेन्शन), उद्देश्य, की ओर उदासीन हां या उसकी प्रतीति ही नहीं कर सकें, तब वास्तव में हम उस कला को ही दूषित ठहरा रहे हैं, उस कला के प्रति ही उदासीन हैं, उसकी अनुभूति नहीं प्राप्त कर रहे। यहाँ पुनरुक्ति के दोष से न डरकर फिर कहूँगा कि कलाकार का उद्देश्य, उसका इरादा, बहुत ही महत्त्व की चीज़ है, और समीक्षक या आलोचक उसको एक और कलावस्तु का दिग्दर्शन नहीं कर सकता।
कुछ उदाहरण लीजिए। आलोचना करते समय हम कह सकते हैं कि कोई ललित कला की चीज़ ”हमें आनन्द देती है” अथवा ”सौन्दर्य को प्रतिबिम्बित करती है” अथवा कि वह ”प्रकृति का आइना है”। परन्तु यह सम्भव है कि आनन्द देने, आइना बनने, या प्रतिबिम्बित करने, में से एक भी उद्देश्य कलाकार का न हो- अभिव्यक्ति करते समय उसका इरादा इन सबसे विभिन्न ही हो। जैसे, ईसा के सूली पर चढ़ाये जाने का चित्रण उसी प्रकार का ”आनन्द” देने के लिए अभिव्यक्त किया हुआ नहीं हो सकता जैसा कि एक सुन्दर स्त्री का चित्रण। इसी तरह जब हमारे कलाकारों ने कुम्भीपाक या रौरव नरक का चित्र बनाया है, तब प्राय: उसका उद्देश्य हमें नरक दिखला देना ही रहा है- एक प्रकार से हमें ”जहन्नुम में पहुँचाना ” ही वहाँ ध्येय था। मध्यकालीन तिब्बती चित्रकला में राक्षसों का, प्रेतात्मा आैर पिशाचों का, नरक के विभिन्न रूपों का, चित्रण बहुधा होता है। ऐसे दृश्यों के निरूपण (चित्रण) से भी तत्कालीन विशिष्ट आनन्द (ईस्थेटिक जॉय) का अनुभव हो सकता है, इस बात को चित्रकार जानता अथवा मानता था, यह हम नहीं कह सकते। इसी तरह प्राचीन यूनान के स्थापत्य- कलाकारों के लिए भी दु:ख आैर सौन्दर्य का कोई सम्बन्ध नहीं था- वे तो अपूर्व सौन्दर्य की व्य़ञ्जना को ही धर्म और वाञ्छनीय समझते थे। प्रकट में दु:खदायी, अथवा दु:खजन्य, दृश्यों से भी एक ईस्थेटिक आनन्द आता है, एक विशिष्ट रसानुभूति होती है, यह धारणा तो बहुत बाद में आयी। अरस्तू ने अपनी ”दु:ख द्वारा मनोरेचन” (कैथारसिस थ्रू ट्रैजेडी) सम्बन्धी धारणा अलबत्ता काफ़ी प्राचीन काल में बना ली थी, परन्तु कला-क्षेत्र में इस उपपत्ति का प्रवेश, और उसपर आचरण, बहुत समय, बल्कि सदियों, बाद हुआ।
इसी प्रकार जो लोग कहते हैं कि कला प्रकृति का आइना है, या उसको आइना होना चाहिए, उन्हें मैं सम्वेदना -विहीन (विदाउट सेन्सिबिलिटी) ही कहूँगा। उन्होंने या तो कभी प्रकृति को वास्तव में ”देखा” नहीं, या फिर कला को समझा नहीं। ”दर्पण के सामने प्रतिबिम्बित करने” के उनके आदर्श को यदि पूर्णतया कार्यरूप में परिणत करने का प्रयत्न किया जाय तो कलाकार का लोप ही हो जायगा- हाँ यह अलबत्ता है कि कारीगर-चित्रकारों (क्रैफ्ट्समैन) को काफ़ी काम मिल जायगा। यहाँ यह भी जतला देना आवश्यक है कि यदि केवल (इन्फ़ार्मेशन) का ही प्रश्न हो, तब भी हम यही देखते हैं कि एक फ़ोटोग्रैफ़र के लेन्स द्वारा खचित अनुकृति से हमें उतनी इन्फ़ार्मेशन नहीं मिलती जितनी कि एक कुशल इलस्ट्रेटर की हस्तकुशलता से। इसका कारण समझना कठिन नहीं, क्योंकि इलस्ट्रेटर अपनी विवेक -बुद्धि के द्वारा महत्त्वहीन आैर अप्रासांगिक अंशों (इर्रेलिवेण्ट डिटेल्स) को काट-छाँटकर अलग कर देता है, और फलत: हमें अपेक्षाकृत अधिक-एकरस वस्तु देखने को मिलती है। अतएव स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में भी वास्तविक मूल्य की चीज़ आदमी, व्यक्ति है, माध्यम अथवा मूत्र्त (ऑबजेक्ट) नहीं।
यह रूढ़ कहने के बाद कुछ फ़तवे दिये जा सकते हैं। जो लोग कला के समीक्षक (आर्ट क्रिटिक्स) होना चाहते हैं उन्हें पूर्वग्रह के बग़ैर होना चाहिए। हाँ जो कला के प्रेमी कहलाने के ही इच्छुक हैं वे बेशक अपनी पूर्व-धारणाओं का यथेष्ट उपयोग करें, यद्यपि ऐसा करने की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर होगी। इसके विपरीत यदि एक कलाकार अपनी रचना के बारे में पूर्वाग्रही (प्रेजुडिस्ड) नहीं हो तो वह कलाकार ही नहीं है।
अपने फ़तवों का ज़रा निरीक्षण किया जाय। पहला फ़तवा हमने यह कह दिया कि कला-समीक्षक में पूर्वग्रह नहीं होना चाहिए। यह तो स्वीकार करना ही होगा कि यदि एक न्यायाधीश किसी स्त्री अपराधी का रंग-रूप पसन्द आ जाने के कारण ही उसके पक्ष में फैसला दे दे, तो उसे अन्यायी ही मानना उचित है। कला निष्क्रिय (अकर्मक, पैसिव) है; दर्शक का मन ही सकर्मक (सक्रिय, ऐक्टिव) होता है। आलोचक को कलावस्तु का निरीक्षण और समीक्षा करते समय निष्पक्षभाव (तटस्थभाव) रखना चाहिए। परन्तु साथ-ही-साथ उसके मन को क्रियाशील, सचेतन आैर पूरी तरह संवेदनाशील (सेन्सिबल) होना चाहिए। गुणों की तलाश उसे करनी ही चाहिए, और उनकी अच्छाई स्वीकार करनी चाहिए- भले ही अन्य अनेक कारणों से उसे आलोच्य-वस्तु अच्छी न लगती हो। (ध्यान रहे कि यहाँ गुण से मेरा तात्पर्य अच्छाइयों से नहीं है, प्रत्युत केवल क्वालिटीज़ से)। अब हम देखते हैं कि जब हम अतीत की कला का, अपेक्षाकृत प्राचीन कला का, समीक्षण करने बैठते हैं, तब हमारा असन्तोष इतना कम होता है कि उससे हमारी निष्पक्षता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। उदाहरणतया, हमारे देश में सदियों से धार्मिक आैर पौराणिक विषयों को चित्रित करने की प्रणाली चली आती है। उनकी आलोचना करते समय हम एक प्रकार से उन्हें शुरू से ही ‘स्वीकार’ कर लेते हैं, और अपनी जाँच-पड़ताल इतने तक ही सीमित रखते हैं कि भिन्न-भिन्न कलाकारों ने किस तरह से एक ही विषय को चित्रित किया है, एक ही निमित्त को बरता है। सारांश मे कह सकते हैं कि कई एक कला-विषयों (जैसे कि उल्लिखित पौराणिक आैर धार्मिक विषय) का प्रत्यक्ष-जीवन से सम्बन्ध एक प्रकार से टूट -सा गया है, आैर वह केवल गवेषणा आैर बहस के मज़मून ही रह गये हैं। इन स्थलों पर आैर अमुक-अमुक स्तरों पर हमारी आलोचना- शक्ति तक़रीबन पूर्ण-तटस्थ (ऑब्जेक्टिव) हो गयी है, आैर इस परिस्थिति में हम ”अच्छे चित्रों” के बारे में उपपत्तियाँ निर्धारित कर सकते हैं। ऐसा कर सकने का कारण यह है कि यहाँ हमारा कोई खास व्यक्तिगत अनुराग (इन्टेरेस्ट) नहीं होता। हम कई एक बुद्ध-मूत्र्तियों अथवा काली, महाकाली, शिव, गणेश प्रभृति की मूर्तियों आैर चित्रों का मुकाबिला कर सकते हैं। क्योंकि हम अब बहुधा उनकी आराधना नहीं करते (और करते भी हैं तो उतने ज़ोम से नहीं जैसे कि प्राचीन काल में)। साधारणतया अब हम केवल कला समष्टि में उनका एक दूसरे के साथ कितना आैर क्या तारतम्य है यही देखते हैं, आैर देखकर सन्तोष कर लेते हैं। इसी तरह हम राजपूती, गढ़वाली, या पहाड़ी शैलियों के चित्रों में भी विभिन्न-विभिन्न नायिकाओं अथवा जुदे-जुदे प्रदेशचित्रणों (लैण्डस्केप्स) का तारतम्य करते हैं, और अधिक गहरा नहीं जाते। प्राचीन अथवा पाश्चात्य चित्रकारों की रचनाओं (जैसे टिश्यन, होलबाइन, म्युरिल्लो, वैन आइक) का भी तारतम्य हम करते हैं। कारण यह है कि हम इन चित्रों को कुछ अलग होकर देखते हैं। यद्यपि यह भाव हम में निहित रहता है कि वह प्राकृतिक दृश्यों पर ही निर्धारित हैं। अन्ततोगत्वा हम कुछ वीतराग, निर्लिप्त, दृष्टि से ही पूर्वकालीन चित्रों की आलोचना करते हैं।
इसके विपरीत जब हम आधुनिक काल के प्रदेश-चित्रण करने वालों की आलोचना करने बैठते हैं (मसलन देवेन्द्र ठाकुर, गगनेन्द्र ठाकुर, ठाकुर सिंह, कोरो, ह्विस्लर, मोने, सिज़ैने प्रभृति) तब हमारी निर्लिप्ति उतनी नहीं रहती। वहाँ व्यक्तिगत बातों का प्रवेश होता है। क्योंकि आप यह चित्र केवल प्रदेशचित्र ही नहीं रहते, वे अब हमारे लिए ”कला-सम्बन्धी धारणा- विशेष की अभिव्यक्त्ति” भी हो जाते हैं, आैर इसलिए पद्धति-सम्बन्धी पूर्वग्रहों का संग्राम शुरू हो जाता है।
परन्तु समीक्षक के लिए यह सब होते हुए भी मुख्य बात यह नहीं है कि इन सबमें कौन सी धारणा आैर कौन सी पद्धति, अभिव्यक्ति सर्वोत्तम है। उसका मुख्य हेतु इतना ही होना चाहिए, उसका कर्तव्य इतना ही है, कि वह निर्णय करे कि अपनी-अपनी पद्धति, अपनी-अपनी शैली में कौन कौन अपेक्षाकृत अच्छे, और कौन उत्तम हैं। आैर यह कि पद्धति की परिभाषा करने के बाद किसी एक पद्धति में जो अच्छे नहीं हैं उन्हें अलग करके हमारे सामने रखे। आलोचक को दी हुई बातों पर से ही निर्णय करने का प्रयत्न करना होगा, अर्थात केवल उन्हीं प्रतीकों से जिन्हें कलाकार ने उसके समक्ष रखा है। उसे यही देखना है कि जिन धारणाओं, जिन बातों, जिस उद्देश्य को लेकर कलाकार चला था, उन्हीं के अनुकूल आैर अनुरूप उसकी कृति किस हद तक है। तात्पर्य यह कि कलाकार की अपनी ही कसौटी पर उसकी कृति कितनी खरी उतरती है, यही देखना समीक्षक का काम है।
उदाहरणतया प्रसिद्ध चित्रकार टर्नर को ही लीजिए। प्रारम्भ में टर्नर ने क्लॉड लोरेन की नक़ल की, परन्तु बाद में उसकी शैली बिलकुल विभिन्न हो गयी थी। अब जहाँ तक कि टर्नर ने लोरेन की नक़ल करना स्वीकार किया है वहाँ तक अगर समीक्षक एक चित्रकार को दूसरे के बाट पर तौले, तो योग्य है। परन्तु इस झमेले में पड़ना, इस बात का निर्णय करना, कि टर्नर के अन्तिम काल में उसकी धारणाएँ, उसके उद्देश्य, गूढ़-हेतु, ”वास्तविक कला के सिद्धान्तों ” के अनुकूल हैं या नहीं, अथवा कहाँ तक प्राकृतिक नियमों के अनुसार सच्चे बैठते हैं- इस सबकी पड़ताल करना समीक्षक का काम नहीं है। उसका काम केवल इतना ही है कि प्रत्यक्ष बातों से टर्नर के उद्देश्यों की परिभाषा करे और निर्णय करे कि उनतक पहुँचने में वह किस हद तक सफल हुआ है। (यहाँ पर ठाकुर सिंह आैर ह्विस्लर पर भी इसी प्रकार से विचार किया जा सकता है। क्योंकि ठाकुर सिंह ने ह्विस्लर की शैली का अनुगमन किया है, यह स्पष्ट है।)
एक उदाहरण और लें। सिज़ैने की कला कहाँ तक मोने की कला से बढ़कर है, यह बताना आलोचक का काम नहीं । उसका काम यही है कि दोनों क्या-क्या करने का प्रयत्न कर रहे थे इसका अन्वीक्षण करे, और यह बताए कि कहाँ तक वे अपने- अपने ध्येय तक पहुँचने में समर्थ हुए हैं। और अगर ध्येय का पता सहसा समीक्षक को नहीं चलता-जैवा कि आधुनिक कला में प्राय: होता है- तब उसे निर्भीक होकर कहना चाहिए कि ”मुझे पता नहीं, क्योंकि प्रस्तुत बातें मेरी समझ में नहीं आती”। परन्तु यहाँ पर भी वह कलावस्तु के अंकन और रंग के सामञ्जस्य पर भी अपनी टिप्पणी दे सकता है, क्योंकि यह चीज़ें कला के उन तत्त्वांशों में से हैं जो सदा समझ में चाहे न आते हों पर सदा अनुभाव्य तो हैं ही। जो लोग भी ”न समझने” पर कुपित होकर या उससे आतंकित होकर फैसला कर मारते हैं कि आलोच्यवस्तु निकम्मी या उत्कृष्ट या कुछ भी है, उन्हें अच्छा समीक्षक नहीं कहा जा सकता, और न उन्हें ही जो किसी विशिष्ट अनुभूति से विहीन हैं।
अब हम अपने दूसरे फ़तवे पर आयें। हमने कहा था कि लोग कलाप्रेमी होने में ही सन्तुष्ट हैं। वे अपनी पूर्वधारणाओं को निरंकुश होने दे सकते हैं, परन्तु साथ ही ऐसा करने की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं की होगी।
किसी वस्तु पर प्रेम करने का अर्थ है उससे आकर्षित होना, यहाँ तक कि उसके वशीभूत हो जाना। प्रेमी ”क्यों” कभी नहीं पूछता। उसको ‘पूर्वाध्ययन’ के बिना ही ”ज्ञान” होता है-नहीं तो वह प्रेमी ही नहीं। साथ ही प्रेमी गुरुजनों से परामर्श भी नहीं करता आैर न वह चहेती वस्तु की अस्लीयत अथवा आन्तरिक गुण का सुबूत ही माँगता है। अत: यह बिलकुल संभव है कि वह अपना प्रेम किसी अयोग्य व्यक्ति या कलावस्तु पर बरबाद कर दे। इसमें दुर्भाग्य उसी का होगा। और दोष भी उसका अपना ही, किसी अन्य का नहीं। परन्तु, मैं कहूँगा, कि बिलकुल प्रेम न करने से अपने प्रेम का ”बरबाद कर देना” लुटा देना, कहीं अच्छा है। अपने दूसरे फ़तवे को लें तो कह सकते हैं कि किसी भी कलावस्तु की तीव्र अनुभूति न पाने के बदले किसी ऐसी कलावस्तु पर सच्चा स्नेह करना जो बाद में चाहे स्वयं हमको ही घटिया और अयोग्य प्रतीत होने लगे, कहीं अधिक वाञ्छनीय आैर इष्ट है। किसी पहाड़ी चित्रकार की एक निम्नकोटि की रचना पर, जिसके लिए सच्चा आदर हो, यह मिल्कियत लुटा देना अच्छा है, बनिस्बत इसके कि हम बिहज़ाद अथवा कहाद (अकबर के दरबार के दो प्रसिद्ध चित्रकार ) की किसी उत्कृष्ट रचना द्वारा, जो कि हमारे लिए कोई अर्थ न रखती हो, एक बड़ी धनराशि का उपार्जन कर लें। क्योंकि ”कलात्मक मूल्य” आैर ”आर्थिक मूल्य” दो बिलकुल विभिन्न चीज़ें हैं।
एक और बात है। जिसपर ध्यान दिया जाना चाहिए। हम यदि यह मानें कि कला एक ध्येय की ओर जाने का साधन है, स्वयं अपना ही उपादान नहीं, तब यह स्पष्ट ही है कि ध्येय अनेक आैर विभिन्न हैं, यद्यपि आलोचना की दृष्टि से उसके उपादान, साधन, सीमित आैर शाश्वत हैं। जैसे कि समतुलन, आकारांकन, एकता में अनैक्य अथवा विविधता में एकरसता इत्यादि इत्यादि।
सच तो यह है कि हम किसी ”कला” से आकृष्ट नहीं होते, बल्कि उसकी देन से, उससे जो वह हमें निवेदन करती है। वह देन क्या होती है? कई एक भावों, विचारों, अनुरागों की एक समष्टि। किसी कलाकार की सृष्टि का यदि थोड़ा मनन करें, तो हमें मालूम होगा कि कलाकार की सौंदर्य-मीमांसा किसी एक दिशा में अपेक्षाकृत अधिक सफल हो सकती है, दूसरी में नहीं। कलाकार की कारीगरी, उसका टेक्निकल कौशल तो अलग बात है, और उसका विवेचन भी अलग ही करना चाहिए। यद्यपि पाठक शायद इस विभेद को सहसा स्वीकार न कर सकें। परन्तु कलाकार के दो पहलुओं को, अर्थात् उसके एस्थेटिक और टेक्निकल पहलुओं को, अलग-अलग देखना ही समीक्षक के लिए अभीष्ट है।
कुछेक दृष्टांत दे देना उचित होगा। नीचे बताये सात चित्रों को मैंने बारी-बारी से अपने कुछ कलाप्रेमी मित्रों को दिया, और कहा कि मुझे बतायें कि वह उन्हें रुचे नहीं; यदि हाँ तो क्यों। सारांश कि इन चित्रों के प्रति उनकी क्या प्रतिक्रिया है। इस बात का यथेष्ट अवकाश उन्हें दिया गया कि अपने-अपने विचार ठीक-ठीक निर्धारित कर लें। उन्हीं प्रतिक्रियाओं में से कुछ उद्धरण यहाँ दे रहा हूँ। मेरा तात्पर्य यह नहीं है कि कला-समीक्षा की दृष्टि से इससे आगे कुछ कहा ही नहीं जा सकता। परन्तु ऊपर पूर्वग्रहों के अस्तित्व (आैर विशेषतया कलाप्रेमी में) के बारे में और तज्जन्य ज़िम्मेदारी के बारे में, जो कुछ कहा गया है, उसकी परिपुष्टि इन उद्धरणों से बखूबी हो जाती है। और मेरा विचार है कि ये प्रतिक्रियाएँ आैसत कला प्रेमी के विचारों को व्यक्त करती हैैं। समीक्षक की बात नहीं कर रहा, यद्यपि समीक्षा का काफ़ी पुट इन प्रतिक्रियाओं में पाया जाता है। परन्तु वह गौण रूप से आया है।
जो चित्र मैंने चुने उनके नाम यह हैं:-
चित्र चित्रकार
1. महलों की गुड़िया देवीप्रसाद रायचौधरी
2. रुधिर नन्दलाल बसु
3. दि स्पिरिट ऑव रॉक गगनेन्द्रनाथ ठाकुर
4. भयभीत शिकारी अज्ञात
5. अज़ान देवीप्रसाद रायचौधरी
6. सिंहल युद्ध अजन्ता का एक भित्तिचित्र
7. लाइट ऑव एशिया अथवा कनु देसाई
इन क्वेस्ट ऑव लाइट
(सत्य की खोज में)
यह सभी चित्र प्रसिद्ध हैं आैर विख्यात चित्रकारों के हैं, यह स्पष्ट है। प्रतिक्रियाओं से पता चलता है कि इनमें से हरेक को हम विभिन्न दृष्टिकोण से देख सकते हैं- कई तरह के पूर्वग्रह उनपर लागू कर सकते हैं- वी मे ऐप्रोच देम विथ प्रेजुडिसेज़ इन वेरियस डिरेक्शन्स- जैसे ‘भयभीत शिकारी’ में चित्रित ”कहानी” की तरफ कइयों का झुकाव हुआ। अपने मारे हुए हिरन पर सहसा कहीं से आकर सिंह का झपटना और शिकारी का सहमकर घोड़े की रास खींच लेना, ”शिकारी के चेहरे पर क्रोध, विस्मय, किंकर्तव्यविमूढ़ता और भय, इन सबका चित्रकार ने बड़ा ही स्वाभाविक चित्रण किया है ”। एक दूसरे मित्र को चित्र की कथावस्तु ”सबजेक्ट मैटर” कुछ ओछी सी लगी। और उन्होंने यह भी कहा कि यह चित्र ”पहली ही दृष्टि में अपना सबकुछ कह देता है, उसका भण्डार एकदम उँड़ेला जाकर बस समाप्त हो जाता है। यह इसका दोष ही है”। परन्तु यह मित्र इस चित्र के ”रंगों के सम्मिश्रण” ”हारमॅनी ऑव कलर्स” पर सचमुच ही मुग्ध हो गए। मुक़ाबिले में इन मित्र को ”इन क्वेस्ट ऑव लाइट” बहुत पसन्द आया। मुक्तकण्ठ से बोले ”मैं तो गान्धी-भक्त हूँ भाई, आैर फिर गान्धीजी एक महान् आत्मा हैं, उनका चित्र बनाना चाहिए ही, और वह स्वत: अच्छा होगा”। उनसे जब मैंने पूछा कि चित्रकार ने गान्धीजी की पीठ ही हमें क्यों दिखलाई है. और उन्हें हमसे अलग, दूर जाते हुए क्यों दिखलाया है, तो सिर खुजलाते हुए बोले कि ”इसपर विचार नहीं किया, पर गान्धीजी सचमुच ही ”लाइट ऑव एशिया”। मैंने टोका कि अगर चित्र का नाम ”पलायनशील भिखारी” या ”दरिद्रनारायण की पीठ” या ऐसा ही कुछ और रख दिया होता, तब भी आप इसे मूल्यवान समझते, या उसका कलात्मक महत्त्व आपके लिए कम हो जाता? ये सुनकर वे बहुत बिगड़े और बोले कि मैंने गान्धीजी का अपमान किया। (इन सज्जन की प्रतिक्रिया वैयक्तिक है, यह स्पष्ट है। टेकनीक और ध्येय के झमेलों में पड़ते नहीं दीखते ।) ”अजान” पर एक मित्र ने कहा कि ”मैं सनातनी हिन्दू होने के कारण इसपर राय नहीं दे सकता- गोया हिन्दू चित्रकार को अपने ही धर्म-सम्बन्धी विषय चुनने चाहिए! दूसरे ने कहा कि भला ऐसी मस्जिद किसी ने देखी है कभी! तीसरे सज्जन चित्र के रंगों पर मुग्ध थे, और उसके मोज़ेक पर। ”स्पिरिट ऑव द रॉक” एक सज्जन को केवल ”बैंगन के भुरते की याद दिलाता” था। दूसरे निष्पक्ष रहने का प्रयत्न करते हुए बोले कि महर्षि ठाकुर ने बनाया है इसलिए है अवश्यमेव अच्छी चीज़, पर मैं नहीं समझता। तीसरे मित्र को उसमें ”एक अपूर्व नैराश्य, पर साथ-ही-साथ एक दुर्दमनीय शक्ति, निहित दिखलाई दिये। इस चित्र को देखकर एक भव्य भाव मेरे मन में पैदा होता है, एक ठेस सी लगती है। शान्ति के लिए मन पिपासित हो उठता है आैर संसार के कोलाहलपूर्ण अन्यायों के प्रति विरोध जगाता है।”
”महलों की गुड़िया” को लेकर वादविवाद ही हो गया। ” भला ऐसे कपड़े कोई पहनता है? खासकर मुग़लों के ज़माने में !” ”चेहरे पर कोई भाव है ही नहीं, जैसे मुर्दा हो!” ”रंग तो ऐसे हैं शाहदरे का फ़र्श हो- मालूम होता है कि बनाने के बाद चित्रकार ने ऊपर कूचा फेर दिया हो। बिल्कुल फीका, ड्रैब! ऐसे महल को मुग़लों का महल कौन कहेगा? ” तात्पर्य यह कि जिन्हें पसन्द नहीं आया उन्होंने अपना असन्तोष कुछ कटुता के साथ ही प्रकट किया। अब चित्र के पक्ष में भी कुछ सुनिए। ”चित्रित बाला या स्त्री का चेहरा भावशून्य बनाने में ही कला है। चित्रकार प्रतीक से बतलाता है कि किस प्रकार महलों की बाहरी टक्षमटामवाले, पर आन्तरिक महत्त्व से विहीन, जीवन से अन्त में अपना व्यक्तित्व घुट मरता है। रंगों का ड्रैब बनाने में भी यही ध्येय निहित हैं, वस्त्राभूषण ढेरों हैं, पर आत्मा कुण्ठित हो गया है- उनका असर यही होता है कि सारा जीवन ही ड्रैब हो जाय। इस चित्र में जो वैषम्य हैं उनसे चित्रकार ने यही दिखलाया है। एक निस्सहाय आत्मा के कदर्य हनन का चित्रण करने में क्या वह भड़कीले रंग काम में लाता?” ”सिहलयुद्ध” के बारे में यही तय रहा कि ”हमारे बड़ों ने बनाई है। रंग बड़ी कुशलता से काम में लाये गये हैं आैर आजतक वैसे ही दीखते हैं, यह कमाल है। परन्तु भाव-भंगिमा नैसर्गिक नहीं, कुछ ज्यामितिक सी मालूम पड़ती है, आैर कुछ फोर्स्ड – सी।” किसी ने कहा कि ”चित्र की कथावस्तु बहुत बड़ी है, जैसे पूरा उपन्यास ही व्यक्त कर देने का प्रयत्न किया हो। ” ”हाँ भई, है अच्छा कलात्मक।”
”रुधिर” में एक सज्जन को स्त्री और पुरुष के पैरों के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखलाई दिया। ”और यह कोई बड़ी बात नहीं है।” दूसरे बोले कि ”मैं इस चित्र की ओर देख नहीं सकता -यह इतना भीषण है। इसमें मुझे सदियों से रौंदे जाते हुए गरीबों की असहाय चीत्कार, ह्मदयहीन नृशंस पूँजीपतियों द्वारा दूसरों को पददलित करने उनका रक्त शोषण करना, दीखता है। न मालूम यह पैर अभी कितना आैर भटकेंगे, किस-किसका मलीदा करेंगे! न भाई, यह मुझे और मत दिखलाओ।” तीसरे मित्र ने कहा कि ‘‘भला बवाई में से इतना खून निकल सकता है? अगर रक्त का फ़व्वारा न बनाकर एक पतली धार ही बनाई होती तो चित्रण को नैसर्गिक कहा जा सकता- यद्यपि तब भी अतिश्योक्ति कुछ रह ही जाती। परन्तु ताहम पैरों को ऐसी दक्षता से चित्रित करने पर मैं अभिनन्दन ही करूँगा।” (इन सज्जन को गरीबों का पददलित होना अथवा पूँजीपतियों का उन्हें दलित करना, दोनों ही बातें अप्रासंगिक लगीं और बोले कि ”चित्र देखकर आप यह नहीं निर्णय कर सकते कि पैर दलन करनेवाले के हैं या दलित के…..।” लेखक के अपने विचार में दोनों को ही इंगित करना चित्रकार को अभीष्ट था। खैर।
अब यह स्पष्ट हो गया होगा कि कला की समीक्षा या उसके प्रति प्रेम, पूर्णतया दर्शक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर निर्भर है। और मज़ा यह है कि यह सभी दृष्टिकोण ठीक होते हैं, चाहे उनमें आपस में एक दूसरे के साथ कितना ही मतभेद हो। कारण एक बार ऊपर इंगित कर चुका हूँ। द्रष्टा क्रियाशील तत्त्व होता है, और कलावस्तु उसके लिए अकर्मक लक्ष्य। अर्थात् कलावस्तु, कलाकार द्वारा उसके ध्येय की अभिव्यक्ति, केवल एक उद्दीपक है, जो देखने वाले के मन में विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ प्रवर्तित करती है। यह संभव है कि कलाकार का वास्तविक ध्येय कुछ और ही रहा हो, आैर दर्शक अपनी प्रतिक्रिया द्वारा उस ध्येय को महसूस ही न कर सका हो। इस परिस्थिति में इस दर्शक विशेष के लिए उस कलाकार की कला निष्फल है। यद्यपि यह सम्भव है कि कोई कुशल समीक्षक कलाकार के मूल ध्येय से ऐसे दर्शक को परिचित करा दे, और बाद में दर्शक का अभिप्राय बदल जाय। परन्तु हर हालत में दर्शक अगर कलाप्रेमी है तो उसका अधिकार है कि अपनी प्रतिक्रिया के निर्माण में किसी समीक्षक या अपने ही समीक्षक अंश की, सहायता ले या न ले- बशर्ते कि वह इस चुनाव में अपनी जि़म्मेदारी का भी कायल हो।
अब रही तीसरे फ़तवे की बात। ऊपर यह दिखाया गया है कि समीक्षक को पूर्वग्रह से दूर रहना चाहिए, जबकि कलाप्रेमी को उनका उपयोग करने की स्वाधीनता है- बल्कि कलाप्रेमी में पूर्वग्रह होने अवश्यम्भावी और कुछ हद तक वाञ्छनीय भी हैं। परन्तु जब हम स्वयं कलाकार ही को लेते हैं तब मैं यह कहूँगा कि उसके लिए पूर्वाग्रही होना अनिवार्य है, नहीं तो वह कलाकार ही नहीं है। अधिक-से-अधिक उसे कारीगर कहा जा सकता है।
कारीगर उसको कहते हैं जिसने इस बात की शिक्षा हासिल की हो कि किसी वस्तु विशेष का निर्माण किस प्रकार होता है। कारीगर की यह शिक्षा अतीत के कारीगरों के संचित अनुभव पर निर्धारित होती है। कला के कई ऐसे पहलू भी हैं जिनके सम्बन्ध में कलाकार को ऊपर लिखे अर्थ में ‘कारीगर’ कहा जा सकता है आैर उसे कारीगरी सिखलाई जा सकती है, जिसके फल-स्वरूप वह पहिले से अधिक कुशल टेक्नीश्यन हो जाए। परन्तु इस प्रकार की शिक्षा से ही जिसका जन्म हुआ हो वह कृति वास्तविक ”कला” नहीं कही जा सकती, आैर न यह शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद यही दावा किया जा सकता है कि कलाकार पहिले से उत्कृष्ट कला की रचना करने लगा है। क्योंकि कलाकार को अभ्यास ‘कराया’ नहीं जा सकता- वह केवल स्वयं ही अभ्यास ‘कर’ सकता है, क्योंकि सिर्फ़ उसे ही पता है कि वह क्या अभिव्यक्त करना चाहता है। दूसरे कलाकारों ने अपने-अपने ध्येय को अभिव्यक्त करते समय जो-जो साधन प्रयुक्त किये हैं उनको वह आज़माये भले ही, परन्तु अन्ततोगत्वा उस साधन का जो कलाकार के व्यक्तिगत, निजी, ध्येय तक उसे पहुँचाने में समर्थ हो, कलाकार को स्वयं ही निर्णय आैर संकलन —- कभी-कभी तो आविष्कार —- करना पड़ेगा। एक बार जब कलाकार को निश्चय हो जाय कि उसने ऐसा साधन पा लिया है, रास्ता खोज लिया है, तो उसे अडिग उसी पर चलना चाहिए। दर्शक को प्रशस्त-मना होने से जो लाभ होता है वह कलाकार को नहीं हो सकता। कलाकार के लिए तो विवेकशील, ‘अक्लमंद’ बनना अभीष्ट नहीं है। उसे दूसरों का दृष्टिकोण समझने की आवश्यकता नहीं (यद्यपि अगर समझ ले तो कोई हानि नहीं, परन्तु लाभ कदापि नहीं हो सकता, अतएव ऐसा प्रयास व्यर्थ काल (समय) का अपव्यय होगा)। कलाकार को अपने ही धर्म का ‘अंध अनुयायी’ होना पड़ता है, क्योंकि उसके लिए यह केवल विवेक –रीज़्न– का प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न है उसके समूचे व्यक्तित्व का, उसके तन आैर मन का, उसकी आत्मा का। यही कारण है कि कलाकारों की आलोचनाएँ पक्षपातपूर्ण होती हैं, जैसा कि उनकी उक्तियों से स्पष्ट दीख जाता है।
हर एक कलाकार अपने निमित्तों की परिभाषा कर सकता है, कि वह कोई काम क्यों कर रहा है। कुछ हद तक वह उन निमित्तों का प्रतिपादन भी कर सकता है। परन्तु जिन-जिन स्थलों पर वह वास्तविक कलाकार है, कारीगर नहीं, वहाँ वह अपना वास्तविक निमित्त कभी नहीं हो सकता। क्योंकि यह वास्तविक निमित्त क्या है? वह यही है कि ” जो कुछ मैं कर रहा हूँ वह इसीलिए कि मैं एक विशिष्ट प्रकार का व्यक्ति हूँ। मैं जो हूँ सो हूँ; और मेरे लिए ऐसा करना ही नियति है। जो मैं बनाता हूँ वही बना सकता हूँ, क्योंकि मेरा निर्माण ही उसे बनाने के लिए हुआ था। मेरी रचना मेरे समूचे व्यक्तित्व का अवश्यम्भावी नतीजा है।”
कलाकर का या निमित्त हमें शायद् विशेष सन्तोषप्रद न लगे। परन्तु सच सिर्फ़ यही है। इसके वास्तविक अर्थ और महत्त्व का यदि अनुभव करना चाहें तो मुकाबिले में कारीगर के निमित्तों पर विचार कीजिये। कारीगर कोई प्रक्रिया करता है, इसलिए कि उसे वैसा करना सिखलाया गया है। उसका हस्तलाघव और दाक्षिण्य इसी में है कि वह उन पूर्वनिर्धारित प्रक्रियाओं को अधिकतर सफ़ाई आैर झड़प से कर सके। परन्तु यदि कारीगर में भी कहीं कलाकार का अंश छिपा बैठा हो तो वह भी अपनी प्रक्रियाओं को करने के नवीन आैर ‘बेहतर’ तरीक़ों की तलाश में रहेगा। चाहे उन्हें बेहतर समझने में वह अकेला ही हो। परन्तु इस नवीनता की खोज में, इस गुणाधिक्य की शोध में, कारीगर के सबसे बलवान विरोधी होंगे उसके अपने ही भाई-बन्धु, उसी के जैसे अन्य सहचर-व्यवसायी। क्योंकि कारीगरी का सबसे बड़ा और मुख्य गुण यही है कि उसमें गतानुगतिकता की मात्रा अत्यधिक होती है।
कला का कोई भी सत्य, वास्तव में कलाकार की आत्मा का सत्य है। वह सत्य जितना भी व्यापक हो उतना ही उत्कृष्ट कहा जायगा। परन्तु यह व्यापकता प्रधान वस्तु नहीं है। मुख्य बात है कलाकार की अपने हेतु, अपने ध्येय, के प्रति सचाई, आैर उस तक पहुॅंचने मे उसकी अपेक्षाकृत सफलता।
-वर्ष 1946 में “हिंदी साहित्य परिषद् ,
मेरठ द्वारा प्रकाशित पुस्तक
“आधुनिक- हिंदी- साहित्य : भाग दो ” से साभार