पाकिस्तान स्थित बुतकारा बौद्ध स्तूप

भगवान् बुद्ध अथवा बौद्ध धर्म की चर्चा जब कहीं होती है, तो इससे जुड़े स्तूप या विभिन्न स्तूपों के बारे में बातें भी होती ही हैं। इन स्तूपों के इतिहास की बात करें तो स्तूप एक तरह का स्मृति अवशेष है, जिसे बौद्ध मान्यताओं में तीर्थस्थल के तौर पर देखा जाता है। स्तूप में किसी पवित्र या संत व्यक्ति के अस्थि -अवशेष या उनसे जुडी कलाकृतियों व सामग्रियों को रखा जाता है । भारत में 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के पहले से इसके चलन के प्रमाण मिलते हैं। भगवन बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद उनके अस्थि – अवशेषों व उनके द्वारा उपयोग में लायी जानेवाली वस्तुओं को रखकर स्तूप बनाये गए। वैसे तो विवरण मिलता है कि प्राचीन काल में श्मशान से राख या अस्थिकण को एकत्रित कर भस्मपात्र में रखते थे। उसी के ऊपर एक समारक तैयार किया जाता था, जो साहित्य में स्तूप के नाम से उल्लिखित मिलता है । वहीँ बौद्ध साहित्य के अध्ययन से भी विदित होता है कि बुद्ध को भी इस प्रथा की जानकारी थी। कतिपय इन्हीं कारणों से उन्होंने अपने शरीर अवशेष पर स्तूप निर्माण की चर्चा आनंद से की थी । जिसका विवरण महापरिनिव्वान सुत्त में मिलता है। शव के अवशेष पर स्तूप-निर्माण की चर्चा महावंश में भी की गयी है। भारतीय कला में जहाँ भी स्तूप का विवरण या अंकन है, सर्वत्र उसकी पूजा का क्रम दिखलाया गया है। बौद्ध धर्म की प्रारंभिक अवस्था में भगवान बुद्ध के चार प्रधान प्रतीक थे- 1.जन्म का प्रतीक हठी, 2. ज्ञान का प्रतीक बोधिवृक्ष ,3. धर्मचक्र का प्रतीक चक्र तथा 4. परिनिर्वाण का प्रतीक स्तूप। हीनयान में तो इन प्रतीकों का समादार ही सर्वश्रेष्ठ पूजा समझा जाता था।

सम्राट अशोक से पहले पूर्व निर्मित स्तूपों की क्या दशा थी, यह कहना तो मुश्किल है। किन्तु कलात्मक उदाहरणों से तो यही कहा जा सकता है कि बुद्ध के अवशेष पर ही स्तूप बने थे। अशोक ने उन निर्मित स्तूपों से से राख का अंश निकालकर नए स्तूपों का निर्माण किया। ह्वेनसांग ने भी ऐसा ही विवरण दिया है, महावंश में तो अशोक द्वारा निर्मित चौरासी हज़ार स्तूपों का उल्लेख पाया जाता है। इन चौरासी हज़ार स्तूपों की पूजा से धर्म का व्यापक प्रसार होगा, ऐसी भावना संभवतः इसके पीछे रही होगी। बाद में आगे चलकर इस स्तूप निर्माण की परंपरा में कुछ बदलाव भी आते गए, जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि चार तरह के स्तूप बनाने लगे। इनमें से पहला प्रकार था -1. शारीरिक: इस श्रेणी में उस स्तूप को रखा जाता है, जिसका निर्माण बुद्ध के अवशेष पर किया गया; 2. उद्देशिका: इसके तहत किसी विशेष प्रयोजन को लेकर बनाये गए स्तूप । साँची स्थित सारपुत्र का स्तूप इसका उदाहरण है ; 3. पारिभोगिक: तथागत के दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं पर निर्मित स्तूप ; 4. वृतानुष्ठित:  इस चौथे और अंतिम प्रकार से आशय है कि ऐसा स्तूप जो मन्नत का चढ़ावा हो। किसी की मन्नत मान लेने पर या इच्छा की पूर्ति होने पर उपासक किसी बड़े स्तूप के इर्द गिर्द चरों तरफ मिटटी के छोटे स्तूप बनाया करते थे। तक्षशिला, सारनाथ या नालंदा के प्रधान स्तूप के चरों तरफ इसी प्रकार के मन्नत वाले स्तूप दीखते हैं।

मौर्य युग में स्तूप की पवित्रता को बचाने के लिए स्तूप के चरों तरफ गोलाई में तीन या चार फ़ीट की दूरी पर एक वेदिका बनायीं गयी थी, जो बांस की बनी हुयी थी। इस वेदिका के भीतर सर्वसाधारण का प्रवेश वर्जित था। संभवतः बाहरी अपवित्र संसार से स्तूप की पवित्रता को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से ही  वेदिका का निर्माण किया गया होगा। बाद में, बौद्ध अर्हतों (संतों), बोधिसत्वों (प्रबुद्ध लोगों), अन्य संतों या स्थानीय देवताओं का सम्मान करने के लिए भी स्तूप बनाए गए। एक स्तूप एक अर्धगोलाकार संरचना है, जिसके शीर्ष पर एक शिखर होता है, जो कभी-कभी एक आधार पर स्थित होता है जो आकार और प्रकार में भिन्न होता है जो आगंतुकों के लिए पैदल मार्ग से घिरा होता है। कुछ स्तूप, जैसे भारत में  सांची, भरहुत, अमरावती इत्यादि या काठमांडू, नेपाल में बौद्धनाथ स्तूप का ज़िक्र तो हम सुनते ही आये हैं।

यहाँ आज हम चर्चा करेंगे मौजूदा पाकिस्तान में स्थित बुतकारा स्तूप की। बुतकारा स्तूप वर्तमान  पाकिस्तान के स्वात क्षेत्र में मिंगोरा के पास अवस्थित है। इसे मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाया गया माना जाता है जिसे दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से थोड़े बाद में बनाया गया होगा। बाद की शताब्दियों के दौरान इस स्तूप को पांच अवसरों पर बढ़ाया गया था ऐसा पुराविदों का मानना है। पेशावर विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पुराविद अब्दुर रहमान का मानना है कि इस स्तूप का मूल नाम तो विस्मृत हो चूका है। किन्तु आज इसे जिस बुतकारा के नाम से जाना जाता है उस शब्द का रिश्ता फ़ारसी भाषा के शब्द बुत्कदा से रहा होगा; जिसका अर्थ है बुतों का घर या स्थान। 1947 के देश विभाजन के पश्चात् इस स्तूप की खुदाई एक इतालवी मिशन द्वारा की गई थी, जिसका नेतृत्व पुरातत्वविद् डोमेनिको फेसेना ने 1956 से किया था, ताकि इसके निर्माण और विस्तार के विभिन्न चरणों को स्पष्ट किया जा सके। इस मिशन की रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान हेलेनिस्टिक वास्तुशिल्प सजावट के अलावा स्तूप को “स्मारकीकृत” भी किया गया था। जिसे ग्रीको-बौद्ध वास्तुकला का अनुपम उदाहरण कहा जा सकता है। यह उस अवधि के दौरान उत्तर-पश्चिमी भारत के भारतीय-यूनानी शासकों की प्रत्यक्ष भागीदारी का प्रमाण भी उपस्थित करता है। बारीकोट के पास के हेलेनिस्टिक किलेबंदी को भी इसका समकालीन माना जाता है। यहाँ से बड़ी मात्रा में प्राप्त कलाकृतियों को ओरिएंटल कला के राष्ट्रीय संग्रहालय में संरक्षित किया गया है।

वर्ष 1956 के बाद दो अन्य अवसरों पर अब्दुर रहमान की देखरेख में इस स्थान की पुनः खुदाई की गयी। पहला चरण चला नवंबर दिसंबर 1982 एवं दूसरा चरण 1985 के मई से अक्टूबर तक। एक विस्तृत खुले प्रांगण में मिले संरचनात्मक अवशेषों में मुख्य रूप से दस स्तूप शामिल हैं, जिनमें से आठ को मंदिरों के सामने दो समानांतर पंक्तियों में रखा गया है, जबकि शेष दो को सममित रूप से पंक्तियों से थोड़ा बाहर रखा गया है- एक-एक परिसर के दक्षिणी और उत्तरी किनारों पर। ये स्तूप आकार में चौकोर हैं और ऊंचाई में दो अलग-अलग चरण दिखाते हैं। इस साइट के संरचनात्मक अवशेषों के सबसे दिलचस्प पहलू को इसके भूमिगत कक्षों या मंदिरों द्वारा दर्शाया गया है, जिनमें से छह अब तक उजागर हो चुके हैं। गांधार क्षेत्र में अब तक खोजे गए अपनी तरह के ये पहले ऐसे तीर्थस्थल हैं जो हमें दिखाते हैं कि बुतकारा के बौद्धों ने स्वात की गीली जलवायु को देखते हुए, अधिक भव्य रूप से सजाए गए स्तूपों और मिट्टी की मूर्तियों के लिए एक ढके हुए स्थान की समस्या का सफलतापूर्वक निदान कैसे निकाला। यहाँ से प्राप्त प्रतिमाओं की बात करें तो इन्हें गांधार मूर्तिकला शैली के अनुपम उदाहरण के तौर पर हम रख सकते हैं। जिनमें से अधिकांश पेशावर संग्रहालय में संग्रहित हैं। दुर्भाग्य से दोनों देशों के बीच आज जो राजनैतिक हालात बने हुए हैं, उसमें इनका विस्तृत अध्ययन भारतीयों के लिए निकट भविष्य में संभव तो नहीं ही जान पड़ता है।

-सुमन कुमार सिंह

*तस्वीरें पुरावेत्ता अब्दुर रहमान के पृष्ठ से सादर साभार । 

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