बड़े आकार की धातु प्रतिमाओं का इतिहास और वर्तमान

इतिहास की पुस्तकें हमें बताती हैं कि लगभग पांचवी सदी के आसपास तक मगध धातुमूर्तिशिल्प निर्माण का बड़ा केंद्र बन चूका था। इससे संबंधित साक्ष्य के तौर पर आज देश-दुनिया के विभिन्न संग्रहालयों में अनेक प्रतिमाएं उपलब्ध हैं। किन्तु बात अगर आकार की करें तो संभवतः सबसे बड़ी ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमा होने का गौरव उस धातु प्रतिमा को है जिसे दुनिया “सुल्तानगंज बुद्ध” के तौर पर आज जानती है। अलबत्ता इस प्रतिमा के निर्माण काल को लेकर पुराविदों की राय अलग-अलग हैं, एक धारणा तो यही है कि यह प्रतिमा गुप्त काल के पराभव और पाल काल के उदय के आसपास यानी 500 और 700 ईस्वी के बीच की है। 2.3 मीटर ऊँचे और 1 मीटर चौड़े इस प्रतिमा का वजन 500 किलोग्राम से अधिक है। वर्ष 1861 में ईस्ट इंडियन रेलवे के निर्माण के दौरान वर्तमान भागलपुर के सुल्तानगंज नामक स्थान के पास इसे पाया गया था। वर्तमान समय में बर्मिंघम संग्रहालय, बर्मिंघम, इंग्लैंड में संग्रहित है। बात गुप्त काल की मूर्तिकला की करें उस दौर की बड़े आकार की प्रस्तर प्रतिमाएं तो पहले भी मिलती रहीं थी। किन्तु धातु में निर्मित इस आकार की दूसरी किसी प्रतिमा की जानकारी अभी तक तो नहीं ही है। हालाँकि इस बुद्ध प्रतिमा की प्राप्ति के दशकों बाद वर्ष 1929 में वर्तमान सिंध, पाकिस्तान की मीरपुर-खास से जो ब्रह्मा की धातु प्रतिमा मिली है, उसका निर्माण काल पांचवी सदी यानी गुप्तकाल माना जा रहा है। इस तरह से ब्रह्मा की मीरपुर-खास वाली धातु प्रतिमा सुलतानगंज बुद्ध से पुरानी है, लेकिन आकार में यह लगभग आधी ही है।

विभिन्न स्थानों से भी जो कुछ जैन या अन्य प्रतिमाएं इससे पुरानी मिली हैं , वे आकार में अपेक्षाकृत बहुत छोटे हैं, जिनके बारे में अनुमान है कि ये समृद्ध घरों की पूजाघरों में रहे होंगे या उनके निमित्त निर्मित रहे होंगे।  ललितपुर, नेपाल के एक मठ में लगभग 9वीं या 10वीं शताब्दी के नेपाली बनावट और शैली वाली लगभग 1.8 मीटर लम्बी ताम्बे से बानी एक अन्य बुद्ध प्रतिमा भी है। अनुमान है कि सुल्तानगंज बुद्ध को मूल रूप से किसी निश्चित स्थान पर स्थापित किया गया होगा। और निश्चित ही उस दौर में यह स्थान कोई बड़ा बौद्ध केंद्र रहा होगा।  सुल्तानगंज की इस प्रतिमा को शैली के आधार पर सारनाथ के प्रस्तर बुद्ध प्रतिमा से थोड़ा पहले का माना गया है। ताम्बे की इस सुल्तानगंज बुद्ध प्रतिमा को, लॉस्ट वैक्स प्रोसेस यानी मोम को गलाकर ढाला गया है। इसकी कास्टिंग यानी ढलाई के क्रम में मोम से बने सांचे के अंदर धान की भूसी और मिटटी भरा गया होगा। बुद्ध की यह आकृति “निर्भीक मुद्रा” में खड़ी है, जिसमें दाहिना हाथ अभयमुद्रा (आश्वासन या सुरक्षा का एक इशारा) में उठा हुआ है, और बायाँ हाथ नीचे की ओर हथेली के साथ बाहर की ओर है। विदित हो कि इस तरह की मुद्रा का अभ्यास अभी भी बौद्ध धर्म के थेरवाद संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा किया जाता है।

अब मूर्ति के विशाल आकार का मतलब है कि “सुल्तानगंज बुद्ध की ढलाई करने वाले कारीगरों या मूर्तिकारों ने अपनी तकनीकी क्षमताओं का भरपूर प्रदर्शन किया होगा। इस प्रतिमा को मूल रूप से गुप्त काल की माननेवालों में विंसेंट आर्थर स्मिथ भी थे जिन्होंने 1911 में लिखी अपनी एक पुस्तक में इसका काल लगभग 400 ईस्वी निर्धारित किया था। हालाँकि रेडियोकार्बन डेटिंग के परिणाम 600-650 का सुझाव देते हैं, किन्तु संग्रहालय अभी भी इसे 500-700 ईस्वी वर्णित करना ही पसंद करता है।

बताते चलें कि रेलवे इंजीनियर ई.बी. हैरिस ने रेलवे स्टेशन के लिए चल रहे खुदाई के दौरान इस बुद्ध प्रतिमा की खोज की थी। हैरिस ने इस प्रतिमा को बर्मिंघम भेजा, और तब इसके परिवहन का खर्च उठाया था सैमुअल थॉर्नटन ने जो बर्मिंघम के पूर्व महापौर थे। थॉर्नटन ने 1864 में अपने प्रस्तावित कला संग्रहालय में इस प्रतिमा को रखे जाने की पेशकश की थी । 1998 से 2015 तक, या बुद्ध प्रतिमा बर्मिंघम संग्रहालय और आर्ट गैलरी में दर्शकों के आकर्षण का केंद्र था। 2015 में सुल्तानगंज बुद्ध को अपने पिछले स्थान से स्थानांतरित कर दिया गया। इसे अब एक नई गैलरी में प्रदर्शित किया गया है।

अब बात एक दूसरी चर्चित धातु प्रतिमा की जिसे पिछली सदी में बनाया गया था। इस प्रतिमा की कहानी भारत के आज़ादी के आंदोलन से जुड़ा है। 1942 की अगस्त क्रांति के दौरान 11 अगस्त को पटना सचिवालय में जो घटना घटी वह पूरे देश के लिए चकित कर देने वाली थी। सचिवालय पर झंडा फहराने की कोशिश में सात स्कूली छात्र एक-एक कर ब्रिटिश पुलिस की गोलियों के शिकार हो गये। अपने झंडे की शान के लिए जान देने वाले इन निहत्थे छात्रों की याद में आज पटना विधानसभा के सामने शहीद स्मारक बना हुआ है। इस शहीद स्मारक की आधारशिला 15 अगस्त 1947 को बिहार के राज्यपाल श्री जयराम दास दौलतराम द्वारा बिहार के प्रधान मंत्री “बिहार केशरी” डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा और उनके डिप्टी श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा की उपस्थिति में रखी गई थी। मूर्तिकार देवी प्रसाद रायचौधरी ने राष्ट्रीय ध्वज के साथ सात छात्रों की इस कांस्य प्रतिमा का निर्माण किया।

विकिपीडिया के अनुसार तकनीकी कारणों से इन कांस्य प्रतिमाओं की ढलाई इटली में की गयी थी और बाद में यहाँ स्थापित की गईं। किन्तु अपनी पुस्तक “पटना: खोया हुआ शहर “ में वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिंह जी लिखते हैं:- “एक साथ कांसे की इतनी मूर्तियों का संयोजन भारत में संभवतः इसके पहले कहीं नहीं हुआ था। साथ ही कांसे की ढलाई का काम भी पहली बार हो रहा था। सो कला जगत में इसकी चर्चा होने लगी । इस खबर ने देवघर स्थित “युगांतर” बांग्ला दैनिक के संवाददाता श्री राधिका रॉयचौधरी का भी ध्यान आकृष्ट किया। वे पटना आये। उन्होंने शहीद स्मारक की निर्माण प्रक्रिया देखी और उसकी एक बड़ी ही रोचक रपट लिखी। यह रपट 24 अक्टूबर, 1956 ई. के युगांतर में छपी थी। “ राधिका रॉयचौधरी के शब्दों में –“इसके पूर्व भी देवी बाबू ने बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनायीं हैं। वे सारी विदेशों से ढलकर आती थीं । पहली बार इतनी विशाल मूर्ती को उन्होंने अपने सामने एक लगभग नामालूम कारीगर से ढलवाया है। जी. मुसलामुनी अभी तक छोटे-छोटे खिलौने की ढलाई का काम ही किया करते थे। देवीप्रसाद ने उनका काम देखा था। उनकी योग्यता देखकर उसे अपने निर्देशन में इतने महत्वपूर्ण काम करने का सुअवसर दिया।”

अब ऐसे में सवालों की गुत्थी यहाँ उलझती है कि लगभग पांचवीं सदी में धातु मूर्तिशिल्प निर्माण की जो तकनीक हमारे पास रही थी। बाद के वर्षों में ऐसा क्यों और कैसे हुआ की पिछली सदी के पूर्वार्ध तक हम बड़ी प्रतिमाओं की ढलाई के लिए यूरोप पर निर्भर रहे। अलबत्ता तब जिन जी. मुसलामुनी ने ढलाई के जिस काम को अंजाम दिया वे पारम्परिक देशी तकनीक से ही परिचित थे। जो आज भी अपने देश के परंपरागत मूर्तिशिल्पियों द्वारा अपनाये जाते हैं। हमारे आदिवासी समाज के एक बड़े हिस्से में इसे डोकरा या ढोकरा शैली के नाम से जाना जाता है। अब आज के हालिया वर्षों में धातु मूर्तिशिल्प के जो दो विशाल प्रतिमाएं तैयार हुईं हैं, उनमें से एक है सरदार बल्लभ भाई पटेल की वह प्रतिमा जिसे हम “द स्टेचू ऑफ़ यूनिटी” और दूसरी प्रतिमा है संत रामानुज की जिसे नाम दिया गया है “स्टेचू ऑफ़ इक्वलिटी”।  इन दोनों की ढलाई चीन में ही हो पायी, क्योंकि हमारे यहाँ अभी तक इस तरह के विशाल आकार की प्रतिमाओं की ढलाई संभव नहीं मानी जा रही है। तब तक तो हम यही उम्मीद करें कि शायद आनेवाले वर्षों में यह संभव हो जाए।

-सुमन कुमार सिंह

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