भोजशाला और वाग्देवी प्रतिमा

भोजशाला, राजा भोज द्वारा निर्मित संस्कृत अध्ययन का केन्द्र तथा देवी सरस्वती का मन्दिर था। बीसवीं सदी के आरम्भिक दिनो से मध्य प्रदेश के धार में स्थित वर्तमान भोजशाला को विवादित कामिल मौला मसजिद माना जाने लगा है। सरस्वती का यह भव्य मंदिर पूर्व कि ओर मुख किये हुए बहुमंजिला आयताकर भवन है जो अपने वास्तुशिल्प के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है।

भोजशाला वर्तमान में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में एक पुरातात्विक स्थल है, लेकिन पिछली शताब्दी से यह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विवादित स्थल बन गया । 19वीं शताब्दी के बाद की खोज से जानकारी मिलती है कि यह मध्यकाल में हिंदू और जैन धर्म का केंद्र रहा होगा। भोजशाला के आसपास चार सूफी संतों के मकबरे भी हैं। हॉल एवं मंदिर के खंभों को 1390 ईस्वी के आसपास बनाया गया था, जबकि कमाल अल-दीन मलावी (1238 – 1330) का मकबरा थोड़ा पुराना है। मुसलमान शुक्रवार की नमाज और इस्लामी त्योहारों के लिए इमारत का उपयोग करते हैं, जबकि हिंदू मंगलवार को प्रार्थना करते हैं। हिंदू भी वसंत पंचमी त्योहार पर स्थल पर देवी सरस्वती से प्रार्थना करना चाहते हैं, और यह हिंदू-मुस्लिम तनाव की वजह तब बन जाता है जब कभी वसंत पंचमी शुक्रवार को पड़ती है।

मध्य भारत में लगभग 1000 और 1055 के बीच शासन करने वाले राजा भोज को भारतीय परंपरा में एक असाधारण राजा माना जाता है। राजा भोज के प्रश्रय में कला, दर्शन, खगोल विज्ञान, व्याकरण चिकित्सा, योग, वास्तुकला और अन्य विषयों पर बड़ी संख्या में ग्रंथों की रचना भी की गयी। “समरांगण सूत्रधार” जिसे कभी-कभी समरंगशस्त्रधारा के रूप में भी जाना जाता है, संस्कृत भाषा में लिखी गई शास्त्रीय भारतीय वास्तुकला (वास्तु शास्त्र) पर 11 वीं शताब्दी का एक काव्य ग्रंथ है, जिसका श्रेय धार के परमार राजा भोज को ही दिया जाता है। यह ग्रन्थ उन कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों में से है जिसमें उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू मंदिर वास्तुकला के सिद्धांत और निर्माण तकनीक की चर्चा है। इसके अध्यायों में टाउन प्लानिंग, हाउस आर्किटेक्चर, आइकॉनोग्राफी, पेंटिंग (चित्र), और मूर्तिकला कला (शिल्प) पर चर्चा भी शामिल है।

विवरण मिलता है कि राजा भोज ने भोजपुर में एक शिव मंदिर का निर्माण शुरू किया। यदि यह उस सीमा तक पूरा हो गया होता जिस हद तक उन्होंने योजना बनाई थी, तो मंदिर खजुराहो समूह के स्मारकों में हिंदू मंदिरों के आकार से दोगुना होता। मंदिर आंशिक रूप से पूरा हो गया था, और अभिलेखीय साक्ष्य पुष्टि करते हैं कि भोज ने ही इन हिंदू मंदिरों की स्थापना और निर्माण किया था। महाराजा भोज को माँ सरस्वती का वरदपुत्र कहा जाता था। उनकी तपोभूमि धारा नगरी में उनकी तपस्या और साधना से प्रसन्न हो कर माँ सरस्वती ने स्वयं प्रकट हो कर दर्शन दिए। माँ से साक्षात्कार के पश्चात उसी दिव्य स्वरूप को माँ वाग्देवी की प्रतिमा के रूप में अवतरित कर भोजशाला में स्थापित करवाया जहाँ पर माँ सरस्वती की कृपा से महराजा भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की। उनकी अध्यात्मिक, वैज्ञानिक, साहित्यिक अभिरुचि, व्यापक और सूक्ष्म दृष्टी, प्रगतिशील सोच उनको दूरदर्शी तथा महानतम बनाती है। महाराजा भोज ने माँ सरस्वती के जिस दिव्य स्वरूप के साक्षात् दर्शन किये थे उसी स्वरूप को महान मूर्तिकार मंथल ने निर्मित किया। भूरे रंग के स्फटिक से निर्मित यह प्रतिमा अत्यन्त ही चमत्कारिक, मनोमोहक एव शांत मुद्रा वाली है, जिसमें माँ का अपूर्व सोंदर्य चित्ताकर्षक है। ध्यानस्थ अवस्था में वाग्देवी कि यह प्रतिमा विश्व की सबसे सुन्दर कलाकृतियों में से एक मानी जाती है।

माँ सरस्वती का प्रकाट्य स्थल भोजशाला हिन्दू जीवन दर्शन का सबसे बड़ा अध्यन एवं प्रचार प्रसार का केंद्र भी था जहाँ देश विदेश के लाखों विद्यार्थियों ने 1400 प्रकाण्ड विद्वान आचार्यो के सानिध्य आलोकिक ज्ञान प्राप्त किया । इन आचार्यो में भवभूति, माघ, बाणभट्ट, कालिदास, मानतुंग, भास्करभट्ट, धनपाल, बौद्ध संत बन्स्वाल, समुन्द्र घोष आदि विश्व विख्यात है। महाराजा भोज के पश्चात अध्यन अध्यापन का कार्य 200 वर्षो तक निरन्तर जारी रहा।

माँ के प्रकाट्य स्थल पर सैकड़ों वर्षो से आराधना, यज्ञ, हवन, पूजन एवं तपस्वियों की साधना से भोजशाला सम्पूर्ण विश्व में सिद्ध पीठ के रूप में आस्था और श्रद्धा का केंद्र है। 1269 इसवी से ही इस्लामी आक्रंताओ ने अलग अलग तरीको से योजना पूर्वक भारत वर्ष के इस अध्यात्मिक और सांस्कृतिक मानबिंदु भोजशाला पर आक्रमण किया जिसे तत्कालीन हिन्दू राजाओ ने विफल कर दिया। इन्हीं परिस्थितियों के बीच 1305 में दिल्ली के बर्बर शासक अलाउद्दीन खिलजी ने परमारो के अभेद माने जाने वाले मालवा राज्य पर आक्रमण किया और यहां के मठ मंदिरों और पूजा स्थलों को ध्वस्त किया। हमले को रोकने के लिए राजा महलक देव और उनके सेनापति गोगादेव ने अंतिम क्षण तक संघर्ष किया। भोजशाला के आचार्य और विद्यार्थियों ने भी खिलजी की सेना का प्रतिकार किया किंतु दुर्भाग्यवश वह युद्ध में पराजित हो गए। खिलजी ने 1200 से अधिक विद्वानों और छात्रों को बंदी बना लिया। खिलजी ने उनके सामने यह प्रस्ताव रखा कि या तो धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन जाओ या मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ। माना जाता है कि जिन लोगों ने धर्म परिवर्तन करने से इंकार कर दिया उनका सामूहिक वध कर उनके शवों को भोजशाला के यज्ञ कुंड में ही फेंक दिया और जो भीरु प्रवृत्ति के लोग थे वे धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बन गए। इसके बाद उसने पूरी भोजशाला को तहस-नहस कर दिया। मां सरस्वती की मूर्ति को भी उसने खण्डित कर धरती में गाड़ दिया।

इसके लगभग 1 शताब्दी बाद 1401 में दिलावर खान गोरी ने अपने शासनकाल के दौरान भोजशाला में स्थित सरस्वती माता के मंदिर पर हमला करके इसके एक भाग को मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया। गोरी के बाद महमूद शाह खिलजी ने 1514 में भोजशाला को खंडित कर यहां एक ओर मस्जिद बनाने का प्रयास किया गया। महमूद शाह के इस दुस्साहस का राजपूत सरदार मेदिनी राय ने प्रबल उत्तर दिया। मेदिनी राय ने वनवासियों की सेना संगठित कर महमूद शाह पर आक्रमण किया। इस युद्ध में महमूद शाह के हजारों सैनिक मारे गए और लगभग 900 सैनिकों को बंदी बना लिया गया। इस पराजय से भयभीत होकर महमूद शाह गुजरात की ओर भाग गया।

तत्पश्चात 1902 में इस वाग्देवी की प्रतिमा को मेजर किनकैड अपने साथ इंग्लेंड ले गया, जो, आज भी लन्दन संग्रहालय में कैद है। 1961 में इतिहासकार डॉ.विष्णु श्रीधर वाकणकर लंदन गए और प्रतिमा का निरीक्षण करके आए। उसके बाद उन्होंने यह प्रमाणित किया कि यह वही प्रतिमा है जिसे अंग्रेज भारत से अपने साथ ले गए थे।

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