हिंदी कला लेखन की बात करें तो विगत चार -पांच दशकों से भी अधिक समय से सक्रिय नामों में से एक हैं अपने वरिष्ठ कलाकार अखिलेश निगम जीIविभिन्न पत्र पत्रिकाओं से लेकर ललित कला अकादमी की पत्रिका समकालीन कला में भी उनके आलेख प्रकाशित होते रहे हैं Iकला शिक्षक के तौर पर अपनी सेवा निवृति के बाद भी उनकी यह सक्रियता बरक़रार है Iइतना ही नहीं पिछले कुछ दिनों से उनकी सक्रियता ने एक खास अंदाज़ अपनाया है Iवह है नियमित तौर पर उत्तर प्रदेश के कालजयी कलाकारों और उनकी स्मृतियों को वर्तमान पीढ़ी तक पहुँचाने का Iदेखा जाए तो यूं तो यह ज़िम्मेदारी कला संस्थानों और अकादमियों का बनता है Iकिन्तु इन संस्थानों और अकादमियों की कार्य प्रणाली से हम सब किसी ना किसी रूप में वाकिफ ही हैं Iबहरहाल सुखद बात यह है कि उनके इस प्रयास ने प्रदेश के कला जगत में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार किया है Iयहाँ प्रस्तुत है अपने कलागुरु आचार्य मदन लाल नागर जी की 36वीं पुण्य तिथि पर उनकी स्मृतियों को नमन करता उनका यह आलेखI
जो उन्होंने likhiyaart.blogspot.com के लिए लिखा था I साथ में प्रस्तुत है इस स्मृति आयोजन के क्रम में अपने फेसबुक पेज पर साझा की गयीं उनकी कुछ टिप्पणियां …
Akhilesh Nigam
किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाना आसान नहीं, खासकर कला के क्षेत्र में, जहां प्रतिस्पर्धा कुछ ज्यादा ही है। लेकिन लखनऊ के चित्रकार मदन लाल नागर एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने प्रतिस्पर्धा की इस कड़ी दौड़ में अपने काम की एक अलग पहचान बना ली थी। यह बड़ी बात थी, पर 27 अक्टूबर का वह दिन उनकी इस दौड़ का आखिरी दिन बन गया था, जब दिल के अचानक दौरे से वे दिवंगत हो गए थे। श्री नागर उस समय लगभग दो दशक से भी ज्यादा समय से अपने कैनवास पर शहर को रूपायित कर रहे थे। उनका यह शहर… वह लखनऊ ही था, जहां वे जन्में (1923), पले और जहां कला शिक्षा हासिल कर एक शिक्षक के रूप में उसे विस्तार दिया।
नागर जी का एक रेखांकन
पांचवें दशक के बाद से जो नया `लखनऊ` बनने लगा था, चाहे वह वास्तुकला की दृष्टि से हो या सभ्यता की दृष्टि से, वह ऐसा बदलाव ला रहा था…जिसे लखनऊ वाले ही नहीं दूसरे लोग भी महसूस कर रहे थे। शहर की मिट्टी की सुगंध का यह बदलाव कलाकार नागर ने भी अंदर तक महसूस किया था। उनके कैनवास पर वह दर्द शहर के एक स्वपनिल रूप की तरह साकार होने लगा था। श्री नागर के कलाकार जीवन का यह एक ऐसा बिन्दु था, जिसने उनके चिंतन की राह बदल दी थी। उस समय उन्होंने भी शायद यह न सोचा होगा कि शहर के ये रूपाकार बराबर कैनवास पर रूप गढ़ते उनकी अलग पहचान बना देगें। उनके `एक बूढ़ा शहर`(ऐन ओल्ड सिटी) श्रृंखला के चित्र विभिन्न मनःस्थितियों को प्रतिरूपित करते हैं – कहीं तनाव है, तो कहीं सूनापन या फिर बनते खण्डहर या कब्रिस्तान होते शहर का रूप। इन चित्रों में पुराने लखनऊ की गलियां और भवन अपने सरलीकृत और सर्पाकार रूप में साकार हो उठे हैं। रंग-योजना धूसर है, जिसमें कहीं-कहीं आशा और विश्वास के स्वर भी प्रतिबिम्बित होते हैं। इन खण्डहर होती बस्तियों में आस्था के प्रतीक `गणेश` और अवध प्रांत की `दो मछलियां` भी प्रतिरूपित मिलती हैं।
दशकों की कला-यात्रा के दौरान श्री नागर ने समकालीन भारतीय कला में अपना जो विशिष्ट स्थान बनाया वह सब यूं ही नहीं हो गया था। इसके पीछे संघर्ष के अनेक पड़ाव थे, जिन्हें पार कर अब वे शांति पूर्वक सिर्फ कला-साधना में लीन हो गए थे। नागर जी प्रदेश के दूसरे और लखनऊ के पहले ऐसे कलाकार रहें हैं जिन्हें वर्ष 1964 में राष्ट्रीय कला-पुरस्कार से ललित कला अकादमी, नई दिल्ली ने सम्मानित किया था।
अकाल शीर्षक चित्रकृति
उनकी कला-यात्रा के विभिन्न रूपों, आकारों और चिंतन का साक्षात्कार वर्ष 1979 में, प्रदेश की राज्य ललित कला अकादमी द्वारा `रत्न सदस्यता` से उन्हें सम्मानित करते हुए, उनके चित्रों की सिंहावलोकन प्रदर्शनी में लखनऊ के कला-प्रेमियों ने किया था। जिसमें सन् 1943 से सन् 1979 तक के रूपायित उनके 147 चित्रों को प्रदर्शित किया गया था। सन्1949 से सन् 1953 तक लखनऊ नगरपालिका की कला-वीथिका का संयोजन क्यूरेटर के रूप में की गईं उनकी सेवाएं भी, अपना अलग स्थान रखती हैं। लखनऊ कला महविद्यालय से वर्ष 1956 में जुड़ने के बाद वे यहीं से वर्ष 1983 में ललित कला विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्ति हुए थे। उत्तर प्रदेश के कला आन्दोलन को आगे बढ़ाकर उसे राष्ट्रीय क्षितिज तक पहुंचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
लगोटिया यार :
जगत प्रसाद जैन
वे तीन भाई थे, जिनमें अमृत लाल जी “शब्द”, रतन लाल जी “छायांकन” और मदन लाल जी “रंग” के माहिर बने। रतन जी के संबंध में अधिक जानकारी मेरे पास नहीं है परंतु उनका ध्येय “फिल्में” थीं। इसलिए उनका ठिकाना अधिकतर मुंबई ही रहा परंतु शेष दोनों के कार्य-क्षेत्र लखनऊ ही रहे. चौक की गलियों में बचपन बीता… देहरी का मोह पनपा, दोस्त बनें और ज़िंदगी बढ़ती गयी।
जीवन में अच्छे दोस्त हों तो जीवन की राह आसान बन जाती है। अपना सुख-दुख बंट जाता है, और अंधेरे से कब हम रोशनी की ओर बढ़ चले हैं…पता ही नहीं चल पाता है।
ऐसे ही दो जैन परिवार के व्यक्ति नागर परिवार से जुड़े, पर आपस में इनका कोई रिश्ता न था।
एक ज्ञान चन्द्र जैन जी (संपादक-नवजीवन), सौम्य और शांत, जिनका जुड़ाव अमृत लाल जी से रहा.।वहीं दूसरे “लटरू” जी, जिनका यह उपनाम ही ज्यादा प्रचलित रहा जबकि उनका वास्तविक नाम जगत प्रसाद जैन था।
लटरू जी मदन लाल जी के पाठशाला-दिनों से साथी रहे। दो शरीर एक जान, जिन्हें कहते हैं “लंगोटिया यार”। वर्ष 1940 में दोनों ने काली चरण स्कूल से हाईस्कूल की परीक्षा पास की थी। नागर जी ने, अपनी रुचि के अनुरूप, इसके बाद आर्ट स्कूल में दाखिला ले लिया। यहां के प्रशिक्षण के चलते लटरू जी अब उनके ” माॅडल ” भी बनने लगे। उनके कई पोट्रेट नागर जी ने बनाए थे।
लटरू जी के जीवन काल में ही मैं उनसे मिला था। यह शायद 1993-94 की बात होगी। नागर जी का नाम आते ही वे कातर हो उठे थे। होते भी क्यों न, एक अंतरंग मित्र जो बिछुड़ गया था। उन्होंने बताया था कि – “नागर जी अपने पहनावे की विशिष्टता का ध्यान रखते थे। अपने अगरखे / कुर्ते आदि की डिजाइन वे स्वयं करते थे, जिसमें परंपरा और भारतीयता का पुट होता था। आडंबर से वे दूर रहते थे।” उनके अनेक चित्र और रेखांकन लटरू जी के पास सुरक्षित थे। उनमें से कतिपय चित्र यहां आपसे शेयर कर रहा हूं।
काश, मुझे पता होता कि लटरू जी से मेरी यह पहली ही नहीं, आखिरी मुलाकात है। इस दोस्ती और दोस्तों को नमन।
यादों के पल :
नागर परिवार की पुराने लखनऊ (चौक) में अपनी अलग ही एक धमक थी। बड़े भाई अमृत लाल जी विख्यात लेखक, अलमस्त, ज़िंदगी जीने का अलग नज़रिया रखते थे। महफिलों, उत्सवों के अनेक दौर उस कोठी में गूंजे थे। मदन लाल जी की भी इनमें शामिल रहने की कोशिशें रहती थी। उनका बचपन तो यहीं गुज़रा था। यहां की गलियां उनकी दोस्त हुआ करती थीं। बाद में, रहते तो थे जरूर वो आर्टस् कालेज में पर मन वहीं रमता था। आखिर माँ जो रहती थीं उनकी वहां। उन दिनों की “यादों के पल”, श्वेत-श्याम चित्रों में साझा हैं यहां…
बायें से अमृत लाल नागर जी, मां विद्या देवी जी, उनकी गोद में अचला नागर जी, अमृत लाल जी की अर्धांगिनी प्रतिभा जी और माँ के पीछे मदन लाल जी Iएक उत्सव में अमृत लाल जी और पीछे भाई जैसी मुस्कान बिखेरते मदन लाल जी I
परिवार :
नागर जी जहां एक कुशल चितेरे और श्रेष्ठ गुरु थे।वहीं अपने परिवार से उनका लगाव भी कम न था। इस युग्म की दो संतानें हुईं – बड़ी पुत्री अपर्णा, और छोटा बेटा अक्षय। सिर्फ अपने बच्चों से ही नहीं अन्य बच्चों से भी उनका लगाव कम न था। कहते हैं बच्चों में अपने बचपन को जीता है इंसान। उनके (नागर जी और कृष्णा भाभी संग) ऐसे ही कुछ अविस्मरणीय पलों को हम आपसे साझा कर रहे हैं यहां… (श्वेत-श्याम चित्रों का जमाना था वह)