धनतेरस, धन्वन्तरी और धन्वंत रे

आज धनतेरस है, बाज़ारों में अच्छी-खासी भीड़ है I क्योंकि इस त्यौहार से जुडी मान्यता है कि इस दिन सोने-चाँदी और बर्तनों की खरीदारी अवश्य की जानी चाहिए I धन्वन्तरी, आयुर्वेद के देवता और भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं। उनका उल्लेख वेद, पुराण और उपनिषदों में विभिन्न रूपों में मिलता है। अलबत्ता वेदों में धन्वन्तरी का प्रत्यक्ष उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन आयुर्वेदिक उपचार और औषधियों के संदर्भ में जो सूक्त पाए जाते हैं। उनमें औषधियों के गुण, उनके उपयोग और रोगों के उपचार के बारे में जानकारी दी गई है।

वहीँ पुराणों में धन्वन्तरी का विस्तृत उल्लेख मिलता है, विशेषकर भागवत पुराण, विष्णु पुराण और अग्नि पुराण में। यहाँ विवरण मिलता है कि समुद्र मंथन के समय धन्वन्तरी अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे। वे आयुर्वेद के देवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वहीँ उपनिषदों में धन्वन्तरी का विशेष रूप से आध्यात्मिक और चिकित्सा ज्ञान के प्रतीक के रूप में उल्लेख है। अथर्ववेद उपनिषद और कुछ औषधीय उपनिषदों में उन्हें रोगों से मुक्ति और जीवन दीर्घायु के संरक्षक के रूप में दर्शाया गया है।

Dhanavantri sculpture at Somanathapura, Karnataka.jpg

यह तो हुयी देवताओं के चिकित्सक माने जाने वाले धन्वन्तरी की कहानी I किन्तु इससे इतर बौद्ध ग्रंथों में हमें धन्वंत रे का ज़िक्र मिलता है I इसका खुलासा होता है ब्रिटिश पुरातत्वविद् Waddell (1892–1897) और बाद में Spooner (1912–13) तथा Altekar (1926–27) द्वारा वर्तमान पटना में कराये गए उत्खनन से I इस दौरान जो महत्वपूर्ण पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त हुए, उसने मौर्य काल की स्थापत्य कला, नगर नियोजन और सामाजिक संरचना को उजागर किया I

स्थान और खोज :

  • स्थान: बुलान्दिबाग (बुलंदीबाग) किला क्षेत्र, पटना (बिहार)
  • काल: मौर्य काल (लगभग 3री शताब्दी ईसा पूर्व)
  • खोज: ब्रिटिश पुरातत्वविद् L. A. Waddell (1892–1897) और बाद में D. B. Spooner (1912–13) तथा A. S. Altekar (1926–27) द्वारा
  • संरक्षण: यह उत्खनन कार्य Archaeological Survey of India (ASI) के अंतर्गत किया गया था I
Bulandi_Bagh_excavations_Pataliputra.jpg WIKIMEDIA COMMONS

यहाँ एक लकड़ी की दीवारनुमा संरचना के अवशेष मिले, जो प्राचीन पाटलिपुत्र नगर की चहारदीवारी मानी गयी I यह संरचना पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली हुई थी, और लगभग 250 फीट लंबी थी। इसे साल और सागौन की लकड़ी से बनाया गया था I यह दीवार  प्राचीन भारतीय नगर नियोजन और रक्षा संरचना का उत्कृष्ट उदाहरण है। यूनानी राजदूत मेगास्थनीज़ ने अपनी पुस्तक Indica में लिखा है कि पाटलिपुत्र की दीवारें लकड़ी की थीं और उनमें 570 बुर्ज और 64 द्वार थे। बुलंदीबाग की यह खोज उस ऐतिहासिक वर्णन की पुरातात्त्विक पुष्टि करती है। यहाँ से मौर्यकालीन टेराकोटा मूर्तियाँ, धातु उपकरण, बीज, मिट्टी के बर्तन, और अग्निकुण्ड के अवशेष भी मिले हैं । मौर्य काल की इन मूर्तियों में एक छोटे लड़के की आकृति है, जो मुस्कुराता हुआ प्रतीत होता है। ये मूर्तियाँ प्राचीन भारतीय कला और शिल्प कौशल की उत्कृष्टता को दर्शाती हैं। यह मूर्ति इन दिनों बिहार म्यूजियम, पटना में प्रदर्शित है I

Smiling boy at Bihar Museum, Patna

बाबू पूर्ण चंद्र मुखर्जी द्वारा 1898 में प्रकाशित “Report on the excavations on the ancient sites of Pataliputra in 1896-97” में भी इस स्थल के उत्खनन का विस्तृत विवरण मिलता है। इसी बुलान्दिबाग, पटना से कुछ ऐसे साक्ष्य भी मिले हैं, जो इसे बौद्ध ग्रंथों में वर्णित धन्वंत रे से जोड़ता है, या कहें कि धन्वंत रे से जुड़े वर्णनों की पुष्टि करता है I इस खोज ने यह भी स्थापित किया कि भारत का इतिहास न केवल राजाओं, युद्धों और स्थापत्य का इतिहास है, बल्कि यह चिकित्सा, दर्शन और मानव-कल्याण की विविध परंपराओं का भी इतिहास है। इसी परंपरा में धन्वंत रे का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्हें भारतीय चिकित्सा प्रणाली—आयुर्वेद—का प्रणेता माना जाता है।

धन्वंत रे: प्राचीन भारत के चिकित्सक और आयुर्वेद के जनक :

बौद्ध साहित्य में धन्वंत रे का नाम ऐसे चिकित्सक के रूप में आता है जो रोगों का निदान करने में निपुण थे और औषधीय वनस्पतियों का गहरा ज्ञान रखते थे। पाली त्रिपिटक और जातक कथाओं में भी चिकित्सकों के रूप में धन्वंतरे जैसे पात्रों के उल्लेख मिलते हैं जो समाज की सेवा और रोगमुक्ति को अपना धर्म मानते थे।

धन्वंत रे की चिकित्सा-पद्धति केवल शारीरिक रोगों तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह मनोवैज्ञानिक और नैतिक स्वास्थ्य को भी महत्त्व देती थी। बौद्ध दृष्टिकोण से यह “करुणा” और “मैत्री” के आदर्श से जुड़ती है—जहाँ चिकित्सा केवल उपचार नहीं, बल्कि सह-अस्तित्व की भावना का विस्तार है। बुलान्दिबाग से मिले कुछ मिट्टी के पात्रों और औषधि-मापने के बर्तनों को लेकर इतिहासकारों ने यह अनुमान लगाया है कि यहाँ चिकित्सा-प्रयोगशालाएँ और  औषध-निर्माण केंद्र भी रहे होंगे।

बौद्धकालीन चिकित्सा परंपरा और धन्वंत रे का योगदान :

बौद्ध धर्म में चिकित्सा को ‘सेवा’ का रूप माना गया है। बुद्ध स्वयं कहते हैं— “यो भो विक्खवे परिसावे उपट्ठहति, सो मम उपट्ठहति” — अर्थात जो किसी रोगी की सेवा करता है, वह मेरी सेवा करता है। इस भावना के साथ चिकित्सा को बौद्ध संघों में एक उच्च श्रेणी का कार्य माना गया। धन्वंत रे जैसे चिकित्सकों ने इस युग में औषधि विज्ञान को व्यवस्थित रूप दिया।

विदित हो कि आयुर्वेद के तीन मूल ग्रंथ—चरकसंहिता, सुष्रुतसंहिता और अष्टांगहृदय—का स्वरूप बौद्धकाल में ही स्थिर हुआ। धन्वंत रे को इन परंपराओं का प्रणेता कहा जाता है, जिन्होंने औषधि (औषध विज्ञान), शल्य (सर्जरी) और काय-चिकित्सा के मूल सिद्धांतों को विकसित किया। इस काल में चिकित्सक केवल रोगनिवारक नहीं, बल्कि समाज में नैतिक आदर्श का प्रतिनिधित्व भी करते थे।

Location of Bulandi Bagh in the ancient city of Pataliputra and modern Patna (Pataliputra city limits in dotted line).

बुलंदी बाग़ और चिकित्सा के पुरातात्त्विक संकेत :

बुलान्दिबाग (बुलंदीबाग़) से मिले पुरातात्त्विक अवशेष यह संकेत देते हैं कि वहाँ किसी समय संगठित सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें औषधि-निर्माण और स्वास्थ्य से संबंधित गतिविधियाँ होती थीं। यहाँ पाए गए छोटे-छोटे काँच और मिट्टी के पात्र औषधि संग्रहण के लिए प्रयुक्त हो सकते हैं। लौह उपकरणों में कुछ ऐसे औजार मिले हैं जिन्हें शल्यकर्म या औषधि-निर्माण में प्रयुक्त किया गया होगा।

इतिहासकारों का मत है कि बौद्धकाल में पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) चिकित्सा शिक्षा का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था। संभव है कि धन्वंत रे जैसे चिकित्सक इसी क्षेत्र में अपनी विद्या का प्रसार कर रहे हों। बुलान्दिबाग (बुलंदीबाग़) की खुदाई को इस तथ्य की भौतिक पुष्टि के रूप में देखा जा सकता है।

सांस्कृतिक और दार्शनिक परिप्रेक्ष्य :

धन्वंत रे का विचार केवल औषधि तक सीमित नहीं था, बल्कि वह “संतुलन” और “सामंजस्य” के दर्शन से जुड़ा था—जो बौद्ध धर्म के मध्यम मार्ग से मेल खाता है। यह दृष्टिकोण बताता है कि मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य ही स्वास्थ्य का आधार है। इसी विचारधारा ने भारत में चिकित्सा को धर्म, नैतिकता और जीवन-दर्शन से जोड़ा।

बुलंदी बाग़ में बौद्ध विहारों के अवशेष यह भी दर्शाते हैं कि वहाँ शिक्षा, ध्यान और चिकित्सा—तीनों गतिविधियाँ एक साथ संचालित होती थीं। अंततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि बुद्ध की करुणा और धन्वंत रे की चिकित्सा—दोनों एक ही मानवीय उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, और वह है दुःख का निवारण।

दरअसल धन्वंत रे और बुलंदीबाग़ का संबंध भारत की उस प्राचीन चेतना को दर्शाता है जिसमें ज्ञान, चिकित्सा और करुणा एक साथ चलते हैं। बुलंदी बाग़ की खुदाइयों ने न केवल पाटलिपुत्र के शहरी विकास का इतिहास उजागर किया, बल्कि उस युग की चिकित्सा-संस्कृति के संकेत भी दिए हैं। इतना ही नहीं धन्वंत रे इस सांस्कृतिक परंपरा के प्रतीक हैं—जहाँ चिकित्सा केवल विज्ञान नहीं, बल्कि मानवता की साधना है।

बौद्धकालीन चिकित्सा और पुरातात्त्विक साक्ष्यों का यह संगम यह दर्शाता है कि भारत की भूमि पर स्वास्थ्य और अध्यात्म का संबंध अत्यंत प्राचीन और गहरा रहा है। इस संदर्भ में, बुलंदी बाग़ पटना न केवल एक पुरातात्त्विक स्थल है, बल्कि भारतीय चिकित्सा और बौद्ध करुणा की संयुक्त स्मृति का स्थल भी है।

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