धर्म और प्राचीन भारतीय कला

आपको यह प्रारंभ में ही समझ लेना चाहिए कि जैन धर्म, बौद्ध धर्म या हिंदू धर्म की तरह आप, जैन शैली की कला, बौद्ध शैली की कला या हिंदू शैली की कला -कोई ऐसा वर्गीकरण नहीं कर सकते। भारतीय कला के अध्ययन के प्रारंभिक काल में विद्वानों ने यह भूल की थी। उनके इस भ्रम का निराकरण दूसरे विद्वानों ने किया। यह भूल जैन मतावलंबी या जैनधर्म के पक्षपाती विद्वानों ने की हो, ऐसी बात नहीं। भारतीय कला का इस प्रकार का सांप्रदायिक वर्गीकरण सबसे पहले एक निष्पक्ष पाश्चात्य कला-मर्मज्ञ फर्गुसां ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन आर्किटेक्चर’ में किया था।

भारतीय कला के इस भ्रामक वर्गीकरण का खंडन बुलर ने ‘एपिग्राफिका इंडिका’ में एक लेख द्वारा किया है। उनके इस मत की पुष्टि विंसेट स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘द जैना स्तूपा एंड अदर एंटीक्विटीज़ ऑफ मथुरा’ में और आनंद कुमारस्वामी ने ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन एंड इंडोनेशियन आर्ट’ में की है।

इन तीन विद्वानों ने ठीक ही कहा है कि भारतीय कला एक अविछिन्न प्रवाह के रूप में जीवित रही है। बौद्ध, जैन और हिंदू धर्मों ने अपने युग और देश की कला को आवश्यकतानुसार अपनाया। इन सभी धर्मों ने कला के क्षेत्र में प्रतीकों और रूढिगत रीतियों को एक ही श्रोत से लिया। चाहे स्तूप हों या पवित्र वृक्ष या चक्र- ये सभी, धार्मिक या कलात्मक तत्वों के रूप में, सबके लिए सहज-सुलभ थे। आनंद कुमारस्वामी के शब्दों में ‘यद्यपि प्राय: समस्त भारतीय कला धार्मिक है, फिर भी यह कहना गलत है कि उसकी शैलियां संप्रदायों पर निर्भर थीं।’

इस सत्य को ध्यान में नहीं रखने के कारण ही जायसवाल जैसे विद्वान ने भी जैन धर्म से संबद्ध वास्तुकला के बारे में एक बड़ी भ्रामक बात कह दी है। जैन और बौद्ध मंदिरों पर अप्सराओं, सिद्धों और यक्षों आदि की मूर्तियों के बारे में अपने ‘अंधकारयुगीन भारत’ में वे कहते हैं- ‘बौद्ध तथा जैन वास्तु में इस प्रकार की मूर्तियों का एकमात्र अर्थ यही हो सकता हैकि वे ब्रााह्मण संप्रदाय के वास्तु से ही ली गई थीं और उन्हीं के नकल पर केवल वास्तु की शोभा और अलंकरण के लिए बनाई जाती थीं।’ जायसवाल महोदय यह भूल जाते हैं कि कला के इन प्रतीकों और रूढियों पर जैनियों तथा बौद्धों का उतना ही अधिकार था जितना ब्रााह्मण संप्रदाय या हिंदू धर्म का, क्योंकि इन तीनों धर्मों से संबद्ध कलाओं का सीधा और स्वतंत्र संबंध भारतीय कला से था। भारतीय कला की ये तीनों शाखाएं परस्पर-निर्भर होने के बदले समानाश्रयी थीं।

आचार्य नलिन विलोचन शर्मा

“धर्म और प्राचीन भारतीय कला” शीर्षक आलेख का एक अंश
‘नलिन विलोचन शर्मा: संकलित निबंध’ पुस्तक से साभार
संपादक: गोपेश्वर सिंह
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत

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