कलुष का नाश ही है दुर्गापूजा का उद्देश्य

शारदीय नवरात्र को देश के विभिन्न भागों में दुर्गा पूजा के रूप में मनाया जाता है। वैसे देखें तो ईश्वर को माता या नारी के रूप में कल्पित करने की धारणा वेदों में नहीं मिलती है। किन्तु प्रागैतिहासिक तथा आदिम जनजातियों के धर्मों में ईश्वर की कल्पना मातृ-रूप में की गई है। अपने पौराणिक धार्मिक ग्रंथों की विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि पुराण युग तक आते आते शक्ति की धारणा का न केवल विकास होता है, समाज में इसे विशेष प्रतिष्ठा भी प्राप्त होने लगती है। अब जहां एक तरफ तो विष्णु की शक्ति के रूप में वे जगद्धात्री के रूप में सामने आती हैं, वहीं शिव के साथ वे ज्ञान की शक्ति के रूप में संयुक्त दिखाई देती हैं।

देवीभागवत पुराण में देवी के दो रूपोें यथा निर्गुण और सगुण की चर्चा है यानी निराकार व साकार की। इनमें जहां आसक्त जनों को देवी के सगुण-साकार स्वरूप की भक्ति की सलाह दी गयी है वहीं अनासक्तों के लिए निर्गुण-निराकार रूप की उपासना को उचित कहा गया है। वैसे अपने यहां की परंपरा यह रही कि जहां शक्ति को प्रधानता मिली वहां शाक्त धर्म प्रचलन में आया, वहीं शिव एवं विष्णु की प्रधानता वाले समाज में क्रमश: शैव और वैष्णव मत प्रचलित रहा। किन्तु इस विभाजन के बावजूद यह मान्यता भी प्रभावी रही कि अंतत: सभी मतों का केन्द्र बिन्दू एक ही है या अंतत: सभी शक्तियां एक ही ईश्वर के भिन्न नाम या रूप हैं।

संभवत: इसीलिए हमारे यहां कहा गया है –

एकैव शक्ति परमेश्वास्य भिन्ना चतुर्षा व्यवहारकाले।
पुरुषंषु विष्णुर्भागे भवानी समरे च दुर्गा प्रलये च काली।।

अर्थात- मातेश्वरी शक्ति परमेश्वर की उन प्रधान शक्तियों में से एक है, जिसका रूप आवश्यकतानुसार समय-समय पर विभिन्न रूपों में प्रकट होता रहा है। वही पुरुषों में पुरुषोत्तम विष्णु हैं, भोग में भवानी, युद्ध में दुर्गा और प्रलय में काली हैं। देवीभागवत पुराण में तो परब्रह्म परमात्मा का उल्लेख भी देवी नाम से ही किया गया है। यहां मान्यता यह है कि देवी के नाम से परब्रह्म परमात्मा की उपासना करने से भी परमपद की प्राप्ति होती है।

यहां इस शक्ति को ही संपूर्ण जगत की आत्मा और चेतन एवं अचेतन का कारण कहा गया है-

एवेकत्वं न भेदोऽस्ति सर्वदेवमयस्य च।
योऽसौ सोऽह योऽसौ भेदोऽस्ति मतिविभ्रमात्।।
अनयोरन्तरं सूक्ष्मं यो वेद मतिमान् हि स:।
विमुक्त: स तु संसारान्मुच्यते नात्र संशय: ।।
एकमेव द्वितीयं वै ब्राह्म नित्य सनातनम्।

अर्थात- ब्रह्म एक ही है। मुझ में और इन ब्रह्म में कभी किंचिन्मात्र भी भेद नहीं है, जो वे हैं, वही मैं हूं और जो मैं हूं वही वे हैं। बुद्धि के भ्रम से भेद प्रतीत हो रहा है। हमलोगों के सूक्ष्म भेद को जो जानता है, वही बुद्धिमान पुरुष है। उसके संसार-सागर से मुक्त होने में कुछ भी संदेह नहीं है। ब्राह्म नित्य, सनातन और एक ही है।

देवी के रूपों की बात करें तो दो प्रकार के रूप हमारे सामने हैं- 1. सौम्य तथा 2. उग्र। शिव के शुक्ल वर्ण के अनुरूप उमा, गौरी, सरस्वती, तथा लक्ष्मी जैसी देवी रूपों को माना गया, वहीं उनके कालरूप के अनुरूप काली, चंडी, दुर्गा तथा चामुंडा या श्यामलाकृति की पूजा प्रचलित हुई। दूसरी तरफ  शक्ति उपासना में 1, काली, 2.तारा,3. त्रिपुरा या षोडषी, 4. भुवनेश्वरी,5. भैरवी, 6. छिन्नमस्तिका, 7. धूमावती, 8. मातंगी, 9. कमला या कमलात्मिका और 10. बगलामुखी- इन दस महाविद्याओं को स्थान दिया जाता है। यूं तो शाक्त संप्रदाय में आश्विन, चैत्र, पौष और आषाढ मास में नवरात्रों के साथ साथ श्रीकृष्ण- जन्माष्टमी (कालरात्रि), आश्विन-शुक्ल चर्तुदशी (मोहरात्रि) और शिवरात्रि के अवसरों पर देवी पूजन की परंपरा है।

किन्तु आज के संदर्भ में देखा जाए तो आश्विन मास के नवरात्र यानी शारदीय नवरात्र को लगभग पूरे देश में विशेष तौर पर मनाने का प्रचलन हमारे यहां है। वैसे तो इस अवसर पर देश के कुछ भागों में जहां रामलीलाओं के आयोजन के साथ ही दशहरा यानी भगवान राम के द्वारा रावण बध को मनाने का रिवाज देखने को मिलता है।

लेकिन बिहार, बंगाल, ओडिसा व झारखंड समेत देश के विभिन्न हिस्सों से लेकर दुनिया भर में फैले हिन्दू मतावलंबियों में दुर्गा पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है। देवी दुर्गा की प्रतिमाओं की बात करें तो पूर्वी भारत में अधिक संख्या में यह मिलीं हैं। महिषासुर का वध करने के कारण देवी के महिषासुर-मर्दिनी वाले रूप को ज्यादा महत्ता मिली। माना जाता है कि गुप्तकाल में देवी की पाषाण प्रतिमाओं के निर्माण का प्रारंभ हुआ। इसके प्राचीनतम उदाहरणों में विदिशा के समीप की उदयगिरि गुफा की दीवाल पर अष्टभुजी दुर्गा की प्रतिमा उत्कीर्णित है। प्रारंभिक प्रतिमाओं में कुछ प्रतिमाएं ऐसी भी हैं, जिनमें देवी की दो भुजाएं ही हैं। लेकिन समझा जाता है कि बाद के वर्षों में बहुभुजी प्रतिमाओं के निर्माण का चलन बढता गया। इनमें भुजाओं की संख्या देवी को प्रदत्त आयुधों की संख्या पर निर्भर करने लगा। वैसे प्राचीन आगम ग्रंथों में भुजाओं में पाश, अंकुश, शंख, खड़्ग, भाला, बाण, धनुष आदि आयुधों का वर्णन मिलता है।

कुछ प्रतिमाओं में हाथ वरद तथा अभय मुद्रा में भी हैं। पुरातात्विक व ऐतिहासिक कतिपय प्रमाणों से यह प्रतीत होता है कि चौथी सदी से वर्तमान समय तक महिषासुर मर्दिनी स्वरूप की पूजा प्रचलित है। समझा जाता है कि मध्ययुग से इसका विशेष प्रचार- प्रसार होने लगा था, उत्तर भारत की बात करें तो बंगाल और बिहार में महिषासुर का वध करती हुयी देवी की प्रतिमाएं उपलब्ध हैं। दक्षिण भारत की बात करें तो वर्तमान आंध्र, तमिलनाडु और ओडिसा से भी देवी की प्रतिमाएं प्राप्त हुईं हैं। इनमें से अधिकांश प्रतिमाएं बहुभुजी हैं जिसमें तीन नेत्रों वाली देवी, अत्यन्त उग्र रूप में अपने वाहन सिंह पर सवार होकर महिषासुर का नाश करती दिखायी गयी हैं।

बहुभुज प्रतिमाओं की बात करें तो जहां खजुराहो में चौबीस भुजाओं वाली प्रतिमा मिली हैं, वहीं बंगाल से एक बत्तीस भुजावाली पाषाण प्रतिमा प्राप्त हुयी है। पालयुग की कुछ प्रतिमाएं ऐसी भी मिली हैं जिनमें चतुर्भुजी दुर्गा सिंह पर विराजमान हैं। इनके तीन हाथों में जहां ढाल, तलवार और त्रिशुल शोभित है वहीं चौथी भुजा वरद मुद्रा में है। पालयुग की ही एक अन्य पाषाण प्रतिमा पर नवदुर्गा की आकृतियां खुदी हैं, व इसके मध्य भाग में महिषासुर मर्दिनी की अठ्ठारह भुजाओं वाली प्रतिमा स्थित है। वैसे विभिन्न लेखों में नवदुर्गा यानी शैलपुत्री, ब्राह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री के मंदिर तथा पूजा के निमित्त दानादि का विवरण मिलता है।

किन्तु उस दौर की मूर्तिकला में इसका स्पष्ट उदाहरण प्राप्त नहीं है। देवी दुर्गा के द्वारा महिषासुर के वध की कथाएं यूं तो हमारे समाज में प्रचलित है। किन्तु इसके दार्शनिक अर्थों की बात करें तो यहां महिष यानी काला कलुष विचारों का मूर्तिमान रूप है और देवी दुर्गा उसका नाश करके अपने उपासकों की रक्षा करती है। अत: देखा जाए तो दुर्गापूजा का एक बड़ा संदेश तो यही प्रतीत होता है कि हम अपने अंदर और आसपास छाए कलुष को दुर करने को स्वयं आगे आएं। अत; उचित तो यही जान पड़ता है कि इस त्योहार के इस मर्म को समझते हुए ही इसे हम मनाएं, जो हमारी समस्त मानवता व जीव-जगत के लिए श्रेयस्कर है।

– सुमन कुमार सिंह

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