प्राचीन यूनानी देवता हेलिऑस और सूर्य देवता

यूं तो भारत में सूर्योपासना के मूल वैदिक काल में मिलने लगते हैं, पर कुषाण काल आते आते इसमें कुछ परिवर्तन भी दिखने लगे। और गुप्त काल में तो यह उपासना पद्धति ‘सौर संप्रदाय’ के नाम से प्रचलित हो गयी। अपने देश की सनातन परंपरा में आज की सूर्योपासना के विकास में कई देशों की परम्पराएं और उनसे हमारा लेन-देन सहायक बना। अब बात अगर सूर्य प्रतिमा की करें तो भारतीय कला में सूर्य की प्रतिमा शुंगकाल से मिलने लगती है। इससे पूर्व सूर्य प्रतीक रूप में ही मिलते हैं, शतपथ ब्राह्मण में उल्लेख मिलता है कि सूर्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए सुवर्ण का गोल टुकड़ा रखा जाय। शुंग काल के समकालीन भारतीय यूनानी राजाओं में प्लेटो और फिलोक्सीनॉस की मुद्राओं पर ‘हेलिऑस’ या सूर्य के दर्शन होते हैं। सूर्यवाचक यह हेलिऑस शब्द मूलत: यूनानी है, पर किसी समय यह हेलि रूप धारण कर अपने देवता वाले स्वरूप के साथ संस्कृत भाषा में समा गया। प्लेटो की रजत मुद्राओं पर चार घोड़ों के रथ पर आरूढ सूर्य हम देखते हैं। इसी के समकालीन माने जाने वाले बोधगया वेदिका के सूर्य भी चार ही घोड़ों वाले रथ पर हैं, बगैर सारथि के; हाँ यहां इनके साथ धनुष पर बाण चढा़ये ऊषा-प्रत्यूषा भी हैं। माना जाता है कि यूनानी हेलियस या हेलिऑस की देखादेखी भारतीय कलाकारों ने भी सूर्य के अंकन में चार घोड़ों वाले रथ को ही शामिल किया।

भविष्यपुराण के ब्राह्म पर्व में त्रिवर्ग-सप्तमी की जो महिमा वर्णित है। उसमें कहा गया है – जो व्यक्ति फाल्गुन मास की शुक्ल सप्तमी तिथि को भक्तिपूर्वक बार-बार “हेलि” नामक भगवान् सूर्य का जप एवं पूजन करता है वह सूर्यलोक को प्राप्त होता है। देव-पूजन में पवित्र होकर 108 बार जप करना चाहिये। स्नान करते हुए, प्रस्थान-काल में, उठते बैठते अर्थात् सभी समय भगवान सूर्य का नामोच्चारण करना चाहिये। उपवास करने वाले व्यक्ति को पाखण्डी, पतित और अन्यायी लोगों से बातचीत नहीं करनी चाहिये। श्रद्धापूर्वक सूर्यदेव के प्रति मन एकाग्र करके उनकी पूजा करते हुए इस श्लोक का पाठ करना चाहिये-

हंस हंस कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव।

संसारार्णवमप्रानां त्राता भव दिवाकर।।

अर्थात् – हे परमहंस-स्वरूप भगवान् सूर्य! आप दयालु हैं, गतिहीनों को सद्गति प्रदान करने वाले हैं, संसार-सागर में निमग्न लोगों के लिये आप रक्षक बनें।

अब बात करे इस हेलिऑस की तो इन्हें प्राचीन यूनानी धर्म और मिथक में देवता के तौर पर चिन्हित किया जाता है। जिन्हें कला में एक उज्ज्वल मुकुट के साथ चित्रित किया जाता है जो आकाश मार्ग पर घोड़ों द्वारा खींचे गए रथ पर आरूढ़ हैं। यहाँ वे शपथ के संरक्षक और दृष्टि के देवता भी हैं। यद्यपि प्राचीन ग्रीस में हेलिऑस या हेलियस का दर्ज़ा किसी औसत देवता जितना ही था, लेकिन रोमन काल के कई प्रमुख सौर देवताओं, विशेष रूप से अपोलो और सोल के साथ उनके संबंधों के कारण बाद के काल में अधिक प्रमुख हो गई। रोमन सम्राट जूलियन ने चौथी शताब्दी ईस्वी में पारंपरिक रोमन धार्मिक प्रथाओं के पुनरुद्धार के लिए हेलिऑस को केंद्रीय देवत्व प्रदान किया। ग्रीक पौराणिक कथाओं, कविता और साहित्य में हेलियस की चर्चा मिलती है, जिसमें उन्हें अक्सर टाइटन्स हाइपरियन और थिया के पुत्र और देवी सेलेन (चंद्रमा) और ईओस (डॉन) के भाई के रूप में वर्णित किया जाता है।

प्राचीन यूनानी साहित्य की मूलभूत रचनाएं मानी जाने वाली कृति “इलियड” और “ओडिसी” के रचयिता होमर ग्रीक सभ्यता के सर्वाधिक प्रतिष्ठित लेखक थे। जिन्हें अब तक के सबसे महान और सबसे प्रभावशाली लेखकों में से एक माना जाता है। “ओडिसी” में होमर इन्हें हेलिऑस हाइपरियन (“उपरोक्त सूर्य”) कहते हैं। इस हेलिऑस को आमतौर पर एक सुंदर युवक के रूप में चित्रित किया जाता है, जो अपने सिर पर आभायुक्त ताज पहने रहता है। तथा प्रत्येक दिन आकाश में अपने रथ को पृथ्वी के चक्कर लगाने वाले ओसियेनस में ले जाता है और विश्व-महासागर के रास्ते से रात को पुनः पूरब में लौट आता है। होमरिक हाइमन टू हेलिऑस में, हेलिऑस को घोड़ों द्वारा खींचे गए एक सुनहरे रथ को चलते रहने के लिए कहा जाता है। इन चार घोड़ों को आग से संबंधित नाम दिए गए हैं : पायरोइस (“द फेयरी वन”), एओस (“वह जो आकाश को घुमाता है”), एथन (“ब्लेजिंग”), और फ्लेगॉन (“बर्निंग”)।

समझा जाता है कि रथ चलाने वाले सौर देवता जैसी कल्पना मूल रूप से इंडो-यूरोपीय है और प्रारंभिक ग्रीक और उसके समकालीन पूरब के धर्म; दोनों के लिए आम है। “रथ भगवान” का सबसे पहला कलात्मक प्रतिनिधित्व फारस में पार्थियन काल (तीसरी शताब्दी) से आता है जहां मागी (मग ब्राह्मणों)  द्वारा सूर्य देवता के लिए किए जाने वाले अनुष्ठानों के प्रमाण मिलते है, जो हेलिऑस और मिथ्रा की पूजा को आत्मसात करने का संकेत देता है। अपने यहाँ साम्ब पुराण में यह संकेत मिलता है कि मूर्तिरूप में सूर्य-पूजा बाद की बात है। भविष्यपुराण के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब के कुष्ठग्रस्त होने पर शाक द्वीप से आये हुए मग ब्राह्मणों ने सूर्य-पूजा का विधान बताया, जिसका अनुसरण कर साम्ब ने अपने कुष्ठ रोग से मुक्ति पायी थी। महाभारत के अनुसार शाकद्वीप के एक जनपद का नाम “मग” था, जहाँ के आचार्य मग कहलाये। यह भी माना जा सकता है कि विश्वकर्मा जिनका दूसरा नाम त्वष्टा भी था, जिन्हें देवताओं का प्रमुख शिल्पी भी माना जाता है; का सम्बन्ध भी इसी मग-जनपद से रहा होगा।

हेलिऑस को अक्सर जीवन और सृजन के देवता के रूप में पूजा की जाती है। होमर ने हेलिऑस को एक देवता के रूप में वर्णित किया “जो नश्वर लोगों को आनंद देता है”। इस हेलिऑस की अभ्यर्थना कुछ यूं मिलती है, “जब आप चमकते थे तो पृथ्वी फलती-फूलती थी और जब आप हंसते थे तो पौधों को फलदायी बनाते थे और जब आप अनुमति देते थे तो जीवित प्राणियों को जीवन मिलता था।” ग्रीक इतिहास के अध्येता एल.आर. फार्नेल ने माना है कि सूर्य-पूजा एक समय में पूर्व-हेलेनिक संस्कृति के लोगों के बीच प्रचलित थी, लेकिन बाद के ऐतिहासिक काल के बहुत कम समुदायों ने इसे राज्य धर्म के एक शक्तिशाली कारक के रूप में बनाए रखा।” वहीँ यूनानी दर्शन के विद्वान जे. बर्नेट के अनुसार, “किसी भी एथेनियन से हेलिऑस या सेलेन की पूजा करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है, लेकिन वह उन्हें देवता मान सकता है, क्योंकि हेलिऑस एक महान देवता थे”।

बहरहाल भारतीय सन्दर्भ में देखें तो आज के दौर में नए सूर्यमंदिरों के निर्माण का ज्यादा चलन भले ही नहीं रह गया हो, किन्तु सूर्य को एक महत्वपूर्ण देवता या भगवान् का दर्ज़ा तो है ही। शुरुआती रूपांकनों में भले ही सूर्य के रथ में चार घोड़ों को दिखाया जाता रहा हो, किन्तु आज हमारी परिकल्पना के सूर्य सात घोड़ों के रथ पर आरूढ़ दिखाई देते हैं। गायत्री, त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप, पंक्ति, बृहती तथा उष्णिक- ये सात छंद ही सूर्य के रथ के सात अश्व हैं।

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