मिथिला चित्रकला की बात करें तो देश-विदेश के कला प्रेमियों तक इसकी पहुँच से हम सभी भली भांति अवगत हैं। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब इसका दायरा क्षेत्र विशेष के घर आँगन तक सिमटा हुआ था । ऐसे में इस लोक कला की वर्तमान यात्रा और उस यात्रा में अग्रणी रहीं पद्मश्री जगदम्बा देवी से परिचित करा रहे हैं कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा। बताते चलें कि भले ही मिथिला चित्रकला की चर्चा आज पूरी दुनिया में हो रही हो, किन्तु इससे जुड़ा एक विरोधाभास यह भी है कि इसके प्रमुख कलाकारों की भी वैसी पहचान नहीं बन पाती है जैसा आधुनिक या समकालीन कलाकारों को सुलभ है। बहरहाल प्रस्तुत है मिथिला चित्रकला को सर्वप्रथम पद्मश्री से गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान कराने वाली जगदम्बा देवी पर यह विस्तृत आलेख।
Ashok Kumar Sinha
इस महान कलाकार यानी जगदम्बा देवी की पेंटिंग की मौलिकता एवं विलक्षणता ने तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को किस हद तक प्रभावित कर रखा था। इसका अंदाज़ा इस बात से हम लगा सकते हैं कि उनके परिजनों के अनुसार एक बार जब वह दिल्ली में बीमार हो गयीं थीं तो श्रीमती गाँधी ने अपने निजी डॉक्टर से उनका इलाज करवाया था। इतना ही नहीं कला प्रेमी श्रीमती गौरी मिश्रा ने अपने एक संस्मरण में लिखा है-
”एक बार श्रीमती इंदिरा गाँधी ने जगदम्बा देवी समेत कुछ मिथिला कलाकारों को अपने प्रधानमंत्री आवास पर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। सरल एवं निश्छल स्वभाव की जगदम्बा देवी, नंगे पैर डाइनिंग हॉल में सोफे पर पालथी मारे बैठी हुई थी। तभी इंदिरा गाँधी ने हॉल में प्रवेश किया। सभी लोग उनके सम्मान में खड़ा हो गए और अभिवादनों का आदान-प्रदान होने लगा। जबकि जगदम्बा देवी सोफे पर पूर्ववत बैठी रहीं। इंदिरा गाँधी बड़ी गौर से जगदम्बा देवी को निहार रही थी। हमें ऐसा लगा कि जगदम्बा देवी का अशिष्ट एवं असभ्य आचरण श्रीमती गाँधी को शायद पसन्द नहीं आया है। इसलिए हमलोग जगदम्बा देवी को सोफा से उठकर अभिवादन करने का इशारा करने लगे। श्रीमती गाँधी हमारे मनोभावोें को समझ चुकी थीं। उन्होंने हमें वैसा करने से मना किया और कहा कि मैं जगदम्बा देवी को देखकर यह सोच रही हूँ कि ये कैसे इतना सुंदर चित्र बनाती हैं और दूसरा यह कि मेरी मौसी माँ जैसी दिखती हैं। इन्हें देखकर मुझे मौसी की याद आने लगी है। यह कहकर श्रीमती गाँधी ने उन्हें अपने अंकों में भर लिया। उसके बाद तो वहाँ के सम्पूर्ण वातावरण में अपनत्व सा भर गया।”
पद्मश्री जगदम्बा देवी
हम जानते हैं कि संस्कृति का सीधा संबंध क्षेत्र विशेष की खांटी परम्पराओं, मिट्टी और परिवेश से होता है। लोक शिल्प को मजबूती केवल अपनी मिट्टी से मिलती है। यह एक वैज्ञानिक सच्चाई भी है। यदि मिट्टी से कोई पौधा गहरा रूप से जुड़ा न हो तो वह वृक्ष नहीं बन सकता। इसी तरह संस्कृति का पल्लवन विस्तार में होता है। सामाजिक सोच से लेकर रहन-सहन के हर हिस्से में, परिधान में, सज्जा में, कलाओं का जन्म लोक और शास्त्रीय दोनों स्वरूप ले लेता है। इसी अर्थ में माटी की देन है मधुबनी पेंटिंग। बिहार की मिथिला संस्कृति में समृद्धि है उसकी कला-व्यंजना “मधुबनी पेंटिंग”। जैसे चार शब्दों का एक मुहावरा लाखों शब्दों की बात बोल देता है, उसी तरह है मधुबनी पेंटिंग। यह हमें अस्तित्व की जड़ों में उतार देती है, लोकोत्तर की तरफ, अनंत की ओर ले जाती है। मिथिलांचल की महिलाएँ, प्राचीनकाल से ही पर्व-त्योहार एवं सामाजिक उत्सवों के अवसर पर माटी की दीवारों पर परम्परागत चित्र (मधुबनी पेंटिंग) उकेरती आ रही है। इसी से मिथिला की सौन्दर्यमूलक संस्कृति जीवनोपयोगी होकर प्रकट हुई। कालक्रम में इस संस्कृति में पैदा हुए नामचीन कलाकारों के माध्यम से यह विद्या आज लोकप्रियता के शिखर तक पहुँच गयी है। मधुबनी पेंटिंग के उन नामचीन कलाकारों में जितवारपुर की जगदम्बा देवी का नाम सबसे अग्रणी है।
वर्ष 1934 से पहले मिथिलांचल की इस दुलर्भ सजावटी पारम्परिक कला को क्षेत्र से बाहर का कोई भी व्यक्ति नहीं जानता था। 1934 के जनवरी माह में मिथिलांचल में आये भूकम्प के समय मधुबनी के तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी डब्ल्यू.सी. आर्चर ने मिट्टी की क्षतिग्रस्त दीवारों पर इसे देखा था। वे इसकी खूबसूरती देखकर दंग रह गये थे और इसे “मैथिल पेंटिंग”बताते हुए इंडियन आर्ट जर्नल, “मार्ग” में एक लेख लिखा था। लेकिन उसके बाद के तीन दशक तक यह कला गुमनाम रही। सन् 1964 में मिथिलांचल में आये भीषण अकाल की वजह से यह चित्रकला एकाएक दुनिया की नजरों में छा गई। स्थानीय होने के कारण कांग्रेसी नेता एवं तत्कालीन केन्द्रीय वित उपमंत्री ललित नारायण मिश्र को मधुबनी पेेंटिंग की जानकारी थी।
उनकी पहल पर डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी पेंटिंग को व्यवसायिक रूप देने के लिए मधुबनी भेजा गया। उस समय तक यह पेंटिंग सिर्फ जमीन एवं दीवारों पर ही होती थी। इस पेंटिंग को व्यवसायिक रूप देने के लिए यह आवश्यक था कि इसे मिट्टी की दीवारों से कागज पर उतारा जाए ताकि राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली कला-प्रदर्शनियों में स्थान मिल सके। यह काफी कठिन कार्य था। क्योंकि दीवार पर रेखायें उपर से नीचे की ओर आती है। इसलिए उनमें एकात्मकता, लयात्मकता और कलात्मकता बनी रहती है। यह गति कागज पर आकृति बनाते समय नहीं आ पाती। भास्कर कुलकर्णी ने पूरे क्षेत्र में घूम-घूम कर पांच महिलाओं को इसके लिए तैयार किया। उन पांच महिला कलाकारों में सबसे महत्वपूर्ण थी जितवारपुर की जगदम्बा देवी। जगदम्बा देवी समेत अन्य पांच महिलाओं ने धैर्य और परिश्रम से इस कठिन कार्य में निपुणता हासिल कर ली। फिर तो इस चित्रकला ने अपनी मौलिकता और अनोखेपन से समूची दुनिया को चौंका दिया। इस तरह देश-विदेश के कला बाजार में इस चित्रकला का स्थान बना और इसकी माँग बढ़ी।
पद्मश्री जगदम्बा देवी की एक अन्य चित्रकृति
जगदम्बा देवी का जन्म 25 फरवरी, 1901 को मधुबनी जिले के भोजपड़ोल गाँव में हुआ था। इनका प्रारंभिक जीवन बहुत मुश्किलों से भरा रहा। जब ये पाँच वर्ष की थी, तभी इनके सिर से पिता का साया उठ गया और उसके लगभग एक साल बाद माँ भी चल बसी। संयुक्त परिवार था। इसलिए जगदम्बा के लालन-पालन में कोई कठिनाई नहीं हुई। उन दिनों मिथिला की सामाजिक संरचना में लड़कियों के बीच शिक्षा का प्रचलन नहीं था। इसलिए जगदम्बा की शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई। समाज में लड़कियों की योग्यता मापने का पैमाना लोककला ही थी। जो लड़की लोककला में जितनी अधिक निपुण होती थी, समाज में उसे उतना ही अधिक मान और सम्मान मिलता था।
यह उन्नीसवीं सदी का शुरूआती समय था। मिथिलांचल की शिल्प संस्कृति बहुत समृद्ध थी। कार्तिक मास में सामा-चकेवा पर्व के समय गाँव की महिलाएँ मिट्टी से सामा, चकेवा और अनेक किस्म के पक्षियों के छोटे-छोटे पुतलें बनाया करती थी। मधुश्रावणी पर्व के दौरान भींगे चावल के चूर्ण यानी पिठार और हल्दी, सिंदुर आदि के मिश्रण से जमीन पर “अरिपन” बनाने की परम्परा थी। मुंडन, उपनयन तथा शादी-ब्याह के अवसर पर दीवारों पर सजावट के रूप में देवी-देवता, पशु-पक्षी, पेड़-पक्षी, पेड़-पौधे, फूल, मछली, साँप इत्यादि चित्रित किये जाते थे। दुल्हा-दुल्हन के कक्ष में कोहबर का चित्रण अनिवार्य रूप से होता था। सिक्की घास से बनने वाले समान यथा डलिया, मौनी, दउरा, चट्टाई और मिट्टी से बनने वाले प्लेट, चूल्हा, बर्तन, अनाज के पात्र, सुराही, पशु-पक्षी इत्यादि पर्व-त्योहारों के साथ-साथ दैनिक उपयोग में भी लाये जाते थे। उन दिनों मिटटी के चूल्हे पर ही भोजन पकता था। भात और दाल भी मिट्टी के बर्तन में ही पकते थे।
यह सभी चीजें गाँव में ही बनती थी। इसे बनाना कोई सिखाता नहीं था। लड़कियाँ होश संभालते ही माँ-चाची, भाभी, दादी इत्यादि के साथ चित्र एवं कलाकृतियाँ बनाने लगती थी। जगदम्बा भी होश संभालते ही गाँव की अन्य लड़कियों की देखा-देखी मिट्टी और सिक्की घास से सजावटी एवं दैनिक उपयोग की वस्तुएँ तैयार करने लगी। मांगलिक अवसरों पर दीवारों पर चित्रकारी करने में भी उसका मन रमने लगा। जगदम्बा द्वारा दीवारों पर बनाये जाने वाले चित्र काफी मनमोहक एवं आकर्षक हुआ करते थे।
उस समय की सामाजिक प्रथा के मुताबिक नौ वर्ष की छोटी उम्र में ही जगदम्बा की शादी जितवारपुर के बालकृष्ण दास के साथ कर दी गई। किन्तु इनका वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा। शादी के कुछ महीनों के बाद ही बालकृष्ण दास का निधन हो गया। न कोई संतान और न ही कोई सखा-संबंधी। जगदम्बा फिर से अकेली हो गयी। अपनी पीड़ा और उदासी से अकेले ही जूझती रही। एकांत और उदासी के उन भीषण क्षणों में उब से बचने और समय बिताने की गरज से जगदम्बा मिट्टी और सिक्की से छोटे-छोटे खिलौने और सजावटी वस्तुएँ तैयार करने लगी। शादी-ब्याह के अवसर पर दीवारों पर चित्र भी बनाया करती थी। धीरे-धीरे जगदम्बा द्वारा निर्मित कलाकृतियों की ख्याति गाँव भर में फैल गई। गाँव में जिस किसी के घर में शादी-ब्याह होता, लोग इन्हें बुलाकर ले जाते। देखते ही देखते ये उस घर की दीवार पर रंगों की इतनी खूबसूरत दुनिया सजा देती कि सब देखते रह जाते थे।
उन दिनों जितवारपुर में रसायनिक रंगों की उपलब्धता नहीं थी। जगदम्बा के पास न पैसा था और न कोई सुविधा। इसलिए पेंटिंग के लिए प्राकृतिक रंगों का निर्माण ये स्वयं करती थी। प्राकृतिक रंगों के निर्माण का इनका तरीका बड़ा ही दिलचस्प होता था। उनके भतीजे कमल नारायण कर्ण बताते हैं कि वह अपने चित्रों में काला और लाल रंग का ज्यादातर प्रयोग करती थी। रसोई बरतनों में जमने वाली कालिख को गोबर की सहायता से छुड़ाती थी। फिर उस कालिख का प्रयोग वे काले रंग के लिए करती थी। जबकि गोंद और बकरी का दूध मिलाकर लाल रंग तैयार करती थीं। पीपल की छाल से भूरा रंग, गुलाब से लाल रंग हरसिंगार के डंठल से नारंगी, सेम की पतियोें से हरा और करौंदा से नीला अथवा जामुनी रंग तैयार करती थीं। रेखाएँ बनाने के लिए खुद से तैयार की गई पतली बांस की लकडि़यों का इस्तेमाल करती थी तथा कमाची की सहायता से उसमें रंग भरती थीं।
चित्रकारी के साथ-साथ मिट्टी और सिक्की की कलाकृतियों के निर्माण के लिए भी गाँव में जगदम्बा को आदर एवं सम्मान के साथ बुलाया जाता था। अतीत के पन्नों को पलटते हुए जितवारपुर के पप्पु झा कहते हैं,
“उन दिनों में छोटा बच्चा था। फिर भी काको (जगदम्बा देवी) से जुड़ी बचपन की कई घटनाएँ मुझे आज भी ज्यों की त्यों याद है। तब प्रत्येक घर में भोजन बनाने के लिए मिट्टी का चूल्हा होता था। आम तौर पर प्राय: सभी घरों में चूल्हे एक ही तरह के होते थे- एक या दो मुख वाले। लेकिन काको जो चूल्हा बनाती थी, वह अद्भुत होता था। एक बार मेरे घर का चूल्हा टूट गया तो नये चूल्हे का निर्माण करने के लिए काको को बुलाया गया। उस दिन काको ने बड़ा ही डिजायनदार चूल्हा बनाया था, जिसकी सबने खूब तारीफ की थी। जगदम्बा देवी वर्षों तक मन-बहलाव के लिए मिट्टी और सिक्की से घरेलू एवं सजावटी सामग्रियों का निर्माण और मांगलिक अवसरों पर चित्रकारी करती रहीं। वह गाँव-घर से मिलने वाली वाहवाही से ही संतुष्ट थीं।”
सन् 1964-65 में जगदम्बा देवी के जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया। मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा था और उससे निपटने के लिए भारत सरकार के हस्तशिल्प मंत्रालय की तरफ से भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी भेजा गया था। उस समय तक दीवारों पर की जाने वाली पेंटिंग का न तो व्यवसायीकरण हुआ था और न ही इसकी कोई पहचान थी। भास्कर कुलकर्णी मिथिलांचल की इस पेंटिंग को व्यवसायिक रूप देने के लिए योग्य कलाकारों की खोज में मधुबनी में भटक रहे थे। उसी क्रम में एक दिन वे जितवारपुर गाँव का भ्रमण कर रहे थे। तभी उनकी नजर एक कुटिया पर पड़ी। वह कुटिया जगदम्बा देवी की थी। उस कुटिया की दीवार पर बहुत ही मनमोहक पेंटिंग बनी हुई थी। जगह-जगह पर रामायण और महाभारत के कथानक वाले म्यूरल भी बने हुए थे। कुलकर्णी काफी देर तक उन म्यूरल और पेंटिंग की खूबसूरती में खोये रहे। फिर उन्होंने जगदम्बा देवी से बसहा कागज पर चित्रांकन के लिए अनुरोध किया। जगदम्बा ने एक-दो दिनों में पेंटिंग बनाकर उन्हें सौंप दिया। वह पेंटिंग बहुत ही उत्कृष्ट थी।
भास्कर कुलकर्णी को वह पेंटिंग बहुत पसंद आयी और उन्होंने उसे दस रूपया में खरीद लिया। कुलकर्णी की प्रशंसा से जगदम्बा देवी का उत्साह बढ़ा। फिर क्या था, कुलकर्णी बसहा कागज मुहैया कराते रहे और जगदम्बा देवी उस पर पेटिंग बनाती रही। जब भास्कर कुलकर्णी के पास ढेर सारे चित्र इकट्ठा हो गये तो उन्होंने उन चित्रों को नई दिल्ली के दस जनपथ स्थित सेन्ट्रल कॉटेज इम्पोरियम में प्रदर्शित किया। वहाँ जगदम्बा के चित्रों की खूब तारीफ हुई। इसके तुरन्त बाद पेरिस में आयोजित प्रदर्शनी में भी इनके चित्रों को प्रदर्शित किया गया और वहाँ भी इनके चित्रों को भरपूर सराहना मिली। देश-विदेश के कला प्रेमियों का ध्यान मिथिलांचल की इस पारम्परिक कला की ओर आकृष्ट हुआ और उसे मधुबनी पेंटिंग के नाम से पुकारा जाने लगा।
जगदम्बा देवी को लगा कि वह अपना जीविकोपार्जन मधुबनी पेंटिंग से कर सकती है और वह एक से बढ़कर एक पेंटिंग बनाने लगी। धीरे-धीरे उनकी पेंटिंग की ख्याति देश भर में फैल गयी। तब उनकी एक पेंटिंग 100 से लेकर 300 रुपये तक में बिकती थी। जगदम्बा देवी की आर्थिक स्थिति सुधरने लगी। उनकी कला से प्रभावित होकर जितवारपुर एवं आसपास के गाँवों की महिलाएँ भी मधुबनी पेंटिंग की ओर उन्मुख हुई और मधुबनी पेंटिंग का प्रचार-प्रसार होने लगा। इस तरह मधुबनी पेंटिंग की सुगन्ध देश-दुनिया में फैलती चली गयी।
मधुबनी पेंटिंग के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए 4 जनवरी, 1969 को अखिल भारतीय हैण्डीक्राफ्ट बोर्ड ने जगदम्बा देवी को सम्मानित किया। फिर तो जगदम्बा देवी के पास सम्मानों का तांता लग गया। 8 दिसम्बर, 1969 को बिहार सरकार के उद्योग विभाग ने इन्हें ताम्रपत्र से सम्मानित किया। 26वें वैशाली महोत्सव (18-20 अप्रैल, 1970) के अवसर पर भी उद्योग विभाग द्वारा जगदम्बा देवी को सम्मानित किया गया। 6 मार्च, 1970 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक विशेष समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने 10 X 5 फीट केे कागज पर बनाई गयी पेंटिंग “दशावतार” के लिए इन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय पुरस्कार की श्रेणी में मधुबनी पेंटिंग को उस वर्ष पहली बार शामिल किया गया था और इस विधा में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली ये पहली कलाकार थी।
पुरस्कार वितरण के बाद संवाददाता सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए भारत के तत्कालीन विदेश व्यापार मंत्री बलिराम भगत ने यह कहा था कि विगत डेढ़-दो वर्षों के दौरान भारतीय हस्तशिल्पों के निर्यात में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोतरी हुई है और इसमें बिहार की मधुबनी पेंटिंग का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने जानकारी दी थी कि 1968-69 में भारतीय हस्तशिल्पों के निर्यात से जहाँ 70 करोड़ रुपये की आय हुई थी, जो 1969-70 में बढ़कर 90 करोड़ पहुँच गयी है। मधुबनी पेंटिंग के विकास में अन्यतम योगदान के लिए बिहार सरकार ने 4 सितम्बर, 1973 को जगदम्बा देवी को दक्ष शिल्पी सम्मान से सम्मानित किया। सन 1975 का वर्ष जगदम्बा देवी के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण साबित हुआ। इस वर्ष भारत सरकार ने इन्हें “पदमश्री” सम्मान से विभूषित किया। इस तरह से वह मधुबनी पेंटिंग में पदमश्री पाने वाली पहली कलाकार भी बन गयीं थी।
जगदम्बा देवी अशिक्षित थीं। लेकिन विषय वस्तु के असाधारण ज्ञान और प्रभावशाली तकनीक के चलते उनकी प्रत्येक कलाकृति बोलती हुई प्रतीत होती थी। उन्होंने अपने चित्रों में परम्परा से चली आ रही शैली की जगह एक नई शैली को अपनाया। वह अपनी पेंटिंग के बिंब, रंगों के चयन और शैलीगत विशेषता के प्रति स्पष्ट नजरिया रखती थी। उनकी पेंटिंग में न तो किसी बात की अधिकता होती थी और न शिथिलता। फलस्वरूप उनके चित्रों में विषय की नवीनता, तकनीक की ताजगी और रंगों की स्वच्छता होती थी। उनके अधिकांश चित्रो की मुद्राएँ शांत ओर मधुर होती थी। ज्यादातर आकृतियों में तीखी नाक और बड़ी-बड़ी आँखें होती थी। सिर से लेकर गर्दन तक की आकृति त्रिकोणीय होती थी। शेष हिस्सों के लिए ये दोहरी रेखायें खींचती थी और इन दोहरी रेखाओं में वह जो रंग भरती थी, वह अद्भुत होता था।
वह अपने चित्रों में ज्यादातर चटख रंगों का प्रयोग करती थी। उनमें भी काला, पीला, भूरा, हरा, गेरू और गाढे नीले का प्रयोग ज्यादा करती थी। इनके कुछ चित्रों में चटख और हल्के रंगों का भी सुखद संयोजन मिलता है। गाढ़े नीले रंग का प्रभाव अद्भुत होता था, जो उनके चित्रों को अन्य से खास बनाता था। उनके इन प्रयोगों से मधुबनी पेंटिंग की एक नई शैली पैदा हुई और उसकी एक अलग पहचान बन गयी। जगदम्बा देवी का कहना था कि केवल रूप-रंग ही कला नहीं है। उसमें बुद्धि का सहयोग भी अपेक्षित है, जिससे दर्शकों के मन में भावनाओं का उदय हो।
जगदम्बा देवी बहुत ही धार्मिक स्वभाव की थी। इसलिए उनके चित्रों के विषय प्राय: पौराणिक होते थे। सीता-राम, राधा-कृष्ण, दुर्गा, काली एवं लक्ष्मी इत्यादि देवी-देवताओं के जीवन-प्रसंगों पर वह जो चित्र बनाती थी, वह देखते ही बनता था। उनका बहुचर्चित एवं बहुप्रशंसित चित्र “रासलीला” है, जिसमें राधा के साथ बांसुरी बजाते कृष्ण के भीतर की उल्लासपूर्ण गरिमा का आकर्षक चित्रण है। इस चित्र में नृत्य करते कृष्ण सहसा अनेक दिखते हैं, जिससे प्रत्येक गोपी को यह अनुभव होता है कि कृष्ण उनके साथ ही नृत्य कर रहे हैं। इस चित्र में रूप की संस्कृति और कला की लोच स्पष्ट रूप से झलकती है। “सीता स्वंयवर” भी इनकी एक असाधरण कृति है। राधा-कृष्ण, सिंहवाहिनी दुर्गा, अद्र्धनारीश्वर, दशावतार और कोहबर आदि उनके चित्र भी बड़े ही उत्कृष्ट और प्रभावोत्पादक बन पड़े हैं।
इतना ही नहीं कोहबर एवं अरिपन निर्माण में भी वह सिद्धहस्त थी। मिथिलांचल में कोहबर एक अनोखी एवं अविस्मरणीय कला-परम्परा के रूप में प्राचीन काल से स्थापित है। यहाँ वर-वधू के प्रथम मिलन के अवसर पर कोहबर बनाया जाता है, जिसमें कमल का फूल, सुरूचिपूर्ण पुष्प, बांस, मछलियाँ, पक्षी तथा अन्य जीव-जन्तु चित्रित किये जाते हैं। प्रतीकात्मक प्रतिरूपों का यह संयोजन एक तरह से यौन संबंध एवं संतानोत्पत्ति को व्यक्त करता है। जगदम्बा कोहबर के चित्रांकन में इन विशेष अलंकरणों को इस तरह प्रस्तुत करती थीं कि उसकी मौलिकता एवं विलक्षणता से हर कोई मुग्ध और आनन्दविभोर हो उठता था।
मिथिलांचल में पर्व-त्योहार तथा मांगलिक अवसरों पर “अरिपन”बनाने का भी विधान है। अरिपन निर्माण में महिलाएँ मिट्टी और गाय-गोबर से लीपे हुए जमीन पर सिंदूर एवं चावल के घोल में अपनी ऊंगलियों को डुबो कर ज्यामीतिय रेखाचित्र खींचती हैं, इनमें अलंकरण के गणितीय मापों के बेल-बूटे तो होते ही हैं, कुछ इष्ट देवता, उनके पदचिन्ह तथा मानवाकार भी चित्रित किये जाते है। जगदम्बा देवी को अरिपन निर्माण में भी महारथ हासिल थी। स्वयं स्फूर्त चेतना के आधार पर इनके द्वारा निर्मित अरिपन की गुणवत्ता अधिक सुन्दर, नियंत्रित एवं परिमार्जित होती थी। जटाशंकर दास ने अपने संस्मरण में एक घटना का वर्णन इस प्रकार किया है-
”एक बार पटना में आयोजित विद्यापति पर्व के अवसर पर जगदम्बा देवी ‘अरिपन” बना रही थी, तभी प्रसिद्ध कलाकार उपेन्द्र महारथी का वहाँ आगमन हुआ। वे कुछ देर तक जगदम्बा देवी को अरिपन बनाते देखते रहे। फिर खुशी से नाच उठे और बार-बार जगदम्बा देवी के चरण-स्पर्श करने लगे। उनका कहना था कि – “जो चित्र हमलोग बहुत ही सावधानी से समय लेकर बनाते हैं, वैसा चित्र ये पिठार में ऊँगली डुबोकर सुगमतापूर्वक जमीन पर खींच देती हैं।”
जगदम्बा देवी स्वभाव से जितना सरल थी, उनका रहन-सहन भी काफी सादगी भरा था। वह नंगे पैर रहती थी, कभी पैर में चप्पल नहीं पहना। जापान, फ्रांस और अमेरिका सहित कई देशों में उनके चित्रों की प्रदर्शनी हुई और उसमें शामिल होने के लिए उन्हें बुलावा भी आया। लेकिन ग्रामीण पृष्टभूमि की जगदम्बा देवी ने उन्हें विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।
मधुबनी पेंटिंग के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाली जगदम्बा देवी का 83 वर्ष की उम्र में 8 जुलाई, 1984 को निधन हो गया। लेकिन अपनी कलाकृतियों के माध्यम से वे मिथिलांचल के जनमानस में आज भी जीवित हैं। मधुबनी पेंटिंग की वरिष्ठ कलाकार श्रीमती रानी झा कहती हैं कि जगदम्बा देवी ने ही सर्वप्रथम हमें यह समझ दी थी कि मधुबनी पेंटिंग सिर्फ सांस्कृतिक धरोहर ही नहीं है बल्कि इसमें नियोजन की भी क्षमता है।
मधुबनी पेंटिंग से हजारों कलाकार आज अपना जीविकापार्जन कर रहे हैं तो उसका पूरा श्रेय जगदम्बा देवी को जाता है। उन्होंने लुप्तप्राय मधुबनी पेंटिंग को पुनर्जीवित कर एक खास शैली एवं परम्परा को जन्म दिया था, जो ज्योतिपुंज के रूप में मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों का मार्ग आज भी अलौकिक कर रहा है। इसलिए वह मधुबनी पेंटिंग की “जगदम्बा” यानी जननी है। मधुबनी पेंटिंग में राज्य पुरस्कार से सम्मानित राजकुमार लाल कहते हैं कि जगदम्बा देवी की जीवन-गाथा मधुबनी पेंटिंग का ज्योति-स्तम्भ है, जिसकी किरणें अनंत तक जाती हैं। उनका नाम आज भी मधुबनी पेंटिंग के कलाकारों के बीच एक नयी शक्ति और ऊर्जा का संचार करता है।