अब कारण चाहे जो भी रहा हो लेकिन सच तो यही है कि बिहार में कला लेखन की परंपरा सही से विकसित नहीं हो पायी। अब ऐसी स्थिति में किसी कलाकार की क्या बात करें कला-गुरुओं तक के बारे में आधी-अधूरी जानकारी ही अपने पास है। वैसे विगत वर्षों में बिहार सरकार द्वारा कला लेखन में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के नाम पर ‘दिनकर पुरस्कार’ की शुरुआत की गयी है। जिसके तहत लगभग दर्ज़न भर कला-लेखक पुरस्कृत हो चुके हैं। इनमें से कुछ वाकई गंभीरता से कला लेखन कर भी रहे हैं, ऐसे में उन चंद लेखकों से कुछ उम्मीद तो बंधता ही है। बहरहाल जदु बाबू से जुडी जानकारियां जुटाने के प्रयास में अपने शांतनु भाई ने जिन लोगों से संपर्क किया, उनमें से एक हैं जदु बाबू के भतीजे सिद्धार्थ बनर्जी। सिद्धार्थ इन दिनों कोलकाता में रह रहे हैं, तो अब आगे की बातें उन्हीं के शब्दों में :-
Siddharth Banerjee
स्वर्गीय जदु नाथ बनर्जी का जन्म 1914 में स्वर्गीय आशुतोष बनर्जी के घर सबसे छोटे बेटे के रूप में हुआ था। स्वर्गीय आशु बाबू अविभाजित बंगाल (बिहार- बंगाल- ओडिसा) प्रांत में जेलर के पद पर तैनात थे, यानी सचमुच में अँगरेज़ ज़माने के जेलर थे। अपनी नौकरी की वजह से आशु बाबू को तत्कालीन इस विशाल प्रान्त के अलग अलग हिस्सों में रहना पड़ा। शुरुआती दिनों में जदु बाबू पेट की समस्या से परेशान रहते थे, या कहें कि अक्सर बीमार रहा करते थे। ऐसे में आशु बाबू ने जेल के पहरेदारों के संरक्षण में उन्हें शारीरिक व्यायाम एवं कुश्ती से जुड़ने को प्रेरित किया। यह सब कुछ जदु बाबू को इतना भय कि वे शारीरिक सौष्ठव के प्रति गंभीर होते चले गए। लेकिन इसका एक परिणाम यह भी सामने आया कि औपचारिक पढ़ाई में उनकी दिलचस्पी घटती चली गयी।
बंगाली अखाड़े में जदु बाबू
खैर किसी तरह स्कूली पढ़ाई पूरी हो गयी और इसके बाद अपने जदु बाबू जा पहुंचे कलकत्ता यानी आज का कोलकाता। वहां गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स में दाखिला मिला और कला की औपचारिक शिक्षा की शुरुआत हो गयी। कला की पढ़ाई के क्रम में भी जदु बाबू का शारीरिक व्यायाम और बॉडी बिल्डिंग जारी रहा। तब भारत में रशियन सर्कस का बड़ा क्रेज होता था, तो कलकत्ता में रहते हुए रशियन सर्कस कंपनी से जुड़ गए। इस दौरान उन्होंने कलाबाज़ी तो सीखी ही, शो के बीच में अपने कसरती बदन को दिखाने का सिलसिला भी जारी रहा। देखा जाये तो उनका यह हुनर बाद में एक कला शिक्षक के तौर पर भी काम आया। खासकर शारीरिक संरचना को समझने और अपने छात्रों को समझाने के लिहाज़ से।इसी दौरान यानी सर्कस के दिनों में ही उन्हें “माइटी अपोलो” की उपाधि से सम्मानित भी किया गया, बताते चलें कि उन दिनों भारत में बॉडी बिल्डिंग की औपचारिक प्रतियोगिता का कोई खास चलन नहीं था। यह भी बताते चलें कि नृत्य में भी उनकी विशेष रूचि थी, हालाँकि इसका कोई औपचारिक प्रशिक्षण उन्होंने कभी नहीं लिया। इसके बावजूद वे अच्छे नर्तक भी थे और उन्होंने कई नृत्य नाटकों में प्रदर्शन भी किया। जब वे वापस पटना आये तो जिस व्यक्ति को उन्होंने नृत्य की प्रारंभिक शिक्षा दी। वे थे श्री हरि उप्पल जो बाद में भारतीय नृत्य कला मंदिर, पटना के निदेशक रहे, हालाँकि हरि उप्पल ने बाद में विधिवत नृत्य की औपचारिक शिक्षा भी हासिल की थी।
पटना वापसी के बाद ही जदु बाबू उस कला स्कुल से जुड़े, जिसे आज हम कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के नाम से जानते हैं। हालाँकि तब इस विद्यालय की शुरुआत के लिए जगह की तलाश चल ही रही थी, जो अंततः गोविन्द मित्र रोड स्थित एक निजी भवन पर जाकर ख़त्म हुयी। जहाँ से शुरू हुआ कला स्कूल का सफर उनकी सेवानिवृति तक आते आते कला महाविद्यालय में तब्दील हो गया। इस बीच बहुत कम समय के लिए वे इस कला महाविद्यालय के उप प्राचार्य और प्राचार्य भी रहे ।
एक मूर्तिकार के तौर पर उन्होंने कदमकुआं स्थित जिस बुद्ध प्रतिमा का निर्माण किया, उसके उद्घाटन के लिए तब जापान के विशेष प्रतिनिधि आये थे। फिर उन्होंने पटना नगर निगम के लिए पुरुष और महिला सफाईकर्मी की प्रतिमा बनायीं। उनके द्वारा बनाये आदमकद प्रतिमाओं की बात करें तो कांग्रेस मैदान कदमकुआँ में बिहार के पहले मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह की प्रतिमा, एवं मुज़फ्फरपुर के लंगट सिंह कॉलेज के लिए लंगट सिंह समेत कई अन्य लोगों की प्रतिमा भी बनायीं। उनके अपने स्टूडियो में उनके बनाये कई ऐसे मूर्तिशिल्प थे जिनके माध्यम से उन्होंने मानवीय सौंदर्य, संवेदनाओं के साथ-साथ धर्म और अध्यात्म से जुडी अपनी कल्पनाओं को मूर्त रूप दिया। वर्ष 1968 में स्थानीय बंगाली अखाड़े से फिजिकल डायरेक्टर के तौर पर जुड़े और इस दौरान उन्होंने युवाओं की उस पौध को सींचा और पाला जिनकी रूचि शारीरिक सौष्ठव से जुडी थी। या कहें कि जो अपने आत्म-विकास के लिए शारीरिक क्षमता के विकास को महत्व देते थे।
उनके रहन- सहन और पहनावे की बात करें तो वे सादा जीवन उच्च विचार के हिमायती थे। इसलिए रोजमर्रा का पहनावा हो या देश की राजधानी के उस विज्ञानं भवन का सफर, जहाँ उन्हें राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किय जाने के लिए आमंत्रित किया गया था, उनका पहनावा वही धोती और बुश्शर्ट ही रहा। अलबत्ता एक और ठेठ देशजपन जो उनसे आजीवन जुड़ा रहा वह था उनका पान का शौक। 4 अक्टूबर 1996 को उन्होंने जब इस दुनिया को अचानक अलविदा कहा, तब तक बचपन के दिनों में परेशानी का सबब रहा उनका वह स्वास्थ्य अंत समय तक निरोग वाली श्रेणी का रहा। जिसे हम कहें तो बिलकुल भले चंगे वाली अवस्था में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली।
आगे उनके कुछ उन नामचीन छात्रों की चर्चा भी रहेगी, जिनके बनाये मूर्तिशिल्प आज पटना की विशेष पहचान हैं। साथ ही मौजूदा कुछ शिष्यों से जानेंगे कुछ बातें और उस महान कलागुरु, उस्ताद पहलवान और नृत्य गुरु के बारे में ।