कहानी एक मूर्तिकार पहलवान की ..(1 )

अपनी पीढ़ी की बात करूँ तो देखते-देखते पैंतीस साल गुजर गए अपने छात्र जीवन को अलविदा कहे हुए। पुरानी यादों के धुंधलाने के लिए इतने बरस काफी होते हैं, परन्तु विगत कुछ वर्षों से कुछ इसके उलट ही होता चला जा रहा है। दिल्ली जैसे महानगर में तीस से अधिक साल बिताने के बाद, अब कुछ ज्यादा ही शिद्दत से पुराने दोस्त और पुराने दिन याद आ रहे हैं। कला महाविद्यालय, पटना के हम पूर्ववर्ती छात्रों का एक ऐसा समूह बन चुका है, जिसमें आपसी संवाद चलता रहता है। इस बातचीत के केंद्र में अक्सर पुराने दिन और वे पुराने लोग भी होते हैं; जिनसे हमने बहुत कुछ सीखा जाना। अलबत्ता तब उन गुरुओं की सीख की महत्ता का अंदाज़ा नहीं था, लेकिन अब उसका महत्व समझ में आता है। ऐसी ही कुछ पुरानी यादें साझा की भाई शांतनु मित्रा ने, विभिन्न मीडिया समूह में वर्षों कार्यरत रहे शांतनु सेवानिवृति का आनंद लेते हुए कला सृजन में रत हैं। बहरहाल आगे की बातें उन्हीं के शब्दों में :-
” हाई स्कुल के ज़माने की बात है, गोविन्द मित्रा रोड के मेरे आवास से मामा के घर अनीसाबाद जब कभी जाना होता था, तो दरवान जी यानि बलिराम दा हमें पहुँचाने जाते थे। मेरे घर से सटे हुए मकान में उन दिनों ‘साइंटिफिक ट्रेडर्स’ नाम की दुकान थी, जहाँ अब एक मेडिकल स्टोर है। तो बलिराम दा उसे दिखाते हुए कहते कि इस भवन में ही कभी कला महाविद्यालय हुआ करता था। तब कभी यह नहीं सोचा था कि एक दिन मैं भी कला महाविद्यालय का छात्र बनूँगा। हाँ कला महाविद्यालय से जुडी एक और बात पता थी कि हमारे पड़ोस में रहनेवाले मूर्तिकार जदुनाथ बनर्जी वहां प्राध्यापक रह चुके हैं। मेरा लंगोटिया यार सिद्धार्थ उनका भतीजा था, अब चूँकि सिद्धार्थ उन्हें काका कहता था तो हमारे लिए भी वे काका ही थे जदु काका।
आज इस बात का बेहद मलाल है कि तब उनसे जितना सीखना या जानना चाहिए था, वो क्यों नहीं कर पाया। फिर भी उनकी कही जो बातें याद आती हैं उनमें से जिसे पहला सबक कहा जा सकता है, वह था – इंग्लिश में तो छब्बीस अल्फाबेट होते हैं, लेकिन ड्राइंग में सिर्फ दो, एक सीधी रेखा और दूसरी वक्र रेखा। यानी स्ट्रेट लाइन और कर्व लाइन। आज समझ में आता है कि शायद यह बहुत बड़ी सीख थी, एक ऐसी सीख जिसमें कला शिक्षा के सारे गहन तथ्य समाहित थे। अपने बाथरूम की सीमेंट वाली दीवार पर पानी फेंक कर कहते थे, अब इसमें बनती बिगड़ती आकृतियों को खोजो। जैसे- जैसे उस दीवार पर पानी सूखता जाता आकृतियां अपना रूप-स्वरुप बदलती जाती। इन आकृतियों की निहारने में काका भी हमारे साथ होते, घंटों निहारते और एक एक आकृति की पहचान कराते। तब यह भी जान पाया कि काका के बनाये कई सारे मूर्तिशिल्प पटना के विभिन्न जगहों पर लगे हैं, इन्हीं में से एक है कदमकुआं वाली वह बुद्ध प्रतिमा; जो आज काका के जाने के दशकों बाद भी उनकी कीर्ति-कथा आज भी सुना रही है। बशर्ते कि कोई सुनना चाहे तो, क्योंकि यह भी एक सच है कि स्थानीय आम समाज ने ही नहीं बिहार के कला समाज ने भी उन्हें लगभग भुला ही दिया है। जब कभी उनके घर जाता तो दिखतीं ,उनके कमरे में चारो तरफ मूर्तियों व मूर्ति निर्माण से जुडी विभिन्न सामग्रियां। साथ ही वहां होते थे उनके रोजाना की कसरत से जुड़े उपकरण भी।
यही बात थी जो काका को अन्य कलाकारों से अलग करती थीं, यानी उनका पहलवान भी होना। काका बंगाली अखाड़े के उस्ताद भी थे यानी आज की भाषा में कहें तो फिजिकल ट्रेनर। मेरे पिता भी उनके शागिर्दों में से एक थे, उस समय पटना में उनके शागिर्दों की अच्छी खासी संख्या हुआ करती थी। काका ने कुछ बरस सर्कस में भी काम किया था, तब सर्कस का अपना अलग ग्लैमर हुआ करता था। तब उन्होंने यह भी कहा था कभी भी भारी व्यायाम मत करना, क्योंकि एक बार आदत डलने के बाद उसे जारी रखना बहुत आसान नहीं होता। मुझे अब भी याद है सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते ही पहले आता था काका का कमरा, उसके बाद आता था मेरे मित्र सिद्धार्थ का कमरा। अक्सर होता यह कि सिद्धार्थ के कमरे में जाने से पहले एक बार जरूर से काका के कमरे में जाता था, थोड़ी देर बैठता तब बहुत सारी बातें हुआ करती थी।

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