जदुनाथ बनर्जी के बारे में कुछ और जानकारी जुटाने के सिलसिले में शांतनु भाई का संवाद होता है उनके अपने भतीजे सौरव मित्रा से। सौरव ने अपनी युवावस्था में जदु बाबू की शागिर्दी कर रखी है। मूर्तिकला सीखने से लेकर शरीर सौष्ठव यानी बॉडी बिल्डिंग करने तक का उन दोनों का साथ रहा। तो सौरव के शब्दों में कुछ यूं बयां हुयी जदु बाबू की यादें :-
” जोदुदादु (जैसा कि मैं उन्हें संबोधित करता था) से जुड़े संस्मरण मेरे जीवन के अमूल्य धरोहर हैं। मेरे पास उनसे जुडी यादों का एक ऐसा खजाना है, जिसका वर्णन करने लगूँ तो यह आलेख बहुत विस्तृत हो जायेगा, बहरहाल हमारे श्रद्धेय बचु काका यानि शांतनु काका ने जैसा आदेश दिया है। उसके अनुसार मैं अपने इस लेख में कुछ मुख्य यादों और बातों की चर्चा करूँगा।”
जोदुदादु मेरे मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। 80 के दशक के अंत और 90 के दशक की शुरुआत की बात होगी, उस दौरान उनके जीवन के अनुभवों के बारे में चर्चा करते हुए उनके घर पर घंटों समय बिताया करता था। वह एक रूसी सर्कस समूह के साथ अपने जुड़ाव के बारे में अपने जीवन की कहानियां मेरे साथ साझा करते थे, जहां उन्हें मूल रूप से एक ट्रैपेज़ कलाकार यानी कलाबाज़ के तौर पर भर्ती किया गया था, लेकिन अंततः वहां उनकी भूमिका बॉडी बिल्डर वाली बन गयी। आसान शब्दों में कहा जाए तो शो के दौरान अपनी मांशपेशियों को फुलाकर प्रदर्शित करने वाली। हालाँकि कम उम्र में उनका ऐसा करना परिजनों को पसंद नहीं था, यह सब एक तरह से उनके परिवार की ईच्छा के खिलाफ वाला मामला था। किन्तु तब बड़ी ही शालीनता से उन्होंने इन मुश्किल परिस्थितियों का सामना करने का जज्बा बरक़रार रखा।
एक पेशेवर बॉडी-बिल्डर होने के अलावा, दादु एक समृद्ध कलाकार और मूर्तिकार भी थे। वह पटना आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स कॉलेज (पटना विश्वविद्यालय) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। दादु द्वारा बनाये गए प्रतिमाओं में सबसे महत्वपूर्ण प्रतिमा कदमकुआं स्थित “बुद्धमूर्ति” है, जो उन्हें बिहार सरकार द्वारा कमीशन किया गया था। इसकी स्थापना के समय रात में जिस भीषण तूफानी-बरसात का सामना उन्हें करना पड़ा था, उससे जुडी कई कहानियां मैं सुन चूका था। इसके अलावा पटना में उनकी बनाये मूर्तिशिल्पों में विशेष उल्लेखनीय जो प्रतिमा है वह है मछुआटोली स्थित पटना नगर निगम के परिसर में स्थापित “मछुआरा परिवार”। वह मेरे साथ पटना और उसके आसपास के शहरों के लिए अपने द्वारा बनाये गए बड़े आकार की सार्वजनिक मूर्तियों की स्थापना के पीछे की कहानियाँ बड़े मनोयोग के साथ दिलचस्प अंदाज़ में साझा करते थे।
दादु के साथ मेरी पहली मुलाकात की वह घटना अब भी याद है, जब वह अंकीबाबू (मेरे दादा-दादी) से मिलने के लिए सरोदिया (पटना में हमारा पैतृक घर) परिसर आये थे। दादु के साथ वह पहली मुलाकात को कुछ खास नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि पहली नज़र में उन्हें यही लगा था कि मैं इस परिवार का कोई सदस्य नहीं बल्कि एक आगंतुक हूँ। बाद में, जब हम परिचित हुए, तब उन्होंने मुझे बताया कि चूंकि तुमने झक सफेद कुर्ता और पायजामा पहन रखा था, इसलिए मुझे लगा कि तुम कलकत्ता से आये कोई बंगाली बाबू हो। जबकि उन दिनों पटना में रहते हुए यह मेरा सामान्य पहनावा था। बताते चलें कि उस दौर में तत्कालीन पश्चिम बंगाल से किसी भी बंगाली बाबू का “पोशचिम” यानी की पटना के तरफ आना जाना लगा रहता था। बंगाल के स्थानीय निवासियों के बीच सामान्य तौर पर इस इलाके के लिए यही “पोशचिम” शब्द व्यवहृत होता है। खैर इस प्रकरण के बाद, कला-मूर्तिकला और शारीरिक प्रशिक्षण के क्षेत्र में जोदुदादु मेरे मित्रवत गुरु बन गए।
दादू ने मुझे जीवन के कुछ बेहतरीन सबक सिखाए, जिन्हें मैंने आज तक संजोए रखा है। वे शांतचित वाले एक संपूर्ण व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी कभी वह अपना आपा नहीं खोते थे। अपने आस-पास की चीजों में छुपी कला की पहचान और उसकी सराहना करना वे मुझे सिखाया करते थे। वे आकाश में छाए बादलों में मानव आकृतियों की खोज करना सिखाते थे। गोविंद मित्रा रोड स्थित अपने पुश्तैनी घर की नम दीवारों की सीलन में छिपे मानव और जानवरों की आकृतियों को चिन्हित कर दिखाते थे, तब यह सब मेरे लिए एक बेहद आकर्षक अनुभव था। किसी सामान्य व्यक्ति में भी अपने आस-पास की चीजों में छुपी कला की सराहना के लिए दृष्टि विकसित करा देना उनकी बहुत बड़ी खूबी थी।
दादू लोहे के तार को विभिन्न स्वरुप में मोड़कर खूबसूरत मूर्तियां गढ़ना सिखाते थे, मैं सचमुच का भाग्यशाली था कि मुझे ऐसे गुरु से सीखने का मौका मिला। वह कहते थे कि तार से मूर्तियां गढ़ना एक तरह से मूर्तिकला का मूलमंत्र है, यह एक तरह का ऐसा रेखांकन है जिसमें बिना किसी रूकावट के लाइन खींचते चले जाते हैं। उन्होंने मुझे मूर्तिकला में व्यवहृत होनेवाली मोल्डिंग-कास्टिंग की गहन प्रक्रिया भी सिखाई। दादु ने ही मुझे उचित वजन और डम्बल के साथ शारीरिक कसरत करना सिखाया और प्रोत्साहित भी किया।
दुर्भाग्य से, वर्ष 1996 में उनका निधन हो गया, जब मैं अपनी पढ़ाई लिए पटना से दूर चला आया था। मेरी माँ ने मुझे बताया कि दादु की मृत्यु इस मायने में अनोखी थी कि उन्हें किसी तरह की कोई बीमारी नहीं थी; उस समय वे पास में रखे बुद्ध प्रतिमा के बगल में अपनी आरामकुर्सी पर आराम फरमा रहे थे और उसी अवस्था में अपनी अनंत यात्रा पर निकल गए। मानो उनकी यह ध्यानस्थ अवस्था उनके स्वर्गिक निवास की प्रस्थान यात्रा थी।
जारी……..