उपलब्ध प्राचीन साहित्यिक ग्रंथों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धन प्रदान करने वाली देवी के रूप में लक्ष्मी की अवधारणा आदिकाल से चली आ रही है। इस देवी का सम्बन्ध कमल, गज तथा यक्षों से होने की चर्चा भी मिलती है। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से प्राप्त मोहरों पर अंकित जिस आकृति को लक्ष्मी समझा जाता है उनमें लक्ष्मी दो कमल के पौधों के बीच खड़ी है, जिनके मस्तक पर त्रिशुल के आकार का आभूषण है और पीछे दो चोटी लटक रही है। हाथ एवं पैरों में आभूषण भी है। इसके बाद के काल की बात करें तो हमारा इतिहास मौर्य युग के पूर्व के पहले तक लगभग मौन ही है। या कहें तो किसी तरह के साक्ष्य हमें आज उपलब्ध नहीं हैं। मौर्य काल की बात करें तो जो मृण्मूर्तियों प्राप्त हुईं हैं उनमें हाथ में कमल लिए कोई आकृति नहीं मिली है। परन्तु एक मूर्ति जो सिर्फ ग्रीवा तक बनी है, उसे कुछ विद्वान लक्ष्मी की प्रतिमा मान रहे हैं। लेकिन इस प्रतिमा को लक्ष्मी की मूर्ति मानने में कठिनाई यह है है कि इनके हाथ में कमल नहीं है; लेकिन इस मूर्ति के कान में जो आभूषण है वह कमल के आकार का है। संभवत: यही कमल के आकार के कर्णफूल के आधार पर इसे लक्ष्मी की प्रतिमा मानी जाती है। वहीं रूपड़ से प्राप्त एक अंगूठी के नगीन पर एक ऐसी आकृति अंकित है, जिस तरह की आकृति तक्षशिला एवं पटना से प्राप्त अंगूठी पर भी मिलती है। इन नगीनों पर दो भाग में चित्र उत्कीर्णित हैं। इसके नीचे के भाग में एक देवी की मूति अंकित है।
वहीं भरहुत से प्राप्त कई ऐसी मूर्तियां हैं जिन्हें हम लक्ष्मी मान सकते हैं। जैसे एक देवी की मूर्ति जो एक यक्ष अपने हाथों पर धारण किये हुए हैं। ये सर्वाभरण भूषिता हैं और इनके गहने भी मोतियों के बने हुए हैं। पैर में नूपुर के स्थान पर गोल मणियों की चूड़ी है। तथा मस्तक पर मोतियों का जाल है। प्रतिमा का एक हाथ कमर पर है तथा दक्षिण कर में कमल है। दूसरी मूर्ति श्रीमा देवता की है। तथा एक और मूर्ति है जो हाथ में कमल लिए कमल पर खड़ी है। इनके अतिरिक्त तीन गजलक्ष्मी की भी मूर्तियां यहां हैं, जिनमें से लक्ष्मी की दो खड़ी और एक बैठी हुई मूर्ति है। इन तीनों में हाथी भी कमल पर खड़े हैं आैर लक्ष्मी भी कमल पर आसीन हैं। भरहुत की बैठी हुई गजलक्ष्मी की मूर्ति योग आसन में हैं, इनके बैठने का योग आसन प्राय: वैसा ही है जैसा मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मोहर पर शिव का है। इस प्रतिमा विशेष महत्व यह है कि भरहुत, सांची तथ बोधगया में जो लगभग इसी काल की प्रतिमाएं प्राप्त हुईं हैं, उनमें किसी में भी देवी योग आसन में हाथ जोड़े बैठी नहीं मिलती है। अलबत्ता गुप्त काल के चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा कुमारगुप्त के सिक्कों पर कहीं-कहीं लक्ष्मी योग आसन में दिखाई तो देती हैं, किन्तु उनमें भी किसी में वे हाथ जोड़े हुए नहीं हैं। यहां दो गजलक्ष्मियों की ऐसी मूर्तियाँ हैं जिनमें देवी खड़ी हैं वे भी गोल वृत के भीतर बनी हैं। इन दोनों में प्रसन्नवदना लक्ष्मी विकसित कमल के ऊपर खड़ी हैं, दाहिनी भुजा उठा रखी है वहीं बायीं भुजा स्तन पर हैं। वहीं एक अन्य फलक में में बायें हाथ में कमल की कली डण्डी समेत पकड़ रखा है। मस्तक पर जहां किरीट शोभित है वहीं कानों में कुण्डल व गले में कण्ठा है। मणिबन्ध पर वलय तथा चूड़ियां हैं, कटि में कमरबंद और धोती एवं पैरों में भी आभूषण हैं। जो दो हाथी उन्हें स्नान करा रहे हैं, उनके गले और मस्तक भी अलंकृत हैं। हाथी एक विशाल कमल पर चारों पैर रखकर खड़े हैं और सूंड में जो घट लिए हुए हैं उनसे जलाभिषेक हो रहा है। देवी जिस कमल पर आसीन हैं व दोनों हाथी जिस कमल पर खड़े हैं सभी एक अलंकृत घट से निकलते हुए दिख रहे हैं।
एक फलक में इन तीन कमल के फूलों से तीन कलियां तथा दो कमल के पत्ते निकल रहे हैं। वहीं दूसरे में तीन कमल के अतिरिक्त केवल दो कलियाँ तथा दो कमल के पत्ते ही निकल रहे हैं। भरहुत के ये छोटे फलक अत्यन्त आकर्षक हैं। इतने कम स्थान पर शिल्पियों ने जिस सुघड़ता सेे इतनी सारी चीजें एक साथ संयोजित की हैं, इनमें कोई भी वस्तु एक दूसरे के ऊपर नहीं है और न तो अंकन की सुघड़ता कहीं से भी प्रभावित हुई है। भरहुत के ही एक खम्भे पर लक्ष्मी की जो पद्महस्ता प्रतिमा प्राप्त होती है, उसमें देवी की त्रिभंग मूर्ति है, दायां हाथ ऊपर उठा हुआ है तथा उसमें वे कमल की कली पकड़े हुए है। वहीं बायें हाथ से धोती की छोर को उठा रखा है। यहां लक्ष्मी पूर्ण विकसित कमल पर खड़ी हैं। मस्तक पर मोतियों का जाल है, कानों में कुण्डल, गले में त्रिरत्न व मोती की लड़ी है। कमर में मणिमेखला तथा धोती है और पैरों में नूपुर शोभित हैं।
एक दूसरी प्रतिमा सिरिमा की है, जिसे श्री का प्राचीनतम स्वरूप माना जाता है। ये वही देवी हैं जिनका परिचय श्रीसूक्त से प्राप्त होता है। यहां देवी का एक हाथ ऊपर उठा हुआ है, हालांकि यह टूट चुका है किन्तु अनुमान है कि इस हाथ में कमल ही रहा होगा। दूसरा हाथ बगल में लटक रहा है। देवी के मस्तक पर ओढ़नी, ललाट पर ललाटिका है तो कानों में कुण्डल तथा गले में कई कण्ठे भी हैं। कमर में मेखला तथा कमरबंद तो है ही। धोती के आगे का भाग सामने की ओर लटक रहा है। पैरों में भी चूड़ियां हैं, वहीं हाथों की चूड़ियाँ उन प्राचीन कांस्य प्रतिमाओं की याद दिलाती हैं जो हमें मोहनजोदड़ो से मिली हैं। परन्तु यहां बांहों पर ये चूड़ियां बहुत ऊपर तक नहीं हैं जैसी उन कांस्य मूर्तियों पर मिली हैं। वहां देवी समपादक स्थानक मुद्रा में खड़ी हैं। भरहुत की प्रतिमाओं के कलामय गाल मुख पद्म-पत्र के समान एवं हाथी की सूंड के समान बांहें, पीन पयोधर क्षीण-कटि एवं भरे हुए नितम्ब नि:संदेह इस काल की कला की अपनी विशिष्टताएं कही जा सकती हैं। इस प्रतिमा में अपने पूर्ववर्ती मौर्य काल की उभरी हुई गोलाई भी स्पष्ट दृष्टिगोचर है। इसके अलावा भरहुत में गजलक्ष्मी की और भी प्रतिमाएं हैं, जैसा कि एक पाषाण खण्ड के ऊपर दो हाथियों के सूंडों को देखकर अनुमान लगाया जाता है।
-सुमन कुमार सिंह