कम्पनी शैली : उदय, विकास और अवसान

आर्चर दम्पति (मिल्ड्रेड एवं डब्ल्यू जी आर्चर) ने 1955 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “Indian Painting for the British, 1770–1880” में कम्पनी शैली (Company School) या ‘अंग्रेज़ी प्रभाव वाली भारतीय चित्रकला’ के उदय, विकास और अंत; तीनों की विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने कम्पनी शैली के अवसान के कई सामाजिक, आर्थिक और कलात्मक कारणों को रेखांकित किया है।

औपनिवेशिक सत्ता के बदलते उद्देश्‍य

आर्चर के अनुसार कम्पनी शैली का उद्भव मुख्यतः ब्रिटिश अधिकारियों और कर्मचारियों की निजी रुचि के कारण हुआ था। वे भारत की जनता, रीति-रिवाजों, वेशभूषा, स्थापत्य और प्राकृतिक दृश्यावली को चित्रों के रूप में संग्रहीत करना चाहते थे। परंतु 1857 के विद्रोह के बाद जब ब्रिटिश शासन ‘कम्पनी’ से सीधे ‘ब्रिटिश क्राउन’ के अधीन आ गया, तब प्रशासनिक दृष्टिकोण बदल गया। अंग्रेज़ अब भारत को ‘अध्ययन’ या ‘संवेदनात्मक अनुभव’ के स्थान पर ‘शासन’ के रूप में देखने लगे। फलस्वरूप इस शैली के आश्रयदाता घटते गए।

संरक्षण का अभाव

कम्पनी के अधिकारी, रेज़िडेंट और सर्वेक्षण अधिकारी भारतीय कलाकारों से स्थानीय जीवन, वनस्पति, जीव-जंतु, तथा राजपरिवारों के चित्र बनवाते थे। ये ही कम्पनी कला के प्रमुख उपभोक्ता थे। ऐसे में जब ब्रिटिश प्रशासन में भारतीय विषयों की रुचि कम हुई, और फ़ोटोग्राफ़ी का प्रचलन बढ़ा, तब इन कलाकारों की सेवाओं की आवश्यकता कम होती चली गई। जाहिर है ऐसे में संरक्षण समाप्त होते ही यह कला स्वतः ही अवसान की ओर बढ़ी।

फ़ोटोग्राफ़ी का आगमन

आर्चर ने विशेष रूप से उल्लेख किया है कि फ़ोटोग्राफ़ी के आविष्कार (1840 के दशक) ने कम्पनी शैली के कलाकारों को अप्रासंगिक बना दिया। ब्रिटिश अधिकारियों को अब दृश्य-स्मृति के लिए चित्रों की आवश्यकता नहीं रही; कैमरा अधिक त्वरित, सटीक और सस्ता माध्यम सिद्ध हुआ। इसने कम्पनी कलाकारों के रोज़गार पर निर्णायक आघात किया।

शैलीगत द्वंद्व और आत्मविरोध

कम्पनी चित्रकला में भारतीय लघुचित्र परंपरा और यूरोपीय यथार्थवाद का मिश्रण था। आर्चर के अनुसार यह ‘मिश्रित’ रूप दीर्घकाल तक टिक नहीं सका। भारतीय कलाकार पश्चिमी दृष्टि के अनुरूप प्राकृतिकता लाने का प्रयास तो करते थे, परंतु वे भारतीय रेखा, रंग और प्रतीकात्मकता से मुक्त नहीं हो पाते थे। इस कलात्मक असंगति के कारण न यह पूरी तरह भारतीय रही, न यूरोपीय और ऐसी स्थिति में समय के साथ इसकी पहचान धुंधली होती चली गई।

मुंशी शिवलाल की कृति (पटना कलम)

ब्रिटिश कला शिक्षा और नई संस्थाएँ

1850 के बाद भारत में कलाशिक्षा के औपचारिक संस्थान (जैसे कलकत्ता स्कूल ऑफ़ आर्ट, मद्रास स्कूल ऑफ़ आर्ट, बंबई स्कूल ऑफ़ आर्ट) स्थापित हुए। इन संस्थानों में ‘विक्टोरियन अकादमिक रियलिज़्म’ और पश्चिमी चित्रकला की तकनीकें सिखाई जाने लगीं। परिणामतः प्रशिक्षित कलाकार कम्पनी शैली को ‘पुराना’ और ‘अप्रशिक्षित’ मानने लगे, जिससे यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गई।

भारतीय समाज में आधुनिक चेतना का उदय

वहीँ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय समाज में राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक आत्मचेतना का विकास हुआ। राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों ने भारतीय पौराणिक और सांस्कृतिक विषयों को आधुनिक तकनीक में चित्रित करना आरंभ किया। इस नई भारतीय आधुनिकता ने कम्पनी शैली के औपनिवेशिक स्वरूप को अप्रासंगिक बना दिया। आर्चर की मानें तो कम्पनी शैली का अंत किसी एक घटना का परिणाम नहीं था, बल्कि यह एक सांस्कृतिक संक्रमण का प्रतीक था; जहाँ औपनिवेशिक संरक्षण समाप्त हुआ, तकनीकी माध्यम बदल गए, कलात्मक दृष्टियाँ रूपांतरित हुईं, और भारत की कला तथाकथित आधुनिकता की ओर बढ़ चली।

Source: Chatgpt and others

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