पाण्डुलिपि चित्रण के प्रमाण हमें पालकालीन मगध से मिलते हैं I लगभग बारहवीं सदी के बाद इस परम्परा का क्या हुआ, कुछ विशेष विवरण अभी उपलब्ध नहीं है I किन्तु लगभग इसी दौर में यानी बारहवीं सदी के बाद और तेरहवीं सदी के आरम्भ में इसने नेपाल की पौभा चित्रकला और तिब्बत के थंका चित्र शैली को जरुर प्रभावित किया, इतना तो स्पष्ट है I यह अलग बात है कि आज थंका शब्द हमारे लिए जितना परिचित है, उसके उलट ‘पौभा’ शब्द सामान्य जन तो क्या भारतीय कला जगत के लिए भी लगभग अपरिचित ही है I
पाल मूर्तिकला और तिब्बती कांस्य मूर्तियों के अध्ययन से इतना तो स्पष्ट है कि दोनों में तांत्रिक देवियों जैसे वज्रयोगिनी, तारा, और अवलोकितेश्वर की उपस्थिति है। और तो और पाल शैली की सौम्यता तिब्बती मूर्तियों में अलंकरण के साथ यथावत बनी रही। पाल कालीन ताड़पत्र चित्रों में जो मंडल, बोधिसत्व चित्रण और चक्र हैं — वे तिब्बती थांका में विकसित रूप में सामने आते हैं। यहाँ तक कि रंगों, मुद्रा, और मुद्रा चिह्नों की संरचना भी समान बनी रही। इसी विकास क्रम में चर्चा मिलती है नेपाल के नेवार समुदाय में पनपे पौभा चित्रकला की I पाल शैली से प्रभावित इस चित्रण परंपरा में ‘अनुपातिक देवता’, ‘अलंकरण युक्त रेखाएं’ और ‘ध्यान मुद्रा’ का स्पष्ट असर दिखता है। अलबत्ता नेपाली कलाकारों ने इसे स्थानीय रंग योजना से समृद्ध किया।
इस तरह से हम जानते हैं कि “पौभा” नेपाली बौद्ध चित्रकला की एक अत्यंत समृद्ध, पारंपरिक और विशिष्ट शैली है, जो विशेष रूप से नेवार समुदाय द्वारा विकसित की गई। यह शैली पाल वंशीय चित्रकला से गहराई से प्रभावित है और इसे तिब्बती थंका चित्रों का पूर्वज भी माना जाता है।

‘पौभा’ शब्द संस्कृत के पाट (कपड़ा) + भट्टा (चित्र) से आया है, जिसका अर्थ होता है — कपड़े पर चित्रित धार्मिक छवि। यह बौद्ध और हिन्दू दोनों परंपराओं में देवताओं, बोधिसत्वों, मंडलाओं और धार्मिक आख्यानों का चित्रात्मक रूप है।
पाल कला से साम्यता:
• दोनों में बोधिसत्वों और तांत्रिक देवताओं का चित्रण एक समान संरचनात्मक शैली में होता है।
• पाल शैली की रेखीय बारीकी, मुखाकृति की सौम्यता, और मुद्राओं की व्याख्या paubha चित्रों में स्पष्ट है।
• मंडल संरचना, ध्यान मुद्रा, और धार्मिक प्रतीकवाद — पाल से ही आये।

• नेवार कलाकारों ने पौभा चित्रों को संस्कृत अनुष्ठानों के अनुसार माप, रंग और मुद्रा प्रणाली में अनुशासित रखा।
• यह परंपरा पीढ़ियों से मौखिक और गुरु-शिष्य पद्धति के तहत चली आ रही है।
• यहाँ चित्र बनाना एक ‘पूजा’ की भाँति होता है, और चित्र पूर्ण होने पर उसे ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ की तरह ‘आँखें’ दी जाती हैं (नेपाली में “नेत्र दान”)।
दरअसल पौभा चित्रकला केवल एक धार्मिक कला नहीं, बल्कि यह दृष्टि, साधना और सांस्कृतिक स्मृति का एक चित्रमय दस्तावेज़ है। इसकी जड़ें गहरे भारतीय (पाल कालीन) सौंदर्यशास्त्र में हैं और इसकी शाखाएँ आज भी नेपाली संस्कृति में फल-फूल रही हैं।
पौभा के संदर्भ में गहन शोध आवश्यक है.
जी,सर I लेकिन संसाधन कहाँ से आएंगे सवाल तो यह भी है