इंडियन येलो यानी पियरी का अनसुलझा रहस्य !

अगर आपका भी वास्ता कला जगत से है, तो एक खास पीले रंग से आप अवश्य परिचित होंगे। जिसे दुनिया भर में इंडियन येलो के नाम से जाना जाता है, और भारतीय समाज इसे पियरी के नाम से पुकारता रहा है। सन 63 की बनी फिल्म “गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो” का शीर्षक गीत शायद आज भी आपके जेहन में गूंजता हो। जिसे स्वर दिया था स्वर कोकिला लता एवं उषा मंगेशकर ने। विश्वनाथ शाहाबादी निर्मित भोजपुरी की इस पहली फिल्म के गीत लिखे थे शैलेन्द्र ने। बहरहाल पिछले कई दशकों में इस खास रंग को तैयार करने के तौर तरीके बदल चुके हैं, किन्तु अपनी खास रंगत के कारण आज भी इसे उसी पुराने नाम यानी इंडियन येलो के नाम से दुनिया भर में जाना-पहचाना जाता है। भारतीय लघुचित्र शैली के चित्रों में इस रंग का भरपूर प्रयोग होता रहा है । हम जानते हैं कि हमारी वह लघुचित्र शैली, जिसे हम मिनिएचर पेंटिंग के तौर पर भी जानते हैं। इसके विकास में मुग़ल काल में भारत लाये गए फ़ारसी चित्रकारों की महत्वपूर्ण भूमिका है। जो कालांतर में विभिन्न स्थानीय राजघरानों के संरक्षण में राजपूत, बूंदी, किशनगढ़, काँगड़ा एवं अन्य अनेक नामों और स्वरूपों में आज भी हमारे यहाँ प्रचलित है।

तो बिहार के जनमानस में गहरे बसे इस रंग की कहानी के बिहार कनेक्शन की कुछ चर्चा आज। इस पीले रंग का क्रिस्टलीय रूप (रवा) आसानी से पानी में घुल जाता है साथ ही इसे तेल के साथ तैयार करना भी संभव रहता है। कतिपय इन्हीं कारणों से इसे परंपरागत भारतीय चित्र शैलियों के साथ-साथ यूरोपीय आयल कलर यानी तैल रंग के चित्रों में भी किया जाता रहा। चित्रों में इसे लगाने के बाद यह पीला रंग एक स्पष्ट, गहरा और चमकीला नारंगी मिश्रित पीला रंग सा प्रभाव देता है, जो अपनी प्रतिदीप्ति के कारण, सूर्य के प्रकाश में विशेष रूप से उज्ज्वल और उज्ज्वल दिखाई देता है। हालाँकि इसे एक अप्रिय गंध वाला बताया गया था। लगभग 1921 में व्यावसायिक रूप से अनुपलब्ध होने से पहले, इसका सबसे अधिक उपयोग भारत में मुगल काल में और यूरोप में उन्नीसवीं सदी में किया गया था।

बहरहाल इस पीले रंग के बारे में माना जाता है कि इसे पंद्रहवीं शताब्दी में फारस से भारत में लाया गया था। यूरोप की बात करें तो विवरण मिलता है कि शौकिया चित्रकार, रोजर ड्यूहर्स्ट ने 1786 में इस भारतीय पीले रंग को अपनाया। तब इस खास रंग की विशेष रंगत ने रोजर को इसके श्रोत के बारे में जानकारी जुटाने को प्रेरित किया। खासकर इसे तैयार करने के तौर-तरीके एवं इसमें व्यवहृत पदार्थों को लेकर। उन्होंने अपने दोस्तों को लिखे पत्रों में उल्लेख किया कि यह हल्दी खिलाये गए जानवरों के मूत्र से बना एक कार्बनिक पदार्थ हो सकता है। बहरहाल इस सबके बावजूद इसका स्रोत कई वर्षों तक रहस्य बना रहा। मेरिमी ने 1830 की पेंटिंग पर अपनी किताब में यह विश्वास नहीं किया कि यह गंध के बावजूद मूत्र से बना है। वहीँ जॉर्ज फील्ड का मानना था कि यह ऊंट के मूत्र से बना हो सकता है।

आगे चलकर 1844 में, रसायनज्ञ जॉन स्टेनहाउस ने फिलॉसॉफिकल पत्रिका के नवंबर 1844 संस्करण में प्रकाशित एक लेख में इस भारतीय पीले रंग की उत्पत्ति की जांच की। उस समय भारत और चीन से आयातित प्यूरी (पियरी) के गोले लगभग 3-4 ऑउंस की गेंदों की शक्ल में आते थे। माइक्रोस्कोप से देखने पर इसमें सुई के आकार के छोटे क्रिस्टल दिखाई दिए, जबकि इसकी गंध अरंडी के तेल जैसी थी। स्टेनहाउस ने बताया कि भारतीय पीला आमतौर पर या तो ऊंट, हाथी और भैंस सहित विभिन्न जानवरों के पित्त पथरी से बना होता है, या इनमें से कुछ जानवरों के मूत्र से तैयार होता है। उन्होंने इसके श्रोत को समझने के लिए तब एक रासायनिक विश्लेषण भी किया। जिसका निष्कर्ष था कि यह वास्तव में वनस्पति मूल का है, जो किसी पेड़ या पौधे का रस से तैयार किया जाता था।जिसे बाद में मैग्नीशिया से संतृप्त कर उबाला जाता रहा होगा।

हाल के वर्षों की बात करें तो 2002 की अपनी पुस्तक “कलर: ट्रेवल्स थ्रू पेंटबॉक्स” में विक्टोरिया फिनले ने जांच की कि क्या भारतीय पीला वास्तव में गोमूत्र से बना था। अब गोमूत्र से इसके बनाने का एकमात्र मुद्रित स्रोत टी.एन. मुखर्जी द्वारा लिखा गया वह पत्र था, जिसमें उन्होंने दावा किया था कि इस रंग को बनाते हुए देखा गया है। वैसे इसके लिए जिस तत्कालीन मुंगेर की चर्चा है वहां भी वर्तमान में इसके किसी किस्म के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। किन्तु वर्ष 2018 में टी.एन. मुखर्जी द्वारा 1883 में एकत्र किए गए एक नमूने के अध्ययन से उनकी इन टिप्पणियों को विश्वसनीयता मिलती है कि यह आम के पत्तों के आहार पर गायों के मूत्र से प्राप्त किया गया था।

जहाँ तक मुख़र्जी की रिपोर्ट की बात है तो 1886 में लंदन के सोसाइटी ऑफ आर्ट्स के जर्नल ने भारत की पियरी के रूप में जाने जाने वाले इस वर्णक की एक व्यवस्थित जांच शुरू की। इसलिए इस भारतीय पीले रंग के स्रोत का पता लगाना इसके संश्लेषण के लिए महत्वपूर्ण हो गया। हुकर ने कलकत्ता के अधिकारियों के साथ पत्र व्यवहार किया, और तब टी.एन. मुखर्जी को इसका ज़िम्मा सौंपा गया। मुखर्जी ने बिहार के मुंगेर शहर की यात्रा की और वहां से लौटकर एक रिपोर्ट दर्ज की। जिसमें उन्होंने व्यक्तिगत रूप से प्रमाणित किया था कि इस पीले रंग के ये रंजक गोमूत्र और रेत को उबालकर और फिर छानकर तैयार किये जाते हैं। दरअसल स्थानीय पशुपालक इन गायों को नदियों के किनारे रेतीले इलाके में रखते हैं, जहाँ इन जानवरों का मूत्र रेत पर गिरने के बाद सूख जाता है। बाद में गोमूत्र वाले इसी रेत को उबालकर उससे रंजक तैयार किया जाता है। यह भी उल्लेख किया कि इन गायों को विशेष तौर पर हल्दी और आम के पत्ते खिलाये जाते हैं। इस तरह उनके दावे के अनुसार इस भारतीय पीला यानी पियरी का मूल श्रोत पशुओं को माना गया। इस रिपोर्ट में मुखर्जी ने गायों की शारीरिक स्थिति का विवरण भी जोड़ा; कड़वे आम के पत्तों को जबरदस्ती खिलाने और सामान्य गोजातीय आहार से वंचित रखने के कारण ये गायें दिखने में कमजोर, बीमार और कुपोषित लगती थीं। अब चूँकि इन पशुपालकों की कोशिश रहती है कि गायें अपना मूत्रत्याग रेतीली ज़मीं पर ही कर सकें, इसके लिए कई बार सामान्य स्थितियों में उन्हें ऐसा अन्यत्र करने से रोका भी जाता है। तो हुआ यह कि मुख़र्जी की इस रिपोर्ट के बाद तत्कालीन प्रशासन द्वारा इस प्रक्रिया को पशु क्रूरता की श्रेणी में मान जाने लगा। इसके तुरंत बाद, 1890 में भारत सरकार द्वारा पारित पशु क्रूरता निवारण अधिनियम के प्रावधानों के तहत अंग्रेजों द्वारा भारतीय पीले रंग के उत्पादन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

यह स्थिति इस पीले रंग यानी इंडियन येलो के उन निर्माताओं के अनुकूल थी, जो इसका रासायनिक विकल्प तैयार करते थे। हालाँकि भारत में अंग्रेजों खासकर ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक प्राथमिकताओं को देखते हुए, यह असंभव नहीं है कि इस प्रतिबंध के पीछे व्यावसायिक कारण भी रहे होंगे। वैसे पिछली सदी के उत्तरार्ध के वर्षों की बात करें तो मुंगेर और आसपास के ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर कुसुम की खेती होती रही। हालाँकि यह एक तिलहनी फसल है, यानी इसके बीज से तेल निकाला जाता है। किन्तु इसके फूलों को सुखाकर रंग तैयार करने की बहुत पुरानी परंपरा भारत में मिलती है। वैसे यह कुसुम मानवता की सबसे पुरानी फसलों में से एक है। ज्ञात इतिहास बताता है कि इसकी खेती सबसे पहले मेसोपोटामिया में की गई थी, जिसमें सबसे पुराना पुरातात्विक प्रमाण संभवत: 2500 ईसा पूर्व के हैं। बारहवें राजवंश (1991-1802 ईसा पूर्व) के प्राचीन मिस्र के वस्त्रों के रासायनिक विश्लेषण से स्पष्ट हुआ कि इसे कुसुम से बने रंगों से रंगा गया होगा। यह भी विवरण मिलता है कि न्यू मैक्सिको में रियो ग्रांडे के साथ शुरुआती स्पेनिश उपनिवेशों ने पारंपरिक व्यंजनों में केसर के विकल्प के रूप में कुसुम का इस्तेमाल किया। तो यह भी हो सकता है कि इस पियरी या इंडियन येलो का मुख्य श्रोत कुसुम फूल की पंखुड़ियां और हल्दी रहा हो। जिसे किसी साज़िश के तहत पशु क्रूरता वाला रंग दे दिया गया हो, ताकि इसके बाजार पर प्राकृतिक उत्पाद की जगह कृत्रिम उत्पाद का बोलबाला या वर्चस्व आसानी से स्थापित किया जा सके।

-सुमन कुमार सिंह

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