ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत में पैर जमने के बाद कला की दुनिया में जो बदलाव आया उसे हम कंपनी शैली के तौर पर जानते हैं। इसी कंपनी शैली का तब एक केंद्र बना था वर्तमान पटना शहर भी। जहाँ से इस कंपनी शैली की एक शाखा पटना कलम शैली विख्यात हुयी। इस पटना कलम के बारे में जो विवरण बिहार में उपलब्ध है उसके आधार पर इसके अंतिम चित्रकार माने गए ईश्वरी प्रसाद वर्मा। उनकी लिखी पुस्तक “चित्रकला” में स्वयं वर्मा एवं पटना कलम से संबंधित विवरण कुछ यूं दर्ज़ है-
“ईश्वरी प्रसाद के पितामह यानी दादा राय साहब प्यारेलाल सूबेदार थे, और सर्वेयर थे । इनके पिता मुंशी फकीरचंद एक देशी रियासत में ऊँचे पद पर थे। मुंशी फकीरचंद बिहार से दूर परदेश में रहते थे, ऐसे में इनका लालन- पालन हुआ नाना राय शिवलाल के संरक्षण में हुआ। राय शिवलाल पटना के निवासी थे और उस जमाने के प्रसिद्ध चित्रकार थे, उनसे ही ईश्वरी बाबू ने चित्रकला सीखी। राय शिवलाल के पुरखे मुंशी मनोहर लाल देवल प्रतापगढ़ से अकबर के समय में दिल्ली आये थे और दरबार में मुसव्विर (चित्रकार) नियुक्त हुए थे। जहांगीर के समय में मुंशी मनोहर लाल को “राय” का ख़िताब मिला, और तबसे ये लोग अपने को राय कहने लगे। शाहजहां के समय तक तो वे लोग दिल्ली में रहे, पर औरंगज़ेब के समय राज्य की तरफ से ‘कला’ को प्रोत्साहन बंद कर दिया गया । उस समय उन लोगों ने मुर्शिदाबाद के दरबार में आश्रय लिया।
मुर्शिदाबाद में भी वे अधिक समय तक टिक न सके। शाह मीरन के अत्याचारों से पीड़ित होकर राय धनीराम पटना के नवाब मुहम्मद के आश्रय में आये थे और उन्होंने पटना-कलम का श्रीगणेश किया। यह वह समय था जब भारतवर्ष में अंग्रेज़ों का अधिपत्य फ़ैल रहा था। राय ईश्वरी प्रसाद के नाना राय शिवलाल की चित्रकला ने अँगरेज़ अधिकारीयों का ध्यान आकर्षित किया, और उस समय मिस्टर टेलर पटना में कमिश्नर थे । मिस्टर टेलर को चित्रकारी का शौक था और उन्होंने राय मुंशी शिवलाल का आदर किया। मिस्टर टेलर के संपर्क में आकर राय मुंशीलाल ने अंग्रेजी चित्रकला का ज्ञान प्राप्त किया । राय शिवलाल के भाई मुंशी जयराम दास भी बड़े कुशल चित्रकार थे। बिहार के चीफ कमिश्नर मिस्टर ड्वाली ने मुंशी जयराम दास को भी अंग्रेजी चित्रकला सीखने को उत्साहित किया।”
उक्त विवरण के बाद आते हैं बीसवीं सदी के पटना में, वर्ष 1939 में जन्मे सत्यनारायण लाल जी बिहार के वरिष्ठतम कलाकारों में से एक हैं। अपनी कला यात्रा के बारे में वर्ष 2017 में आयोजित अपनी एकल प्रदर्शनी के कैटलॉग में सत्यनारायण लाल लिखते है –
“उम्र के आठवें दशक में जब अपनी कला यात्रा के संघर्षमय जीवन के उतार-चढाव एवं बाधायुक्त अतीत की ओर देखता हूँ तो बीती – बातें ताज़ा हो जाती हैं। पटना सिटी की तंग गलियों की मिटटी की सोंधी खुश्बू में मेरा कलाकार मन प्रस्फुटित होने लगा। इसी मिटटी से पटना कलम पेंटिंग विश्व विख्यात थी, जो धीरे-धीरे अंतिम सांसे ले रही थी। इसी क्रम में चौघड़ा स्थित मेरे पडोसी अख्तर हुसैन साहब जो पटना कलम पेंटिंग शैली में हाथी के दांत पर पोर्ट्रेट किया करते थे, उनके पास मैं घंटों बैठकर पोर्ट्रेट बनाते देखते रहता था। प्रथम उस्ताद के रूप में उन्हीं से प्रेरणा मिली और मैं पोर्ट्रेट पेंटिंग करने लगा।”
बहरहाल सत्यनारायण लाल जी बढ़ती उम्र की किंचित समस्यायों के बावजूद लगभग स्वस्थ एवं सानंद हैं, और सपरिवार पटना सिटी एवं पाटलिपुत्र कॉलोनी स्थित आवास पर रह रहे हैं। ऐसे में उनके ऊपर वर्णित वक्तव्य के आधार पर एक सवाल तो यही बनता है कि आखिर किस आधार पर यह मान लिया गया कि पटना कलम शैली सिर्फ कायस्थों की कला थी। जबकि आज यह भी जानकारी उपलब्ध है कि एलिजा इम्पे के प्रसिद्ध “इम्पे एल्बम” के प्रमुख चित्रकार शेख जैनुद्दीन ने वर्ष 1777–1782 में इसे चित्रित किया था। जिसे कंपनी शैली के शुरुआती चित्रों में शुमार किया जाता है। इन शेख जैनुद्दीन के बारे में आज इतनी जानकारी तो है ही कि तब इन्हें पटना से कोलकाता बुलाया गया था। इस एल्बम के चित्रों के निर्माण में उनके सहायक थे भवानी दास तथा रामदास। विदित हो कि इसी कंपनी शैली से जुड़ा है पटना कलम शैली के आरम्भ का इतिहास भी। दुर्भाग्य से आज ज़ैनुद्दीन, भवानी दास एवं राम दास के बारे में हमें जो भी जानकारी मिलती है या मिल रही है वह ब्रिटेन के कला इतिहासकारों के हवाले से। जबकि बिहार का कला इतिहास क्या इतिहास भी इस हवाले से मौन ही है। अब एक और सवाल यह कि इसकी खोज-खबर आज लेगा भी तो कौन ? क्योंकि बिहार की सरकारी संस्थाओं या सरकार की ऐसी कोई रूचि तो हैं नहीं और निजी क्षेत्र में इस तरह के किसी शोध संस्थान की कल्पना भी कहीं नहीं दिखती है। जिन कुछ निजी प्रयासों को कला के क्षेत्र में आज हम देख पा रहे हैं उनकी प्राथमिकता मिथिला और आधुनिक या समकालीन कला के किंचित चर्चित नामों के इर्द-गिर्द ही घुम रही है। विगत वर्षों में पटना कलम पर कुछ पुस्तकें भी सामने आयीं हैं, लेकिन अभी तक मेरे पास ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि उनमें ज़ैनुद्दीन एवं उनके शागिर्दों का कहीं कोई ज़िक्र भी है। शायद भविष्य में ऐसा कुछ हो पाए यानी पटना कलम शैली के इन खो चुके पदचिन्हों की पहचान मुमकिन हो जाये।
पटना कलम शैली से जुड़े इन सवालों पर बिहार के वरिष्ठ पत्रकार एवं “पटना: खोया हुआ शहर” जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक अरुण सिंह जी का जवाब है-
” पटना कलम पर शोध की जरूरत बनी हुई है। अब तक पटना कलम पर पर्सी ब्राउन, पी सी मानुक ने लिखा। मिल्ड्रेड आर्चर वाली किताब ही प्रामाणिक मानी जा सकती है। लेकिन वहां भी भ्रम है। मिल्ड्रेड ने जो भी लिखा, वह पटना कलम के आखिरी महत्वपूर्ण चित्रकार प्रोफेसर ईश्वरी प्रसाद के हवाले से लिखा। अब जैसा कि ईश्वरी प्रसाद ने बतलाया और मिल्ड्रेड या अन्य इतिहासकारों ने लिखा, मनोहर कायस्थ थे और मुग़ल दरबार में थे। लेकिन पटना कलम पर विस्तृत अध्ययन करने पर कई भ्रांतियां उत्पन्न हुई हैं। अगर ये वही मनोहर हैं, जो अकबर के दरबार में थे, तो वे कायस्थ नहीं थे। मनोहर अकबर के दरबार के प्रसिद्ध चित्रकार बसावन के पुत्र थे। प्रतापादित्य पॉल द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘मास्टर आर्टिस्ट्स ऑफ़ द इम्पीरियल मुग़ल कोर्ट’ के चैप्टर 1 के दूसरे पन्ने पर अमीना ओकादा ने लिखा है, ‘बसावन मुग़ल इंडिया के महानतम चित्रकारों में थे। वे हिन्दू थे और हिंदुस्तान की सबसे छोटी जातियों में से थे।’ तो ईश्वरी प्रसाद का दावा भ्रम पैदा करता है। ऐसी स्थिति में पटना कलम सिर्फ कायस्थों के बीच प्रचलित रही है, कहना गलत होगा। यह जरूर हुआ होगा कि कायस्थ काफी संख्या में पटना कलम से जुड़े हुए थे।”
वहीँ वरिष्ठ पुराविद अरविन्द महाजन जी की राय है –
“ज्यादातर पढ़ने को मिलता है कि कंपनी शैली के चित्रकार दिल्ली से मुर्शिदाबाद गए और वहां से पटना आए। लेकिन इतिहास पढ़ने के क्रम में ज्ञात हुआ कि चित्रकारों का एक दल समकाल में पटना में बसा। इसी समय बनारस कलम भी विकसित हुई। यह कलम भी पटना जैसी ही लगती है, पर थोड़ा फर्क है। पटना म्यूजियम संग्रह में बनारस कलम के चित्र हैं। हाथी दांत के अतिरिक्त माइका पर भी चित्र बने।”
अब हाथी दांत पर चित्रण की बात करें तो इसकी विधि का वर्णन करते हुए ईश्वरी प्रसाद वर्मा लिखते हैं- “हाथी दांत पर तस्वीर बनाना हिन्दुस्तान की प्राचीन कला है जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। हाथी दन्त पर तस्वीर बनाने के पहले उसे समुद्र फेन से बहुत नरम हाथ करके रगड़ लेना चाहिए और उसकी सतह बिलकुल चिकनी बना लेनी चाहिए। जब सतह चिकनी और बराबर हो जाए तब उस पर खाका खींच लिया जाना चाहिए। खाका खींच कर उस पर रंग लगाना चाहिए।हाथी दांत के चित्रों में स्याह कलम की जरुरत नहीं। बाकी तैयारी प्रकाश और छाया के आधार पर होती है । प्रकाश का हिस्सा खाली छोड़ दिया जाता है। छाया की तरफ न्यूट्रेल टिंट और बर्न्टसाइना (भूरा रंग) मिला कर (लगा) देते हैं।”
-सुमन कुमार सिंह