पटना का शहीद स्मारक और ऑगस्टे रोडिन का “द बर्घेर्स ऑफ़ कैलिस”

1942 की अगस्त क्रांति के दौरान 11 अगस्त को पटना सचिवालय में जो घटना घटी वह पूरे देश के लिए चकित कर देने वाली थी। सचिवालय पर झंडा फहराने की कोशिश में सात स्कूली छात्र एक-एक कर ब्रिटिश पुलिस की गोलियों के शिकार हो गये। अपने झंडे की शान के लिए जान देने वाले इन निहत्थे छात्रों की याद में आज पटना विधानसभा के सामने शहीद स्मारक बना हुआ है। इस शहीद स्मारक की आधारशिला 15 अगस्त 1947 को बिहार के राज्यपाल श्री जयराम दास दौलतराम द्वारा बिहार के प्रधान मंत्री “बिहार केशरी” डॉ श्रीकृष्ण सिन्हा और उनके डिप्टी श्री अनुग्रह नारायण सिन्हा की उपस्थिति में रखी गई थी। मूर्तिकार देवी प्रसाद रायचौधरी ने राष्ट्रीय ध्वज के साथ सात छात्रों की कांस्य प्रतिमा का निर्माण किया।

विकिपीडिया के अनुसार तकनिकी कारणों से इन कांस्य प्रतिमाओं की ढलाई इटली में की गयी थी और बाद में यहाँ स्थापित की गईं। किन्तु अपनी पुस्तक “पटना: खोया हुआ शहर “ में वरिष्ठ पत्रकार अरुण सिंह जी लिखते हैं:- “एक साथ कांसे की इतनी मूर्तियों का संयोजन भारत में संभवतः इसके पहले कहीं नहीं हुआ था।साथ ही कांसे की ढलाई का काम भी पहली बार हो रहा था। सो कला जगत में इसकी चर्चा होने लगी । इस खबर ने देवघर स्थित “युगांतर” बांग्ला दैनिक के संवाददाता श्री राधिका रॉयचौधरी का भी ध्यान आकृष्ट किया। वे पटना आये। उन्होंने शहीद स्मारक की निर्माण प्रक्रिया देखी और उसकी एक बड़ी ही रोचक रपट लिखी। यह रपट 24 अक्टूबर, 1956 ई. के युगांतर में छपी थी। “
इसके आगे अंत में राधिका रॉयचौधरी बताते हैं –“इसके पूर्व भी देवी बाबू ने बड़ी-बड़ी मूर्तियां बनायीं हैं। वे सारी विदेशों से ढलकर आती थीं । पहली बार इतनी विशाल मूर्ती को उन्होंने अपने सामने एक लगभग नामालूम कारीगर से ढलवाया है। जी. मुसलामुनी अभी तक छोटे-छोटे खिलौने की ढलाई का काम ही किया करते थे। देवीप्रसाद ने उनका काम देखा था। उनकी योग्यता देखकर उसे अपने निर्देशन में इतने महत्वपूर्ण काम करने का सुअवसर दिया।”
मेरी समझ से इन बातों, कहानियों या इतिहास से प्रत्येक प्रबुद्ध बिहारवासी लगभग परिचित ही है। लेकिन क्या इस प्रतिमा का कोई रिश्ता फ्रांस के महान मूर्तिकार ऑगस्टे रोडिन के मूर्तिशिल्प शैली से भी है ? आईये जानते हैं इससे जुडी कुछ बातें और कोशिश करते हैं उन साम्यताओं की तलाश की भी। जो पटना में स्थित इस मूर्तिशिल्प को जोड़ता प्रतीत होता है फ्रांस में स्थित एक मूर्तिशिल्प से।

 

देबी प्रसाद रॉय चौधरी (1899-1975) “मोस्ट एक्सीलेंट आर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर” से सम्मानित भारतीय मूर्तिकार और चित्रकार थे। ललित कला अकादमी, नयी दिल्ली के वे संस्थापक अध्यक्ष थे। अपने जिन कांस्य मूर्तिशिल्पों के लिए वे आज भी जाने जाते हैं, उनमें ” ट्राइंफ ऑफ लेबर”, दांडी मार्च” और पटना का “शहीद स्मारक” शामिल हैं। कतिपय इन्हीं कारणों से उन्हें आधुनिक भारतीय कला विशेषकर मूर्तिकला के प्रमुख कलाकारों में गिना जाता है। कला के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उन्हें 1958 में पद्म भूषण के तीसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित भी किया।

रॉय चौधरी का जन्म 15 जून 1899 को ब्रिटिश भारत (वर्तमान बांग्लादेश में) के अविभाजित बंगाल के तेज हाट, रंगपुर में हुआ था और उन्होंने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई यहीं से की थी। इसके बाद चित्रकला में उनके पहले गुरु बने प्रसिद्ध चित्रकार व कलागुरु अबनिंद्रनाथ टैगोर। वहीँ मूर्तिकला में उनके पहले गुरु थे हीरामणि चौधरी। कलकत्ता के बाद वे आगे के प्रशिक्षण के लिए इटली चले गए। इस अवधि के दौरान उनकी कला पर पश्चिमी प्रभाव की शुरुआत हो चुकी थी। भारत लौटकर वे उस बंगाल स्कूल शैली से जुड़ गए जिसे भारतीय कला के पुनर्जागरण के तौर पर देखा जाता है । 1928 में एक छात्र के तौर पर वे तत्कालीन मद्रास के मद्रास कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स से जुड़े, जहाँ बाद में उन्होंने एक अध्यापक से लेकर विभाग के प्रमुख, उप-प्राचार्य और प्रिंसिपल की भूमिका को भी अंजाम दिया। जहाँ वे 1958 तक यानी अपनी सेवानिवृति तक रहे, इसी दौरान 1937 में ब्रिटिश सरकार द्वारा (एमबीई) “मोस्ट एक्सीलेंट आर्डर ऑफ़ द ब्रिटिश एम्पायर” का विशेष सम्मान भी हासिल हुआ । वर्ष 1954 में जब ललित कला अकादमी, नै दिल्ली की स्थापना हुई, तो उन्हें संस्थापक अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया।इतना ही नहीं 1955 में टोक्यो में आयोजित यूनेस्को कला संगोष्ठी और चेन्नई में वर्ष 1956 में आयोजित “निखिल भारत बंगीय साहित्य सम्मेलन” की अध्यक्षता भी की।

अपने मूर्तिशिल्पों में रॉय चौधरी प्रसिद्ध फ्रांसीसी मूर्तिकार ऑगस्टे रोडिन के मूर्तिशिल्प शैली और संयोजन से बेहद प्रभावित थे। इन फ्रांकोइस अगस्टे रेने रोडिन (12 नवंबर 1840 – 17 नवंबर 1917) को आम तौर पर आधुनिक मूर्तिकला का संस्थापक माना जाता है। उन्होंने पारंपरिक रूप से स्कूली शिक्षा प्राप्त की और अपने काम के लिए एक शिल्पकार जैसा दृष्टिकोण अपनाया। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में ‘थिंकर’, ‘मोन्यूमेंट टू बालज़ाक”, “द किस”,”द गेट्स ऑफ़ हेल” एवं “द बर्घेर्स ऑफ़ कैलिस” ( कैलिस के नगरवासी) हैं।

रॉडिन ने अपने मूर्तिशिल्पों की रचना में प्रचलित और पारम्परिक अलंकारिता के बजाय मानव शरीर की स्वाभाविक भंगिमाओं को अपनाया, जिसकी वजह से उनके मूर्तिशिल्प के चरित्र अपनी निजी पहचान के साथ सामने आते हैं। हालाँकि इसके कारण उन्हें विवाद और दबाब का भी सामना करना पड़ा किन्तु उन्होंने अपनी शैली में बदलाव से इनकार कर दिया। अंततः बाद में शासन सत्ता से लेकर कलाकार समुदाय का भरपूर समर्थन उनके प्रयोगों को मिला। 1900 तक, वह एक विश्व प्रसिद्ध कलाकार माने जाने लगे। उनके छात्रों में एंटोनी बोर्डेल, कॉन्स्टेंटिन ब्रैंकुसी और चार्ल्स डेस्पियाउ शामिल थे। रोडिन अपने समय के उन कुछ चुनिंदा मूर्तिकारों में से एक थे जिनकी प्रसिद्धि कला समुदाय के बाहर भी रही। बहरहाल बात करें रॉडिन के उस खास मूर्तिशिल्प की जिसने मूर्तिकला संयोजन की शैली को बदलकर रख दिया। समझा जाता है कि उनके इस शैली का प्रभाव देवीप्रसाद रॉयचौधरी के मूर्तिशिल्प संयोजनों पर भी दिखता है। दरअसल इस खास मूर्तिशिल्प से पहले सामान्य तौर पर एक या दो आकृतियों को लेकर मूर्तिशिल्प संयोजित किया जाता रहा था।

“द बर्घेर्स ऑफ़ कैलिस” (फ्रांसीसी: लेस बुर्जुआ डी कैलाइस) यानी “कैलिस के नगरवासी” अगस्टे रॉडिन का एक प्रसिद्ध मूर्तिशिल्प है। जो 1337 से 1453 लगभग सौ साल तक चले उस युद्ध के दौरान एक घटना की याद दिलाता है, जब इंग्लिश चैनल पर अवस्थित एक फ्रांसीसी बंदरगाह कैलिस ने ग्यारह महीने की घेराबंदी के बाद अंग्रेजी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। शहर प्रशासन ने रोडिन को 1884 में मूर्तिकला बनाने के लिए नियुक्त किया और यह मूर्तिशिल्प 1889 में बनकर तैयार हुआ। तब इस मूर्तिशिल्प की बारह प्रतिकृतियां बनायीं गयीं थी। इस लम्बी चली लड़ाई का किस्सा कुछ यूं है :- 1346 में, इंग्लैंड के एडवर्ड III की सेना ने क्रेसी की लड़ाई में जीत के बाद, कैलिस शहर को घेर लिया।उधर फ्रांस के तत्कालीन शासक फिलिप VI हर कीमत पर इस शहर को अपने नियंत्रण से जाने देना नहीं चाहते थे। लेकिन फिलिप इस घेराबंदी को ख़त्म कराने में विफल रहे, और भुखमरी से त्रस्त होकर जनता आत्मसमर्पण के लिए बातचीत को मजबूर हो गयी।

समकालीन इतिहासकार जीन फ्रोसार्ट (1337- 1405) इस घटना को कुछ इस तरह बयां करते हैं, कि बातचीत के क्रम में एडवर्ड शहर के लोगों की जान बख्शने की पेशकश करता है। लेकिन उसकी शर्त है कि शहर के छह नेता खुद को उसके सामने आत्मसमर्पण कर दें। जो परिस्थितियां थीं उसमें लगभग यह तय माना जा रहा था कि उन सबों को मार डाला जाएगा। एडवर्ड की मांग थी कि वे सभी अपने गले में फांसी का फंदा पहने और हाथों में शहर और महल की चाबियां लेकर बाहर आ जाएँ। शहर के सबसे धनी नागरिकों में से एक यूस्टाचे डी सेंट पियरे सबसे पहले स्वेच्छा से आगे आये और फिर उनके साथ पांच अन्य नागरिक जुड़ गए। सेंट पियरे इन आत्मा बलिदानियों को लेकर नगर के मुख्य द्वार तक आये। यह वह क्षण था जहां हार का अवसाद, आत्म-बलिदान का जज्बा और आसन्न मृत्यु का सामना करने की इच्छा इन नगरवासियों के चेहरे पर सिमट आया था। इस मार्मिक क्षण की मिश्रित भावनाओं को रॉडिन ने अपनी इस मूर्तिकला में सफलता पूर्वक दर्शाया है।

फ्रोसार्ट की कहानी के अनुसार, इन शहरवासियों को यकीन था कि उन्हें मार ही दिया जायेगा। लेकिन शायद नियति ऐसा नहीं चाहती थी। हुआ यह कि इस घटना की जानकारी इंग्लैंड की रानी, ​​हैनॉल्ट के फिलिपा तक पहुंची और उनके हस्तक्षेप से इन सबों की जान बख्शी गयी । रानी ने अपने पति को यह कहकर दया के लिए राजी किया कि इन छह आत्म-बलिदानियों की मृत्यु उसके गर्भ में पल रहे अजन्मे बच्चे के लिए एक अपशकुन होगा।

-सुमन कुमार सिंह

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