गायतोंडे: क्या करें कि जब हों बयां जुदा-जुदा

इतिहास की बात करें तो आसान शब्दों में कहा जा सकता है कि यह हमें वर्तमान में बैठकर बीते हुए काल, समय या अवधि को जानने समझने में हमारी मदद करता है। या इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि तथ्यों प्रमाणों के आधार पर यह बीते हुए समय को वर्तमान से जोड़ता है। वैसे इससे जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि कई बार सदियों से चली आ रही धारणाएं या व्याख्याएं अचानक बदल जाती हैं। अलबत्ता अक्सर ऐसा तभी होता है कि जब कोई नवीन पुरातात्विक खोज हमारे सामने आता है या पुराने किसी खोज की नई व्याख्या हमारे सामने आती है। मसलन कला इतिहास की बात करें तो एक समय था जब भारतीय उपमहाद्वीप का कला इतिहास पूर्व मौर्य काल से व्याख्यायित होता था। किन्तु उसके बाद जब एक खुदाई के क्रम में बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध, यानी 1920 में सिन्धु घाटी सभ्यता हमारे सामने आई तब एकाएक इतिहास की पुरानी व्याख्याओं में से बहुत कुछ बदल गया। बाद के दशकों की बात करें तो पहले तो हरियाणा स्थित राखीगढ़ी उत्खनन और हालिया वर्षों में मेरठ के पास के सुनौली कस्बे के उत्खनन ने भारतीय इतिहास में एक नए अध्याय का जन्म दिया।

वैसे बात अगर अपने आधुनिक कला इतिहास की करें तो जिस बड़ी विडंबना से हमारा सामना होता है, वह है सिलसिलेवार कला लेखन का नहीं होना। क्योंकि जो कुछ भी हुआ है वह काफी कुछ अपर्याप्त सा है। बहरहाल इसमें एक बड़ा बदलाव अब यह देखने को मिल रहा है बीते कुछ दशकों से खासकर अपनी इस 21 वीं सदी के आते -आते कला लेखन में बढ़ोत्तरी तो हुई ही, कुछ नए प्रयोग भी सामने आए या कहें कि आ रहे हैं। इनमें से एक है कलाकारों पर कॉफी टेबल बुक से लेकर कला जगत से जुड़े संस्मरणों का लिखा जाना।

इन पुस्तकों व संस्मरणों के जरिए अक्सर ऐसी बहुत सी जानकारियां हमारे सामने आ जाती हैं, जो सामान्य तौर पर अकादमिक लेखन या परंपरागत कला समीक्षाओं को पढ़ते हुए नहीं मिल पाता है। ऐसे में देखा जाए तो इन संस्मरणों का अकादमिक महत्व भले ही कुछ कम आंका जाए, लेकिन किसी देश-काल या परिस्थितियों को समझने या समझाने में यह विशेष तौर पर मददगार होतीं हैं। लेकिन क्या हो जब दो अलग -अलग संस्मरणों में किसी एक ही घटना का ब्योरा जुदा-जुदा हो, वह भी किसी ऐसे कलाकार से जुड़ा मामला, जिसने भारतीय कला के वैश्विक पहचान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो। यहां हम बात कर रहे हैं भारतीय समकालीन कला में अमूर्तन के प्रवर्तक माने जाने वाले कलाकार वी. एस. गायतोंडे की। तो मामला यह है कि पीयूष दईया द्वारा वर्ष 2011 में लिखी गयी पुस्तक “सफेद स(ा)खी” में गायतोंडे की अंत्येष्टि के समय की मार्मिक व भावनात्मक घटना का जिक्र कलाकार/ कला लेखक मनीष पुष्कले के हवाले से कुछ यूं आता है-

चिता की लौ थोड़ी नीचे हो चली थी। बगल से दाह संस्कार कराने वाले पण्डित जी गुजरे। मैंने पूछा-”कपाल-क्रिया तो हुई नहीं ?” वे बोले- “उनको बुलायें जिन्होंने मुखाग्नि दी है।” मैंने कहा-”मुझे नहीं पता।” कोई दिख नहीं रहा था। मैं जानता भी नहीं था। बाद में पता चला था कि जिन्होंने मुखाग्नि दी, वे देवराज थे।
मैं सबके बीच अनजान जैसा ही था।
पण्डित जी ने मुझे बगल में रखा बांस का एक टुकड़ा दिया। कहा – “कपाल-क्रिया करो।” मैंने वह बांस बिना कुछ सोचे- समझे झट से उठा लिया। जैसा मुझे करने को कहा, मैंने वैसा किया। लकड़ी की राख में कपाल की हड्डी तक दिख रही थी- मैंने प्रहार कर दिया। वह चिता के अंदर और धंस गयी। मैं वापस पत्थर पर आकर बैठ गया। मैंने अपने जीवन में पहली बार कपाल-क्रिया की। न जाने कौन सा ऋण अनजाने ही चुका दिया।

अब इसी प्रसंग का जिक्र अपने वरिष्ठ कला समीक्षक विनोद भारद्वाज की हालिया प्रकाशित पुस्तक “यादनामा” में वरिष्ठ प्रिंटमेकर देवराज डाकोजी के हवाले से कुछ यह है- 

गायतोंडे का एक कमाल का कैनवस देखा। मैं थोड़ी देर के लिए सारी अमेरिका की अमूर्त कला को भूल गया।
एक शाम मास्टर प्रिंटमेकर डाकोजी देवराज के घर डिनर पर गया, तो मैंने उन्हें उस चित्र के जादू के बारे में बताया। देवराज ने बताया गायतोंडे की विदाई के समय शमशान घाट में उनकी मित्र ममता के कहने पर कपाल क्रिया को उन्हें ही करना पड़ा था।

अब ऐसे में किसी आम पाठक की दुविधा को आसानी से समझा जा सकता है। जब हमारे समय के दो महत्वपूर्ण लेखक किसी एक ही घटना का ब्योरा दो भिन्न कलाकारों के हवाले से जुदा-जुदा दें, या उनके विवरण काफी भिन्न हों। क्योंकि इस बात से अधिकतर लोग वाकिफ हैं कि सनातन परंपरा में मृतक की कपाल क्रिया एक ही बार होती है। अपने अंचल की परंपरा को याद करता हूं तो यही याद आता है कि सामान्य तौर पर इस रस्म को वही व्यक्ति निभाता है, जो मुखाग्नि देता है। बहरहाल यूं तो यह एक अत्यंत दु:खद प्रसंग है, जिसकी चर्चा होनी नहीं चाहिए। खासकर इसलिए भी कि इस विवरण का हमारे समकालीन कला में गायतोंडे के योगदान से कहीं कोई लेना-देना नहीं है। उनका महत्व अपनी जगह बरकरार है और आनेवाली पीढि़यां भी उन्हें अमूर्तन के प्रवर्तक के तौर पर ही याद रखेंगी। लेकिन इस तरह के उदाहरण से लेखन की विश्वसनीयता पर संदेह तो बनता ही है। खासकर उस स्थिति में जबकि दोनों लेखकों की अपनी विशेष साख हो, ऐसे में तो हमें बस यही इंतजार रहेगा कि उक्त घटना का कोई अन्य प्रत्यक्षदर्शी सामने आकर अपनी बात सामने रखे। तब तक के लिए तो यक्ष प्रश्न यही रहेगा कि इस कपाल क्रिया में सच की कपाल क्रिया जाने-अनजाने में आखिर किसके हाथों हुई ?

क्योंकि इतना तो तय है कि आगे चलकर इसी वर्तमान को इतिहास बनना है। तब शायद यह प्रश्न एक उलझन बनकर बारंबार सामने आता रहेगा।

आवरण चित्र : वी. एस. गायतोंडे, चित्र गूगल के सौजन्य से

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