साभार प्रस्तुत है “आर्ट एंड इमेजिनेशन” शीर्षक से अंग्रेजी में प्रकाशित विस्तृत आलेख का हिंदी में सार-संक्षेप I उम्मीद है कलाकारों एवं कला प्रेमियों के लिए यह उपयोगी साबित होगा I – संपादक
लेखक: निक विल्टशर और ऐरन मेस्किन
“कला” और “कल्पना” शब्दों का इतिहास काफी समान रहा है। पुराने समय के दार्शनिक जैसे अनुभववादी, तर्कवादी, कांट और उनके बाद के विचारक यह मानते थे कि कल्पना इंसानी सोच का एक जरूरी और एकजुट हिस्सा है। इसी तरह, पहले के सौंदर्यशास्त्री मानते थे कि कला से जुड़े सभी सवाल — जैसे कला क्या है ? उसका मूल्य क्या है ? उसे कैसे समझा जाए ? इन सबका उत्तर एक ही सिद्धांत से दिया जा सकता है।
किन्तु 20वीं और 21वीं सदी में यह सोच बदल गई। अब कला को किसी एक सिद्धांत में बाँधना मुश्किल हो गया है क्योंकि आजकल कला के कई रूप प्रचलित हैं । यूरोपीय परंपरा में “मिनिमलिज़्म” और “कॉन्सेप्चुअलिज़्म” जैसी धाराओं ने कला की पारंपरिक समझ को चुनौती दी है। अब कला सिर्फ संगीत, साहित्य या चित्रकला तक सीमित नहीं रह गई है। नए नए रूप और शैलियाँ लगातार उभर रही हैं, जिससे इसे समझना और भी कठिन हो गया है।
इसी तरह कल्पना को भी अब एक एकल क्षमता मानना मुश्किल हो गया है। लोग कल्पना के बहुत से अलग-अलग रूपों की बात करते हैं। इस कारण अब यह नहीं कहा जा सकता कि “कल्पना” शब्द किसी एक खास मानसिक क्रिया को ही दर्शाता है। इसलिए अब दार्शनिक एक साधारण और विनम्र दृष्टिकोण अपनाते हैं। अब वे कहते हैं कि कला के किसी विशेष पहलू को समझने के लिए कल्पना के किसी खास रूप की जरूरत होती है।
कला की रचना :
कल्पना दो तरह की हो सकती है — एक, जो हम दूसरों के विचारों को समझने के लिए दोहराते हैं, उनमें से एक है पुनः सृजनात्मक कल्पना (re-creative imagination), और दूसरी, जिससे हम कुछ नया सोचते या बनाते हैं वह है रचनात्मक कल्पना (creative imagination)।

चूँकि कलाकृति बनाना एक रचनात्मक (creative) प्रक्रिया है। इसलिए बहुत से लोग मानते हैं कि कल्पना और कला की रचना के बीच गहरा रिश्ता है। दार्शनिक बेरीस गौट मानते हैं कि कल्पना और रचनात्मकता का संबंध ज़रूरी तो नहीं, लेकिन महत्वपूर्ण है। वहीँ कांट का मानना था कि महान कलाकारों में एक खास प्रतिभा होती है — वे ऐसी “सौंदर्य कल्पनाएँ” बना सकते हैं जिन्हें किसी भी तयशुदा नियम में नहीं बाँधा जा सकता। रोमांटिक आंदोलन, जो कांट के बाद आया, यह इस विचार को और आगे बढ़ाता है। कोलेरिज जैसे कवियों ने इस कल्पना को दो भागों में बाँटा — “fancy” (साधारण कल्पना) और “imagination” (रचनात्मक कल्पना)। वहीँ कोलिंगवुड नामक दार्शनिक ने इस सोच की आलोचना की। क्योंकि उनके अनुसार कला की रचना “भावना की कल्पनाशील अभिव्यक्ति” है।
कोलिंगवुड के अनुसार इंसानी अनुभव के तीन स्तर होते हैं:
- मनोवैज्ञानिक स्तर: अनुभव, भावना, संवेदना
- कल्पनात्मक स्तर: भावना पर ध्यान केंद्रित कर उसे स्पष्ट रूप देना
- विचार स्तर: विचारों को नाम देना, उन्हें वर्गीकृत करना
अतः कला का सार है — अपनी भावनाओं को कल्पना के ज़रिए स्पष्ट रूप देना।
कला का अस्तित्व :
जब हम कलाकृतियाँ बनाते हैं, तो सवाल आता है कि आखिर असल में हम बनाते क्या हैं? कुछ लोग मानते हैं कि कला केवल भौतिक वस्तुएँ हैं, लेकिन यह सभी प्रकार की कला पर लागू नहीं हो सकता। जैसे कविताएँ, नाटक, संगीत आदि। वहीँ कुछ दार्शनिक मानते हैं कि कला-कृतियाँ “कल्पनात्मक वस्तुएँ” होती हैं। कोलिंगवुड का ” आदर्श सिद्धांत” कहता है कि कला-कृति असल में एक मानसिक वस्तु होती है — कल्पना से बनाई गई।
रिचर्ड वोलहेम तो इस विचार से भी सहमत नहीं हैं — उन्होंने कहा कि कला में भौतिक माध्यमों की भूमिका आवश्यक है। कुछ तो कोलिंगवुड के इस कथन से भी सहमत दिखते हैं कि कला में “बाहरी अभिव्यक्ति” भी ज़रूरी है — यानी कला केवल मन की चीज़ नहीं है, बल्कि उसकी सार्वजनिक प्रस्तुति भी महत्वपूर्ण है।
कल्पनात्मक सराहना :
ऐसे में सवाल उठता है कि अगर कला कल्पना से बनी है, तो उसे समझने के लिए भी कल्पना की जरुरत होगी ।
कुछ समस्याएँ:
- भौतिक कला-कृति का महत्व कम हो सकता है
- आलोचनात्मक मतभेद संभव नहीं रहेंगे
रिडले का मानना है कि कोलिंगवुड की कल्पना वाली सोच इन समस्याओं से बच सकती है। कल्पना वह सेतु है जो सामान्य अनुभव और कलात्मक अनुभव के बीच फर्क लाती है। लेकिन अगर कला केवल एक कल्पनात्मक अनुभव बन जाए, तो वह अद्वितीय नहीं रह जाएगी — जो हमारी सामान्य समझ से टकराता है। कोलिंगवुड यह भी मानते हैं कि एक खास भावना को व्यक्त करने के लिए केवल एक ही सही माध्यम हो सकता है।
वैकल्पिक दृष्टिकोण:
डुफ्रेन कहते हैं कि कलात्मक अनुभव में कल्पना की भूमिका कम होती है — क्योंकि कलाकार पहले से ही वह स्पष्टता दे देता है जो सामान्य देखने में कल्पना से पूरी करनी पड़ती है।
कला की सराहना में कल्पना :
कई बार कला को समझने के लिए कल्पना की जरूरत होती है:
- चित्रों को समझना
- साहित्य में लेखक की नीयत का अनुमान लगाना
- संगीत में भावनाओं की कल्पना करना
जहाँ कांट कहते हैं कि सुंदरता और उदात्तता की सराहना कल्पना और समझ के खेल से होती है। वहीँ एमी मुलिन के अनुसार, अगर कला नैतिक दृष्टि से हमें बेहतर बनाती है, तो वह हमारी “नैतिक कल्पना” को सक्रिय करके ऐसा करती है। जबकि स्क्रूटन के अनुसार: कल्पना “बिना दावे वाला विचार” होती है — जिससे हम प्रतीक और कला को समझते हैं। तो एमिली ब्रैडी का कथन है कि “ प्रकृति की सुंदरता की सराहना भी कल्पना के बिना अधूरी है।“
विभिन्न कलाओं में कल्पना की भूमिका :
फिल्म: वॉल्टन के अनुसार: फिल्म देखना “यकीन दिलाने” का अनुभव है — क्योंकि यहाँ हम कल्पना करते हैं कि हम वास्तव में दृश्य देख रहे हैं। वहीँ करी के अनुसार यह ” अवधारणात्मक कल्पना” है — एक ऐसा कल्पनात्मक अनुभव, जो प्रत्यक्ष देखने जैसा है।
वीडियो गेम: कुछ लोग कहते हैं कि यह भी कल्पना आधारित होते हैं। वेलेमन कहते हैं: यह ” आभासी खेल ” है — जिसमें हम अपने अवतार के जरिए “वास्तव में” कुछ करते हैं। लेकिन कई लोग इसे भी वॉल्टन के यकीन दिलाना से जोड़ते हैं।
साहित्य: एडिसन और रीड के अनुसार पढ़ना “मन की आँखों से चित्र देखना” है। वहीँ किवी के अनुसार, पढ़ना ” मन के कान में कहानी सुनाने जैसा ” है — यानी हम मन में सुनते हैं।
निष्कर्ष: कल्पना और कला का संबंध हर कला रूप में मौजूद है — और यही इन्हें अर्थपूर्ण भी बनाता है।
पठनीय.