जैसा कि इससे पूर्व के अपने पोस्ट में बिहट, बेगुसराय में आयोजित कला प्रदर्शनी के बारे में चर्चा की है, युवाओं में नौकरी पाbihat लेने के बाद भी कला सृजन से जुड़ाव का बना रहना मुझे भविष्य की संभावनाओं के प्रति आश्वस्त करता है I क्योंकि किसी भी सृजन की पहली आवश्यकता है कलाकार के अन्दर अपनी अभिव्यक्ति के प्रति बेचैनी और निरंतरता का बना रहना I आज इस श्रृंखला की पहली कड़ी के तौर पर प्रस्तुत है यह पोस्ट I विदित हो कि बिहार म्यूजियम, पटना की स्थापना के साथ-साथ राज्य ललित कला अकादेमी की हालिया सक्रियता आशान्वित करती है I बिहार म्यूजियम में इन दिनों देश के वरिष्ठ कलाकार अशोक तिवारी के कलाकृतियों की रेट्रोस्पेक्टिव प्रदर्शनी चल रही है I साथ ही राज्य ललित कला अकादेमी की दीर्घा में द्वितीय राज्य स्तरीय प्रदर्शनी भी जारी है I इसी बीच 18 से 20 अप्रैल तक के लिए कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के परिसर में “फोकार्टोपीडिया” के बैनर तले तीन दिवसीय अखिल भारतीय लोक चित्रकला प्रदर्शनी आयोजित की गयी I इस दौरान दो दिन के लिए “ओसारा टॉक” के तहत कला संवाद भी आयोजित किया गया I इन तमाम घटनाओं-परिघटनाओं के परिप्रेक्ष में कहा जा सकता है कि राज्य में कला के प्रति एक ऐसे सकारात्मक माहौल का निर्माण हुआ है I जिसकी सुखद परिणति है बिहट, बेगुसराय जैसे कस्बाई शहर में इस बड़ी प्रदर्शनी का आयोजित होना I सीमित संसाधनों के बावजूद एक ऐसी प्रदर्शनी का आयोजन जिसमें देश के विभिन्न हिस्सों के कलाकारों के साथ-साथ पड़ोसी देश नेपाल के कलाकारों ने भी उत्साह पूर्वक सहभागिता निभाई I
इस आलोक में जिस बात की सख्त आवश्यकता महसूस करता हूँ कि अब राज्य के कला प्रेमियों, वरिष्ठ कलाकारों के साथ-साथ बिहार सरकार के संस्कृति मंत्रालय की तरफ से इनका मार्गदर्शन किया जाए I साथ ही उत्साहवर्द्धन के लिए सरकार की तरफ से योजनायें भी लायीं जाएँ I संयोग से इस आलेख की पहली कड़ी में जो दो शुरुआती नाम शामिल किये गए हैं, वे हैं इन्द्रावती पाठक और वीरेन्द्र कुमार नागर I इन दोनों युवाओं में कई समानताएं हैं जिनमें से एक तो यह कि दोनों कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना से कला विषय में स्नातक हैं I वैसे इन्द्रावती ने स्नातक के बाद की उच्च शिक्षा काशी विद्यापीठ, वाराणसी से भी ग्रहण की है I इसके साथ ही जो दूसरी चीज इन्हें एक दुसरे से जोडती है, वह है अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए भारतीय लोक एवं परंपरागत कला शैली का चयन I जहाँ तक मेरा अपना अनुभव है कि लोक या परंपरागत कला शैलियों से प्रभावित होने के अपने फायदे भी हैं, साथ ही यह अपनी जमीन से जुड़े रहने के आकर्षण को भी दर्शाता है I किन्तु कला की अकादमिक शिक्षा से निकले कलाकारों के लिए यहाँ एक बड़ी चुनौती भी सामने आ जाती है, वह यह कि लोक एवं परंपरागत शैली के अधिकांश कलाकार पीढ़ी दर पीढ़ी इससे जुड़े रहते हैं I ऐसे में ज्यादातर कलाकार अपनी बाल्यावस्था से ही इसका अभ्यास शुरू कर चुके होते हैं I जिसके कारण रूपाकारों और रेखाओं पर उनकी पकड़ गहरी हो चुकी होती है I ऐसे में अकादमिक शिक्षा से निकले कलाकारों के लिए वैसी सिद्धहस्तता पाना बेहद चुनौतीपूर्ण हो जाता है I
बात करें इन्द्रावती के दो कृतियों की, जिनमें से एक का शीर्षक है “कृष्ण” I पहली नज़र में ही यह स्पष्ट हो जाता है कि यह परम्परागत पिछवई या पिछवाई शैली की अनुकृति है I हम जानते हैं कि पिछवाई या पिछवई का शाब्दिक अर्थ है ‘वह जो पीछे से लटकता है’ या लटकाया जाता है I इस तरह के चित्र परम्परागत तौर पर पुष्टिमार्ग भक्ति परंपरा के हिंदू मंदिरों में लटकाने के लिए बनाए जाते हैं I इतिहास बताता है कि इस चलन की शुरुआत विशेष रूप से राजस्थान के नाथद्वारा में श्रीनाथजी मंदिर से हुयी, जिसका निर्माण लगभग 1672 में हुआ था। यहाँ श्रीनाथजी की प्रतिमा के पीछे इस शैली से निर्मित चित्र को लटकाया जाता है, इसके अंतर्गत श्री कृष्ण की लीलाओं का अंकन किया जाता है I इस शैली को नाथद्वारा लघुचित्र शैली से जाना जाता है I वहीँ दुसरे चित्र का शीर्षक है “देवी”, पहले वाले चित्र की तरह इसे सीधे-सीधे किसी लघुचित्र शैली से जोड़कर तो नहीं देखा जा सकता है I किन्तु मुखाकृति से लेकर केश विन्यास और आभूषणों के आधार पर यह भारतीय मूर्तिशिल्प परंपरा से प्रेरित अवश्य लगता है I जाहिर है इन चित्रों के निर्माण के पीछे कलाकार की कोशिश अपने सुदीर्घ कला परंपरा से अपने को जोड़ने का रहा हो, किन्तु इस क्रम में समकालीन कला की जो पहली प्राथमिकता कही जाती है; उसका अनुपालन नहीं हो पाया है I पहली प्राथमिकता यानी अपनी कृतियों के माध्यम से कलाकार की वैयक्तिक पहचान I किन्तु चूँकि इन्द्रावती ने हाल में ही पानी कला शिक्षा पूर्ण की है, ऐसे में उनके पास पर्याप्त समय है कि कला कर्म में अपनी निरंतरता बनाये रखकर वह इसे हासिल कर सकें I किन्तु इसके लिए उन्हें समकालीन कला प्रवाह से अवगत रहना होगा I शुभकामनायें
बीरेंद्र नागर के चित्रों में एक का शीर्षक है “यक्षिणी” I भारतीय परंपरा में बौद्ध, जैन और ब्राह्मण (हिन्दू) तीनों में यक्ष-यक्षिणी का जिक्र आता है I इन्हें यहाँ अर्द्ध देवता माना जाता है यानि मनुष्य से उच्चतर और देवताओं से कमतर I यक्षों को जहाँ प्राकृतिक संसाधनों के रक्षक के तौर पर चिन्हित किया जाता है वहीँ यक्षिणी को नारी सौन्दर्य के तमाम प्रतिमानों से युक्त चित्रित या वर्णित किया गया है I बिहार म्यूजियम में सब्ग्राहित दीदारगंज यक्षिणी तो नारी सौन्दर्य की सर्वश्रेष्ठ प्रतिमान मानी जाती है I देश के विभिन्न हिस्सों से प्राप्त शालभंजिका की अनेक ऐसी प्रतिमाएं हैं, जो नारी सौन्दर्य और लावण्य को भलीभांति अभिव्यक्त करती हैं I बीरेंद्र ने जिस यक्षिणी की जिस मुद्रा को प्रस्तुत किया है, वह अत्यंत प्रभावकारी है I वहीँ इसके निरूपण में रंग और रेखाओं पर कलाकार की पकड़ और सिद्धहस्तता भी स्पष्ट है I “राधाकृष्ण” शीर्षक वाली दूसरी कृति भारतीय लघुचित्र शैली से प्रभावित है I यहाँ भी मेरी समझ से कलाकार के सामने वही चुनौती है, जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है I यानि परम्परागत कलाकारों से स्पर्धा वाली I किन्तु बीरेंद्र से भी उम्मीद की जा सकती है कि वे इन चुनौतियों से पार पाते हुए सृजन पथ पर अग्रसर बने रहेंगे I