इन्टरनेट के आगमन ने पुरानी पुस्तकों या उससे संबंधित जानकारियों तक पहुंचना आज कुछ हद तक आसान बना दिया है I किन्तु इसके बावजूद हमारे पुस्तकालयों और सरकारी प्रिंटिंग प्रेस जैसे संस्थानों में आज भी कई ऐसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ, किसी उद्धारक की बाट जोह रहे हैं I जिसके सामने आने के बाद भूले-बिसरे इतिहास की परतें खुल सकती हैं या दशकों पहले हुए किसी शोध की जानकारी सामने आ सकती हैं I कैलाश चन्द्र झा बिहार के प्रतिष्ठित शोधकर्ता और लोकसंस्कृति के संवाहक हैं । आपके अनेक शोध कार्य अमेरिका की लाइब्रेरी ऑफ कॉन्ग्रेस (U.S. Library of Congress) में संरक्षित हैं, जो आपकी शोधप्रवृति की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्ता के प्रमाण हैं। इन दिनों आपका गहरा जुड़ाव श्री सीताराम आश्रम ट्रस्ट, बिहटा (पटना) से बना हुआ है I इस आलेख में कैलाश चन्द्र झा जी अपने दो विशेष खोज अभियान से जुड़ी जानकारी साझा कर रहे हैं, उम्मीद है कि युवा एवं छात्र इससे अवश्य प्रेरणा ग्रहण करेंगे I –संपादक
शोधार्थियों के लिए बिहार सरकार का मुद्रणालय व भंडार; (Bihar Government Printing Press and Stationary Store, Gulzarbagh) सरकारी प्रकाशनों का खजाना (Treasure trove) रहा। इसकी स्थापना 1912 में हुई, जब बंगाल से बिहार और उड़ीसा अलग हुए। यह स्थान पहले अफीम बनाने का कारखाना था। और शिलांग से प्रिंटिंग प्रेस को यहां लाया गया। बिहार और उड़ीसा सरकार के महत्वपूर्ण प्रकाशन यहीं से होते रहे। फिर उड़ीसा राज्य अलग बना। इसकी एक शाखा रांची में (उन दिनों बिहार का हिस्सा) खुली। गुलजारबाग भंडार में पूर्व बंगाल सरकार की भी प्रकाशित पुस्तकें रहती थीं बिक्री के लिए। मैं पहली बार 1979-80 में यहां गया।
उस समय मैं U.S. Library of Congress, दिल्ली में पदस्थापित था और प्रो. वाल्टर हाउजर के साथ शोध की प्रक्रिया से वाकिफ हो चला था। गुलजारबाग प्रेस के भंडार की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। थोड़ी ताक-झांक करने से मुझे आभास हो चुका था कि यहां खजाना प्राप्त हो सकता है। बहुत मशक्कत के बाद और कई यात्रा के बाद मैंने संबंध स्थापित किए और मुझे सफलता मिली भंडार के अंदर जाकर प्रकाशनों को चुनने की। भंडार के अंदर घुप्प अंधेरा था, मोमबत्ती व टार्च की सहायता लेनी पड़ती थी। भंडार के कुछ हिस्से दो मंजिले थे। प्रकाशित चीजें फर्श पर ज्यादातर विछी थीं। साँप-छुछन्दर का डर था। इस परिवेश में काम करना शुरू किया।
यहां मैं खासकर दो प्रकाशनों का जिक्र करने जा रहा हूं जिन्हें बाहरी दुनिया में प्रकाश में लाने में मुझे सफलता मिली।
- Encyclopedia Mundarica by Reg. John Hoffman SJ and Rev. Arthur Van Emelen, SJ and other Jesuit Missionaries.

1980 में Prof. Norman Zide , University of Chicago ने सर्वप्रथम E. Gene Smith, Director, U.S. Library of congress, Delhi और मुझे Encyclopedia Mundarica के बारे में जानकारी दी। मैंने जिम्मेदारी ली इसके खोज की। Govt. Press, Gulzarbagh के भंडार को खंगालते हुए फर्श पर इसके एक से तेरह खंड मिले। इसका प्रकाशन 1930 से 1941/43 के बीच हुआ और कीमत छः रूपये प्रति खंड था। साथ ही मैंने डॉ. कुमार सुरेश सिंह व प्रो. रामदयाल मुंडा से संपर्क स्थापित किया। कुमार सुरेश सिंह ने छोटानागपुर कमिश्नर रहते समय T-Volume, 1978 में और U-Volume, 1979 में प्रकाशित करवाया था। इन दोनों खंडों के संपादक Father P. Ponette थे। Father P. Ponette से मैं मनरेसा हाउस, रांची में मिला। दो वर्ष मैंने लगाए 14,15 और 16 खंड की खोज में। 16 खंड, Illustration Volume है। Bihar Govt. Press में कोई मुझे Printing Press की ओर ले गये और वहां पड़े फर्मा की ओर दिखाया।

मैं देखकर दंग रह गया। T-Volume के पृष्ठ फर्मा में ही पडे़ थे सालों से। एक-एक पृष्ठ निकालना शुरू किया। कुमार सुरेश सिंह, प्रोफेसर राम दयाल मुंडा, Father Ponette के यहां दौड़ जारी रहा। पुस्तकालयों में जाता रहा। Patna University Library में Illustration Volume मिला और वहां से उधार लिया। जैसे समाज में होता है, लोग दौडा़ते रहे T और U-Volume के लिए। शिकागो से शिपमेंट से लेकर, पटना से रांची और दिल्ली के बीच Missing T और U-Volume फंसे रहे। T-Volume के पृष्ठ भी अपूर्ण रह गए थे। मैं Govt. Press, Ranchi गया इसकी खोज में। एक व्यक्ति मिले। शायद बड़ा बाबू हों। मैंने उन्हें अपनी खोज की कहानी बताई। उन्होंने कहा, मुझे पांच मिनट दीजिए। लगता है File में Press Copy है U-Volume की। सही में पांच मिनट में लाकर उन्होंने मुझे U-Volume की एक कॉपी पकड़ा दी। आज तक नहीं भूला उन्हें। अब रह गया T-Volume. मैं U-Volume लेकर Father Ponette के पास गया और उन्हें दिखाई। इस बीच मेरा उनके साथ विश्वास का संबंध बन चुका था। उन्होंने मुझे दस मिनट इंतजार करने को कहा और Archbishop Library से T-Volume की कॉपी निकाल कर दी।

इस प्रकार Encyclopedia Mundarica का 16 वॉल्यूम का सेट पूरा हुआ और विश्व में पहली बार U.S. Library of Congress ने इसे Microfiche (माइक्रोफिश) किया 1982 में। डॉ. कुमार सुरेश सिंह, प्रो. रामदयाल मुंडा को बताया और मांगने पर T, U और Illustration Volume की फोटोकॉपी उन्हें उपलब्ध कराई।
Gian Publishing House, नई दिल्ली ने श्री सत्कारी मुखोपध्याय के द्वारा मुझे संपर्क किया 1989 में। एक सेट मैं अपने पास रखा हुआ था और उसी से यह Reprint निकला 1990 में Gian Publishing House, New Delhi द्वारा।
2. Report, with Photographs, of the repairs executed to some of the Principal temples at Bhubaneshwar and caves at Khandagiri and Udaigiri hills, Orissa, India, beetween 1898-1903, Arnott, M.H.

Bihar Govt. Press Store के बड़ा बाबू हुआ करते थे श्री रामधनी बाबू। वहां का माहौल निराशाजनक रहता था। उसी में आशा की किरण निकलती थी। उन्होंने बताया और दिखाया की उपर्युक्त प्रकाशन की तीन कॉपी स्टोर में है। उनकी धारणा थी कि ये प्रतियाँ सोने से मढ़कर बनाई गयी हैं । मैं दिल्ली जाकर Archaelogical Survey of India के पुस्तकालय में खोज की। इस पुस्तक का अता-पता नहीं था। इसका महत्व मैं समझ गया। ये एक तरह से Photographic Album था, repair के पहले और repair के बाद के फोटो का और साथ में रिपोर्ट फोटोग्राफ्स चिपकाये हुए थे I
मैंने मन बना लिया कि इसकी एक प्रति तो हासिल करनी ही होगी। मैं प्रक्रिया में लग गया। समस्या यह थी कि उसपर Price Printed नहीं था। मुश्किल से 25-30 प्रति बनी होगी। संयोग वश मैंने इसकी चर्चा स्वर्गीय जयदेव मिश्र जी से की। उनके पुत्र प्रो. शैलेन्द्र मिश्र और मेरे मित्र सदा इस तरह के कार्यों में सहभागी रहे हैं। जयदेव बाबू उस समय के Govt Press के Superintendent बनर्जी साहब को जानते थे। पता नहीं उनके बीच किस तरह का संबंध था। उन्होंने उनसे बात की । स्टोर के सारे कर्मचारी एक तरफ हो गए और प्रति देने से लेकर, गेट पास बनाने तक में रोड़ा अटका दिया। बनर्जी साहब खुद स्टोर में आए, मुझसे दरख्वास्त लिखवाया, खुद गेटपास बनाया और प्रति हाथ में देकर कहा- जाइए। यह चमत्कार था। Library System में Check किया गया, कहीं उपलब्ध नहीं था। करीब सात महीने बाद, बिहार राज्य के वित्त विभाग से चिट्ठी आई कि पुस्तक या तो लौटा दें अथवा सात सौ रूपये इसकी कीमत आंकी गई है, उसका भुगतान करें। तुरंत भुगतान कर दिया गया। बाद में पता चला कि इसकी कुछ और प्रतियाँ मिली। और उसे खास-खास संस्थानों में भेजा गया।
मेरी समझ से किसी भी शोधकर्ता का पहला पाठ Acquisition और Preservation है। शोध यात्रा के दौरान कई तरह के दस्तावेज मिल सकते हैं, Primary व Secondary I खोजपूर्ण रवैया रखने की आवश्यकता है। Library, Archives वगैरह तो हैं ही- उन्हें मजबूत करने का कर्तव्यबोध भी होना चाहिए। बिहार राज्य प्रेस जैसे कई संस्थान हैं , जो खजाना हैं शोध सामग्री की। हर्ष की बात है कि ‘बिहार राज्य अभिलेखागार’ इस और अग्रसर हो चली है और District Record Rooms को खंगालने का कार्य शुरू कर दिया है। और भी कई दिशा में पहल किया है उन्होने।
यह लेख श्री सुमन कुमार सिंह की रांची यात्रा और उससे जुडे़ कला प्रदर्शनी से प्रेरित होकर लिखी गई है।
-कैलाश चन्द्र झा
अध्यक्ष, श्री सीताराम आश्रम ट्रस्ट, बिहटा, पटना।
