थॉमस मैकइवेली: ‘कला और अन्यता’ सांस्कृतिक पहचान का संकट

कला इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम आता है थॉमस मैकइवेली का, एक ऐसा कला आलोचक जिसने पश्चिम की श्रेष्ठता की अवधारणा के पाखंड को खंडित किया I थॉमस मैकइवेली (Thomas McEvilley, 1939–2013) एक अमेरिकी कला आलोचक, दार्शनिक, लेखक और संस्कृत तथा क्लासिकल साहित्य के विद्वान थे। उन्होंने पश्चिमी और गैर-पश्चिमी कलाओं के संबंध, सांस्कृतिक उपनिवेशवाद, बहुसांस्कृतिकता, और कला संस्थानों की राजनीति पर गहरी व विश्लेषणात्मक दृष्टि से लिखा। उनकी प्रमुख पहचान पश्चिम-केंद्रित कला विमर्श की आलोचना करने वाले विचारक के रूप में है। उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया कि कैसे पश्चिमी आधुनिक कला ने ‘प्रिमिटिव आर्ट’ (Primitive Art) — जैसे अफ्रीकी, एशियाई, और आदिवासी कलाओं — को उपयोग करके खुद को परिभाषित किया, लेकिन उन कलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं दिया।

प्रमुख कृतियाँ: Art and Otherness: Crisis in Cultural Identity (1992) – जिसमें उन्होंने “अन्यता” (Otherness) और सांस्कृतिक पहचान के संकट की चर्चा की। The Triumph of Anti-Art– डूशां, कांसेप्चुअल आर्ट, और आधुनिकता पर एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ। Art & Discontent – समकालीन कला में राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्षों पर केंद्रित।

मैकइवेली ने भारतीय दर्शन और ग्रीक दर्शन में तुलनात्मक अध्ययन के साथ-साथ संस्कृत का गहरा अध्ययन किया था। वे Artforum जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में लिखते रहे। उन्होंने अमेरिकी बहुसांस्कृतिक आंदोलन को बौद्धिक आधार प्रदान किया और कला-जगत में समावेशी दृष्टिकोण की वकालत की। थॉमस मैकइवेली एक ऐसे आलोचक थे जिन्होंने कला को केवल सौंदर्य की वस्तु नहीं, बल्कि सांस्कृतिक सत्ता, इतिहास और पहचान के विमर्श के रूप में देखा। वे आज भी उन लेखकों में गिने जाते हैं, जिन्होंने गैर-पश्चिमी कलाओं को उनकी गरिमा और स्वतंत्रता के साथ देखने का साहसिक प्रयास किया।

कला की परिधियाँ और सत्ता के केंद्र :

थॉमस मैकइवेली अपनी पुस्तक Art and Otherness में इस बुनियादी प्रश्न से टकराते हैं: कला की वैधता को निर्धारित करने वाला कौन है? क्या यह तय करना केवल पश्चिमी संस्थानों और आलोचकों का अधिकार है कि कौन सी कलाएं “उच्च” हैं और कौन सी “लोक” या “जनजातीय” या “आदिम”?

वे कहते हैं कि आधुनिक पश्चिमी कला संस्थान — जैसे संग्रहालय, आलोचना, विश्वविद्यालय — लंबे समय से एक ऐसी “कैनन” (canon) बनाते आए हैं जो श्वेत, पुरुष, यूरो-केंद्रित सौंदर्यबोध को ही “मानक” मानता है। इसके विपरीत, अफ्रीकी, एशियाई, लैटिन अमेरिकी या मूलनिवासी कलाओं को “अन्य”, “प्रिमिटिव”, “जनजातीय”, या “लोक” कहकर किनारे कर दिया गया।

1. अन्यता (Otherness) क्या है?

“अन्यता” का आशय उस सांस्कृतिक, नस्लीय, या सामाजिक इकाई से है जिसे सत्ता-केंद्र (मुख्यतः पश्चिम) अपने ‘स्व’ के विरोध में परिभाषित करता है। मैकइवेली दिखाते हैं कि किस तरह पश्चिम ने अपने आपको “सभ्य” और “कलात्मक” सिद्ध करने के लिए बाकी दुनियाओं को “अन्य” के रूप में गढ़ा।

वे कहते हैं कि संग्रहालयों और कलात्मक संस्थानों ने बार-बार यह तय किया कि अफ्रीकी मुखौटे केवल नृवंशविज्ञान (ethnography) की वस्तु हैं, न कि कला। लेकिन जब पिकासो या मैटिस जैसे यूरोपीय कलाकारों ने इन्हीं मुखौटों से प्रेरणा ली, तो वह “आधुनिक कला” बन गई। यही सांस्कृतिक दोहरापन (double standard) ‘अन्यता’ की राजनीति का केंद्र है।


2. बहुसांस्कृतिकता और उसकी सीमाएं

1980 और 90 के दशक में अमेरिका और यूरोप में “बहुसांस्कृतिकता” (Multiculturalism) की बहस शुरू हुई, जिसमें यह मांग उठी कि संग्रहालय और कला-इतिहास में गैर-पश्चिमी कलाकारों को भी स्थान दिया जाए। मैकइवेली इस आंदोलन का समर्थन करते हैं, लेकिन साथ ही इसकी सीमाओं की ओर भी संकेत करते हैं।

उनके अनुसार, यदि बहुसांस्कृतिकता केवल सतही “प्रदर्शन” बनकर रह जाए — जैसे कि कुछ गैर-पश्चिमी कलाकारों की अस्थायी प्रदर्शनी लगा दी जाए — लेकिन मूल्य-निर्धारण की शक्ति अब भी यूरो-केंद्रित ही रहे, तो यह केवल “नकली समावेश” होगा।

3. संग्रहालयों की औपनिवेशिक विरासत :

मैकइवेली बताते हैं कि कैसे संग्रहालय, औपनिवेशिक लूट के माध्यम से बनी संपत्तियों के भंडार हैं। ब्रिटिश म्यूज़ियम, लूव्र, मेट्रोपोलिटन आदि में रखी गई कलाएं सिर्फ सौंदर्य नहीं, सत्ता और शोषण के प्रतीक भी हैं। उदाहरण के लिए, बिनिन ब्रॉन्ज (Benin Bronzes) या भारतीय मंदिरों की मूर्तियाँ, जिन्हें औपनिवेशिक काल में चुराकर यूरोपीय संग्रहालयों में रखा गया — ये सिर्फ “कलात्मक” नहीं हैं, बल्कि ऐतिहासिक अन्याय की गवाह हैं।

4. आधुनिकता बनाम परंपरा: किसकी आधुनिकता?

थॉमस यह सवाल उठाते हैं कि जब हम किसी कलाकार या कला-शैली को “आधुनिक” कहते हैं, तो हम किस कसौटी का उपयोग कर रहे हैं? क्या अफ्रीकी या भारतीय कलाकारों की वह आधुनिकता मान्य है जो पश्चिमी शैलियों की नकल न करके अपनी परंपरा से जुड़ती है? वे उदाहरण देते हैं कि कैसे अनेक एशियाई और अफ्रीकी कलाकारों को तब तक ‘आधुनिक’ नहीं माना गया जब तक वे पश्चिमी अमूर्तन (abstraction) या रूपांतरण (appropriation) की शैलियों में काम न करने लगें।

5. क्या “कलात्मक मूल्य” वस्तुनिष्ठ होते हैं?

मैकइवेली इस धारणा को चुनौती देते हैं कि कला का मूल्य एक सार्वभौमिक, वस्तुनिष्ठ चीज़ है। वे तर्क देते हैं कि मूल्यांकन स्वयं एक सांस्कृतिक क्रिया है — जो हमेशा किसी विशेष सत्ता-संरचना, भाषा और अर्थ-तंत्र के भीतर कार्य करता है।

यदि हम गोंड चित्रकला, अफ्रीकी बुनाई, या अमेरिकी मूलनिवासी मिट्टी के पात्र को “कमतर” मानते हैं, तो यह मूल्य-निर्धारण हमारे भीतर बैठी औपनिवेशिक मानसिकता का परिणाम है — कला की किसी ‘प्राकृतिक’ श्रेणीकरण का नहीं।

आलोचना का दायित्व और प्रतिरोध का सौंदर्यशास्त्र

थॉमस मैकइवेली की यह पुस्तक केवल आलोचना नहीं करती, वह नए प्रतिरोध सौंदर्यशास्त्रों (aesthetics of resistance) का भी प्रस्ताव करती है। वे चाहते हैं कि कला-संस्थान, आलोचना और संग्रहालय अपने उपनिवेशवादी दृष्टिकोण से बाहर आएं और एक सांस्कृतिक न्याय की ओर बढ़ें। वे आग्रह करते हैं कि “अन्य” की कलाएं केवल ‘वैकल्पिक’ न रह जाएं, बल्कि समकालीन विमर्श का केंद्र बनें। तभी हम कला को केवल शुद्ध सौंदर्य के नहीं, बल्कि स्मृति, संघर्ष और विविधता के दस्तावेज़ के रूप में देख पाएंगे।

स्रोत : #chatgpt

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *