भारतीय भित्तिचित्रण परंपरा पर एक समग्र दृष्टि

Prof. Kiran Sarna

मानव जाति द्वारा निर्मित पहला चित्र कौन सा रहा होगा? उसका माध्यम और विषय क्या था कहना मुश्किल ही है। किन्तु उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर हम गुफा मानवों द्वारा निर्मित गुफा चित्रों को ही आरंभिक चित्र मानते हैं। अल्तीमारा से लेकर जोगीमारा तक मिलने वाले गुफाचित्र इसी बात की तस्दीक करते हैं, कि सबसे पहले मानव ने भित्तिचित्रण को अपनाया। कालांतर में यह भित्तिचित्रण मिट्टी की दीवारों से होते हुए आलीशान भवनों और प्रासादों तक जा पहुंची। अपने भारतीय उपमहाद्वीप में हमें गुफाचित्रों से लेकर महलों एवं घरों तक में अंकित भित्तिचित्र देखने को मिल जाते हैं। माना जाता है कि मध्यकाल आते-आते जब भोजपत्र-ताड़पत्र, चमड़े और कागज पर ग्रंथों की रचनाएं होने लगी तब लघुचित्रों का विकास हुआ। प्रो. किरन सरना की मानें तो- उत्तर-मध्यकाल में राजस्थान में रियासतों की स्थापना के साथ-साथ भित्तिचित्रण की परंपरा का उत्तरोत्तर विकास होने लगा। प्राचीन राजस्थान के ढुंढार, हाड़ौती, मारवाड़ व मेवाड़ अँचल अपने-अपने क्षेत्रों में भित्तिचित्रण की परम्पराओं को समृद्ध करते रहे। ढुंढार क्षेत्र के समान हाड़ौती क्षेत्र में लगभग 13 वीं शती में हाड़ा राज्य की स्थापना हुई एवं बूंदी, कोटा, झालावाड़ आदि राज्यों के विकास के साथ कलाओं का भी विकास हुआ और भित्तिचित्रण की यह परम्परा मेवाड़, मारवाड़ तथा शेखावटी क्षेत्रों में विपुल रूप से विकसित होती हुई छोटे-छोटे ठिकानों उनियारा, झिलाय , नगर, ईसरदा, टोडाराय सिंह तक भी जा पहुंची।

कालांतर में बीसवीं सदी आते-आते इसी अंचल के वनस्थली ग्राम में वर्ष 1929 में स्व. हीरालाल शास्त्री के प्रयासों से जीवन कुटीर की स्थापना हुई। और वर्ष 1935 में उन्हीं के प्रयासों से बालिकाओं की शिक्षा के लिए एक शान्ता कुटीर जैसे शिक्षा केन्द्र की स्थापना हुई, जिसे आज हम वनस्थली विद्यापीठ के तौर पर जानते हैं। आजादी के पहले का यह वह दौर था जब देश भर में अपनी गौरवशाली परम्परा एवं संस्कृति के प्रति गौरव एवं सम्मान का भाव जागृत हो रहा था। ऐसे परिदृश्य में जब वनस्थली में कला विभाग की स्थापना हुई, तब यहां भित्तिचित्रण की स्थानीय पद्धति के विकास की योजनाएं बनीं एवं 1948 में इस परंपरा की शुरुआत भी हो गई। वर्ष 1953 से विधिवत प्रतिवर्ष ग्रीष्मकालीन भित्तिचित्रण शिविर भी आयोजित किया जाने लगा। इस क्रम में इस संस्थान परिसर में सैकड़ों की संख्या में भित्तिचित्र बने, किन्तु इनमें से कुछ चित्र वर्षा और नमी से क्षतिग्रस्त भी हो गए। किन्तु आज भी स्थानीय पद्धति से बने भित्तिचित्र अच्छी संख्या में मौजूद हैं।

 

बहरहाल इसी संस्थान में वर्ष 1971 में एक छात्रा के तौर पर चित्रकला से जुड़ीं किरन सरना ने यहां प्राध्यापकीय जिम्मेदारी भी निभाई। प्रस्तुत पुस्तक “भारतीय भित्तिचित्रण परम्परा का संवाहक केन्द्र : वनस्थली विद्यापीठ” में किरन सरना ने 1948 से लेकर 2016 तक तैयार भित्तिचित्रों के बारे में यथासंभव जानकारी व विवरण दर्ज किए हैं। हम जानते हैं कि अपने यहां कला की जितनी समृद्ध परंपरा रही है उस परिप्रेक्ष्य में दस्तावेजीकरण का अभाव ही रहा है। कतिपय इन्हीं कारणों से हम अपने कला- इतिहास के विभिन्न कालखंडों के बारे में विस्तृत जानकारी से लगभग वंचित ही हैं। इस दृष्टि से देखें तो यह पुस्तक काफी हद तक इस कमी को पूरा करती दिखाई देती है। पुस्तक में वनस्थली के भित्तिचित्रों का विवरण तो मिलता ही है। भारतीय भित्तिचित्रण परंपरा के साहित्यिक वर्णनों के संक्षिप्त विवरण के साथ-साथ इससे जुड़ी प्राचीन तकनीक और सामग्री पर भी जानकारी दी गई है। इस तरह से देखें तो यह पुस्तक उन कलाकारों व कला के छात्रों के लिए अत्यन्त उपयोगी है जो परंपरागत भित्तिचित्रण की तकनीक से लेकर इतिहास तक की जानकारी चाहते हैं।

पुस्तक: भारतीय भित्तिचित्रण का संवाहक केन्द्र: वनस्थली विद्यापीठ
लेखक: प्रो. किरन सरना
प्रकाशक: नवजीवन प्रकाशन
मूल्य: 800/ मात्र­

Email: navjeewannew@yahoo.com

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