“लेखनी की भाँति ही तूलिका और छिन्नी भी घुमक्कड़ी के संपर्क से चमक उठती है। तूलिका को घुमक्कड़ी कितना चमका सकती है, इसका एक उदाहरण रूसी चित्रकार निकोलस रोयरिक थे। हिमालय हमारा है, यह कहकर भारतीय गर्व करते हैं, लेकिन इस देवात्मा नगाधिराज के रूप को अंकित करने में रोयरिक की तूलिका ने जितनी सफलता पाई, उसका शतांश भी किसी ने नहीं कर दिखाया। रोयरिक की तूलिका रूस में बैंठे इस चमत्कार को नहीं दिखला सकती थी। यह वर्षों की घुमक्कड़-चर्या थी, जिसने रोयरिक को इस तरह सफल बनाया। रूस के एक दूसरे चित्रकार ने पिछली शताब्दी में ”जनता में ईसा” नामक एक चित्र बनाने में 25 साल लगा दिए। वह चित्र अद्भुत है। साधारण बुद्धि का आदमी भी उसके सामने खड़ा होने पर अनुभव करने लगता है, कि वह किसी अद्वितीय कृति के सामने खड़ा है। इस चित्र के बनाने के लिए चित्रकार ने कई साल ईसा की जन्मभूमि फिलस्तीन में बिताए। वहाँ के दृश्यों तथा व्यक्तियों के नाना प्रकार के रेखाचित्र और वर्णचित्र बनाए, अंत में उन सबको मिलाकर इस महान चित्र का उसने निर्माण किया। यह भी तूलिका और घुमक्कड़ी के सुंदर संबंध को बतलाया है।
छिन्नी क्या, वास्तुकला के सभी अंगों में घुमक्कड़ी का प्रभाव देखा जाता है। कलाकार की छिन्नी एक देश से दूसरे देश में, यहाँ तक कि एक द्वीप से दूसरे द्वीप में छलाँग मारती रही है। हमारे देश की गंधार-कला क्या है? ऐसी ही घुमक्कड़ी और छिन्नी के सुंदर संबंध का परिणाम है। जावा के बरोबुदुर, कंबोज के अंकोरवात और तुंगह्वान की सहस्र-बुद्ध गुफाओं का निर्माण करने वाली छिन्नियाँ उसी स्थान में नहीं बनीं, बल्कि दूर-दूर से चलकर वहाँ घुमक्कड़ी के प्रभाव ने मूलस्थान की कला का निर्जीव नमूना न रख उसे और चमका दिया। आज भी हमारा घुमक्कड़ अपनी छिन्नी लेकर विश्व में कहीं भी निराबाध घूम सकता है।
घुमक्कड़ी लेखक और कलाकार के लिए धर्म-विजय का प्रयाण है, वह कला-विजय का प्रयाण है, और साहित्य-विजय का भी। वस्तुत: घुमक्कड़ी को साधारण बात नहीं समझनी चाहिए, यह सत्य की खोज के लिए, कला के निर्माण के लिए, सद्भावनाओं के प्रसार के लिए महान दिग्विजय है!”
उपरोक्त पंक्तियाँ पंडित राहुल सांकृत्यायन की उस पुस्तक घुमक्कड़ शास्त्र से ली गयीं हैं, जिसे हम घुमक्कड़ी के महत्व को प्रतिपादित करने का एक सफल प्रयास मानते हैं। आज के सन्दर्भ में अगर देखा जाये तो कलाकारों के लिए विदेश यात्रायें अपेक्षाकृत सुगम हो गयीं हैं। अपने कुछ कलाकार मित्रों को जानता हूँ, जो अक्सर विदेश यात्राओं पर रहना पसंद करते हैं । किन्तु बहुत कम ऐसा देखने को मिलता है कि वापसी के बाद कोई कलाकार उन यात्रा विवरणों को सिलसिलेवार लिपिबद्ध कर पाता हो या करने कि कोशिश करता हो ।अलबत्ता सोशल मीडिया के इस युग में यात्रा से जुडी तस्वीरें देखने को मिल जाती हैं। अब चूँकि उन तस्वीरों को आपके किसी मित्र ने शेयर किया है इसलिए थोड़ी देर के लिए वह अच्छा भी लगता है। बहरहाल यहाँ हम बात करना चाहेंगे कलाकार मित्र सीरज सक्सेना और उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तक ‘कला की जगहें’ की । यूँ तो कला की दुनिया में सीरज भाई एक परिचित नाम हैं, लेकिन जो उनसे पूरी तरह परिचित नहीं हैं उनके लिए कि पेंटिंग, प्रिंट मेकिंग व सेरामिक्स माध्यम में लगातार सृजनरत रहने के साथ-साथ एक यायावर, लेखक और कवि की भूमिका का सीरज भाई बखूबी निर्वाह करते हैं। परिणाम यह है कि एक तरफ तो उनके खाते में कला और यात्रा विषयक कई पुस्तकों के लेखक होने की उपलब्धि दर्ज़ है, वहीँ अपने एशिया महाद्वीप से लेकर यूरोप और अफ्रीका के कला संस्थानों में जाकर रचने और कृतियों को प्रदर्शित करने का अनुभव भी।
इस पुस्तक में जो खास बात लगती है वह यह कि अपने इस यात्रा वृतांत में लेखक ने कला की दुनिया के अति- बौद्धिक विमर्श से अलग हटकर सहज बयानी को प्राथमिकता दी है। जिससे इसे पढ़ते हुए पाठक को हरदम यह महसूस होता रहता है कि वह भी इस यात्रा का एक सहभागी ही है। किसी नए शहर, देश और परिवेश में पहुँचते के साथ भाषा से लेकर खान- पान सम्बन्धी जो दिक्कतें दरपेश होती हैं, उसकी चर्चा के साथ-साथ उससे पार पाने को अख्तियार किये गए तरीकों का सहज वर्णन भी इसे रोचक बनाता है। ताईवान के शहर ईग शहर में बिताये दिनों की एक बानगी – नोच लिए बाल, न मिली रोटी न मिली दाल। बस ब्रेड, बटर, जैम, बादाम, पिस्ता, बन, इंस्टेंट नूडल (वो भी बिना मसालों के )। यहाँ के हर मसाले में एक तरह की हींक आती है । मछली,सूअर, मुर्गा, बीफ और न जाने क्या-क्या खा कर यह तरक्की नसीब हुई है। चिप्स खूब खा रहा हूँ । कभी सोचा नहीं था की मुझे यहाँ नमक भी खरीदना पड़ेगा। प्लेन बने नूडल पर बटर व नमक डालकर मज़ा ले रहा हूँ । धुली मुंग की दाल के दर्शन भी आज सेवन-इलेवन शॉप पर हुई है । कल शाओमी से कहकर इलेक्ट्रिक स्टोव व एक डीप पैन का जुगाड़ करना ही पड़ेगा। अभी तो ८६ दिन और गुज़ारने हैं मेरे लव ८६ डेज़।
उसी तरह सर्बिया की अपनी यात्रा में सीरज हिंदी और हिंदुस्तान प्रेमी महिला से हुई मुलाकात का ज़िक्र कुछ यूं करते हैं- किताबों से भरे इस घर में श्रीमती रादमिला गिकिच पेत्रोविच ने हमारा स्वागत पानी और बिस्किट से किया। वह दो बरस दिल्ली विश्वविद्यालय में सर्बियन भाषा पढ़ा चुकी हैं। उनके घर कोई दिल्ली से आया है।वह उत्साहपूर्वक मुझसे मिलती हैं, पूरे घर के हर कोने में भारतीय चित्र, शिल्प आदि रखे हैं । ……….१९३१ में जन्मे उनके पति स्वेतोजोर पेत्रोविच हिंदी के विद्वान् थे। दस बरस पहले ही उनका निधन हुआ है । पूरे घर में हिंदी प्रेम की खुशबू बिखरी पड़ी है। रादमिला अपने पति की, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू के साथ, एक तस्वीर भी दिखाती हैं। तस्वीर में युवा इंदिरा गाँधी भी नेहरू के साथ हैं।
अब चूँकि अंततः यह एक कलाकार का यात्रा वृतांत है इसलिए कला की चर्चा का यहाँ होना तो आवश्यक है ही।लेकिन जैसा कि मैंने पहले ही बताया है कि इस तरह की चर्चा भी सहज बयानी वाली शैली में है। मसलन जर्मनी में अपने कलाकार मित्रों से मुलाकात की कुछ बातें- ‘मार्क रोथको अंतर्राष्ट्रीय चित्रकला शिविर में शनीन से मुलाकात हुई थी । वह और मोनिका फाल्के जर्मनी से आयीं थीं । शनीन के स्याही से बने अमूर्त चित्र व कागज़ से बने संस्थापन बहुत अच्छे लगते हैं । वह जिस तरह काम करती हैं वह डगर आसान नहीं है ।……. शनीन ने हाल ही में हुई उनकी एक कला प्रदर्शनी के बारे में बताया। उनकी एक मुग़ल कला प्रदर्शनी तेल- अवीव में होनेवाली है।’ इस तरह के अनेक वर्णनों व अनुभवों से सजी यह पुस्तक कला की दुनिया की बहुत सी कही-अनकही व जानी- अनजानी बातों से हमारा साक्षात्कार कराती है । जिससे देश-दुनिया के उस समाज और उसकी कला-संस्कृति से भी हम आसानी से परिचित हो पाते हैं, जहाँ जाना किसी कारण से सम्भव नहीं हो पा रहा हो या जहाँ जल्द जाने की सम्भावना बन रही हो ।