भारतीय आधुनिक कला के इतिहास पर नज़र डालें तो यह बात भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि अभी तक जो उपलब्ध है, उसे आधा-अधूरा ही कहा जा सकता है। इस बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी जोड़ा जा सकता है कि काफी हद तक यह बाजार केंद्रित रहा अथवा कुछ चंद कला संस्थानों के इर्द-गिर्द घूमता रहा है। कतिपय इन्हीं कारणों से भारतीय कला में जनपक्षधरता के स्वर का उभार नहीं ही दिखता है, बावजूद इसके कि इस दिशा में कुछ कलाकारों द्वारा भरपूर प्रयास किये गए। इन्हीं जनपक्षधर कलाकारों में एक महत्वपूर्ण नाम हैं चित्तप्रसाद, जिनका जन्म 15 मई 1915 को बंगाल के चौबीस परगना जिले के नैहाटी शहर में हुआ था। प्रस्तुत पुस्तक “चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला” में लेखक अशोक भौमिक उनका परिचय कुछ इन शब्दों में देते हैं :-
चित्तप्रसाद एक राजनीतिक और जन पक्षधर चित्रकार थे इतना कहना पर्याप्त नहीं लगता। वे सही मायने में एक “भारतीय कलाकार” थे, यही उनकी असली पहचान है। सदियों से भारत की चित्रकला को हम विभिन्न प्रान्तों और राज्यों की स्वतन्त्र कलाओं के रूप में ही देखते रहे हैं जैसे, काँगड़ा, पहाड़ी, राजस्थानी, मुग़ल, दक्कन आदि। आधुनिक समय में भी इसमें कोई खास बदलाव नहीं दिखता। यामिनी राय, नन्दलाल बोस, असित हलदार आदि अभी मूलतः बंगाल के चित्रकार हैं, उसी प्रकार दक्षिण के राजा रवि वर्मा हैं तो महाराष्ट्र से बी. प्रभा, बेन्द्रे, रज़ा आदि आते हैं। इसी प्रकार शोभा सिंह पंजाब के चित्रकार हैं। इन सभी चित्रकारों के चित्रों पर अपने-अपने प्रान्तों की कला शैली, संस्कृति और जीवन का प्रभाव स्वाभाविक रूप से स्पष्ट दिखता है। चित्तप्रसाद इस मायने में बंगाल की सीमा को लाँघ कर ‘भारत की जनता’ के दुःख और प्रतिरोध को अपना विषय बनाते हैं और इसके जरिये सही मायने में वे आधुनिक चित्रकला के भारतीय स्वरुप को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। (पृष्ठ संख्या- 20)
पुस्तक में चित्तप्रसाद और उनकी कला की व्याख्या करते हुए लेखक अशोक भौमिक आगे बयां करते हैं –
“चित्तप्रसाद अपने चित्रों में एक निर्भीक राजनीतिक कर्मी की भूमिका निभाते हैं, और ऐसा करते हुए जनता के पक्ष में खड़े होकर अन्याय के खिलाफ सशस्त्र जंग का ऐलान करते हैं। उनके चित्रों में ऐसे जन- प्रतिरोधों की केवल वीजा कथाएं ही नहीं हैं, कहीं पराजय भी है तो कहीं शहादत भी।”
(पृष्ठ संख्या : 24)
“सत्ता द्वारा लिखवाए गए इतिहास के समानान्तर वे अपने चित्रों के माध्यम से अपने समय की जनता का एक ऐसा इतिहास लिखते हैं, जिसे सत्ता बार-बार मिटा देना चाहती थी।”
(पृष्ठ संख्या: 25)
“हज़ारों वर्षों की भारतीय चित्रकला के इतिहास में पहली बार अमृता शेरगिल और रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने राजा-रानी और देवी-देवताओं से मुक्त होते हुए आम जनता को अपने चित्रों में स्थान दिया था, चित्तप्रसाद उसी विरासत को आगे बढ़ाते हुए, अपना एक मिलिटेंट राजनीतिक स्टैंड लेते हैं, जहाँ केवल आमलोग उपस्थित नहीं हैं, बल्कि उनकी उपस्थिति उनके सर्वहारा होने के सच से जुडी हुई है।”
(पृष्ठ संख्या : 26)
“चित्तप्रसाद के लिए चित्रकला न तो किसी व्यक्तिगत अध्यात्मवाद का और न ही स्वेच्छाचारिता और लाम्पट्य का परिसर है। उनके लिए चित्रकला में ‘प्रगतिशीलता’ का एक ही अर्थ था- और वह था चित्रकला की जमीन को राजसत्ता, धर्मसत्ता और पुरुष सत्ता की गिरफ्त मुक्त कर जनसत्ता का कब्ज़ा दिलवाना ! महज़ यूरोपीय शैली का कोरा अनुकरण कर अपने को ‘प्रगतिशील’ कहलाने में उनको कभी कोई रूचि नहीं रही और इसलिए वे सत्ता द्वारा संचालित कला संस्थानों से दूर रहे।”
(पृष्ठ संख्या: 26-27)
” भारतीय चित्रकला के लम्बे इतिहास में जहाँ महिलाओं के प्रति आमतौर पर उपेक्षा या अपमान ही दिखता रहा, चित्तप्रसाद अपने चित्रों में उस कलंकित इतिहास की धारा को मोड़ देते हैं। चित्तप्रसाद, महिलाओं को पुरुषों के समानान्तर जीवन-संघर्ष की जमीन पर स्वाभिमान और आत्मविश्वास के साथ पहली बार स्थापित करते हैं। यह लड़ाई भारतीय चित्रकला की उस प्रवृति के खिलाफ हैं जहाँ सीता, द्रौपदी,अहिल्या, सती और स्नानरत गोपियों जैसे अनेक चरित्रों और प्रसंगों पर आधारित चित्र बनाने के बहाने वास्तव में महिलाओं का अपमान किया गया। चित्तप्रसाद के चित्रों में महिलाएँ अपने बच्चों को गोद में लिए राजनीतिक जुलूसों में शामिल होती दिखती हैं तो कहीं उन्हें हम सशस्त्र प्रतिरोध की पहली कतार में युद्धरत पाते हैं। इसी प्रकार चित्तप्रसाद अपने चित्रों में बच्चों को अपनी पूरी मासूमियत और बेबसी के साथ लाकर उनकी बदहाली के लिए पूरे समाज को कटघरे में खड़ा करते हैं। ‘जिन फरिश्तों की कोई परिकथा नहीं’ उनकी ऐसी ही एक बेमिसाल श्रृंखला है।”
(पृष्ठ संख्या: 28-29)
ऐसे में एक सवाल यह भी सामने आता है कि जब चित्तप्रसाद अपने समय के इतने महत्वपूर्ण चित्रकार थे, तो इतने दशकों तक समकालीन कला जगत में किसी विशेष चर्चा या मूल्याङ्कन से वे वंचित कैसे रह गए। क्योंकि चित्तप्रसाद की कलाकृतियां चाहे छापाचित्र हों या रेखांकन कलात्मक गुणवत्ता के प्रत्येक मानक पर न केवल खड़ी उतरती हैं, आनेवाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन भी करती हैं। दर्शकों या संग्राहकों की बात छोड़ भी दें तो विडंबना यह भी रही कि कलाकार समुदाय द्वारा भी उनकी कला के मूल्याङ्कन की कोई विशेष कोशिश सामने नहीं आयी, यहाँ तक कि कला महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी उन्हें वह अपेक्षित जगह नहीं मिला पायी। जिसके वे हकदार थे। ऐसे में वर्तमान दौर में उनके चित्रों के मूल्याङ्कन की प्रासंगिकता पर भी सवाल खड़े किये जा सकते हैं। बहरहाल इन प्रश्नों का जवाब लेखक की इन पंक्तियों से स्पष्ट हो जाता है –
“चित्तप्रसाद की कला को समझना आज पहले से भी ज्यादा जरुरी जान पड़ता है, क्योंकि जहाँ भाषा, संस्कृति, आर्थिक और सामाजिक आधार पर समाज को प्रदेशों, प्रान्तों, महानगरों, आदिवासी क्षेत्रों जैसे संकीर्ण विभाजन की प्रक्रिया मौजूदा शासन व्यवस्था की एक खतरनाक मज़बूरी बन चुकी है, वहाँ चित्तप्रसाद अपने चित्रों के माध्यम से एक ऐसे मेहनतकश वर्ग को सामने लाते हैं, जो अपनी समस्याओं, शोषण और संघर्षों की समानता के चलते एक दूसरे से अटूट रूप से जुड़े हैं। लिहाज़ा भारतीय कला का स्वरुप निर्धारण और मूल्याङ्कन केवल महानगरों के कला व्यापारियों, सरकारी अकादमियों और कुछ स्वनामधन्य कला आलोचकों पर नहीं छोड़ा जा सकता। निःसंदेह ‘समकालीन’ भारतीय कला एक अधूरी और गैर वैज्ञानिक अवधारणा है, जिसका सही विकास जनोन्मुख कलाकारों के हस्तक्षेप से ही सम्भव होगा। ”
(पृष्ठ संख्या: 59)
“भारतीय कला समीक्षकों द्वारा जनवादी चित्रकला पर लम्बे समय से प्रायः ‘नारे’ होने का आरोप लगता रहा है। बाजार में चित्रकला क्रय-विक्रय का सामान होने के कारण, कला के क्रेताओं के वर्ग की रूचि ही आज़ादी के बाद की भारतीय कला की गुणवत्ता निर्धारण का मानक बनी। अतः कला समीक्षकों के विशाल वर्ग ने कला व्यापारियों के निर्देश पर ऐसे सारतत्व हीन मानक बनाकर एक ऐसी स्थिति को जन्म दिया, जिसके चलते चित्रकला, आम जनता से पूरी तरह से विच्छिन्न हो गई।”
(पृष्ठ संख्या: 65-66)
“चित्तप्रसाद के चित्रों में उत्कृष्ट कला गुणों के संयोजन से महान कृति रचने का आग्रह नहीं है, पर उनके चित्र किसी भी कलाकर्म द्वारा राजनीतिक जिम्मेदारी के निर्वाह के सफलतम उदाहरण हैं। उनके चित्रों की उत्कृष्टता का मूल्याङ्कन इसलिए भी बुर्जुआ कला समीक्षकों के लिए आज भी संभव नहीं हो सका है।”
(पृष्ठ संख्या: 93)
लगभग 320 पृष्ठों की इस पुस्तक में जहाँ चित्तप्रसाद की कला के विभिन्न पक्षों पर विस्तार से चर्चा की गई है, वहीँ उनके रेखांकनों, छापाचित्रों, व्यंग्यचित्रों एवं अन्य चित्रों को भी भलीभांति संगृहीत कर छापा गया है। कुल मिलाकर यह पुस्तक चित्तप्रसाद की चुनिन्दा कलाकृतियों के संकलन का प्रयास तो है ही, चित्तप्रसाद के बहाने उस दौर की समकालीन कला प्रवृतियों के साथ- साथ तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक आन्दोलनों की पड़ताल भी है।
पुस्तक का नाम : चित्तप्रसाद और उनकी चित्रकला
लेखक : अशोक भौमिक
प्रकाशक : नवारुण
मेल : navarun.publication@gmail.com
मूल्य : 550 रुपये