- डॉ. आनन्द बिहारी
संपादक, सत्राची, त्रैमासिक शोध पत्रिका, पटना
भारत में नायकत्व की अवधारणा में लोकतत्व सदा से उपेक्षित रहा है। राजतंत्र में इस बात की भरपूर गुंजाईश थी, परंतु लोकतंत्र में इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन हमने बार-बार ऐसा किया है, और अब भी कर रहे हैं। विश्व पटल पर हमें जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। संस्कृति, कला, संगीत, दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में हमारी उपलब्धियाँ शानदार हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल हम लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास में नहीं कर सके। परिणामत: हमारे लोकतंत्र का सौंदर्य बिखर गया और उसकी संवेदना की आभा मंद पड़ गई। अगर हम अपने लोककलाकारों को नायक का दर्जा देते, उनके जीवन संघर्ष को सम्मान देते, उनकी रचनाधर्मिता पर गर्व करते तो हमारे लोकतंत्र की स्थिति कुछ और होती। हम ये भूल गए कि कलाएँ अपने मूल प्रकृति में लोकतांत्रिक एवं मानवीय होती हैं, और इसलिए वे सौंदर्य की वाहक होती हैं। किसी भी लोकतांत्रिक समाज की स्थापना के लिए लोककलाकारों को गरिमामंडित करना आवश्यक होता है। इसके लिए जागरूक समाज के लोग अपने लोककलाकारों की कलासाधना को उनके संपूर्ण जीवन संघर्ष के साथ प्रस्तुत करते हैं।
विडंबना ही है कि हमारे देश के जीवनीकारों ने इस काम को कभी गंभीरता से नहीं लिया। गिने-चुने कुछ अपवादों को छोड़ दें तो लोककलाकारों के जीवन संघर्ष और कला उपलब्धियों को उजागर करने वाली पुस्तकों (जीवनी) की नितांत कमी है। चिंता का विषय यह है कि इस संदर्भ में कोई सार्वजनिक प्रयास या प्रोत्साहन दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे में यह जानकर संतोष हुआ कि श्री अशोक कुमार सिन्हा व्यक्तिगत स्तर पर इस काम में प्राणपन से लगे हुए हैं। लोककलाकारों के जीवन-संघर्ष और कला-साधना की उपलब्धियों को उजागर करती हुई उनकी अनेक किताबें प्रकाशित हैं। अब तक उनकी 38 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’, ‘पद्मश्री ब्रह्मदेव राम पंडित’ और ‘ आँसुओं के साथ रंगों का सफर (जीवनी)’ नामक पुस्तकें लोककलाकारों के जीवन पर आधारित हैं। ‘आँसुओं के साथ रंगों का सफर (जीवनी)’ नामक पुस्तक अभी-अभी (मई, 2025) प्रकाशित हुई है। क्राफ्ट चौपाल के द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में कुल पच्चीस महिला चित्रकारों के मार्मिक जीवन संघर्ष और उनके कला-प्रेम को दिखाया गया है। मेरी दृष्टि में इस पुस्तक का सबसे प्रबल पक्ष है- ‘नायकत्व की नई अवधारणा’। इस पुस्तक का मूल्यांकन इसी निकष पर होना चाहिए।
श्री अशोक कुमार सिन्हा ने इस पुस्तक को नायकत्व के उस लोकतांत्रिक अवधारणा से जोड़ा है, जिसकी जरूरत तो औपनिवेशिक काल से ही महसूस की जा रही थी, लेकिन अमल इक्कीसवीं सदी में भी नहीं हो पाया। अब तक जितनी भी जीवनियाँ लिखी गई हैं उनमें से ज्यादातर नायकों की पृष्ठभूमि राजनीतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक व आध्यात्मिक है। लोकतांत्रिक समाज में आज भी लोकनायक/लोककलाकारों की उपस्थिति गौण है। लोकसंगीत, लोककलाएँ, लोकपरंपराएँ, लोक आस्था और लोकपर्व से लोकतंत्र की वास्तविक चेतना निर्मित होती है। इसके अभाव में समाज और कलाओं का शास्त्रीय पक्ष कमजोर पड़ जाता है, उसकी अंतर्वस्तु खोखली पड़ जाती है। अत: किसी भी लोकतांत्रिक समाज को आंतरिक रूप से मजबूत बनाने के लिए उसके लोकनायकों/लोककलाकारों की महिमा को उजागर करना, उनके जीवन को उदाहरण के तौर पर पेश करना एक जिम्मेदार लेखक की प्रतिबद्धता होनी चाहिए। सदियों की गुलामी झेलने के बाद हमने नायकत्व की नई अवधारणा तो बना ली, लेकिन उसे उसकी वास्तविक भूमि पर हम स्थापित नहीं कर सके।
अशोक सिन्हा की यह पुस्तक न केवल नायकत्व की लोकतांत्रिक अवधारणा को स्वीकार करती है, अपितु उसे उसकी वास्तविक जमीन पर स्थापित करने का प्रयास भी करती है। 25 महिला चित्रकारों के जीवन-संघर्ष और उनकी रचनाधर्मिता को रेखांकित करते हुए श्री सिन्हा ने जिस सूक्ष्म दृष्टि, सहृदयता और संवेदनशीलता का परिचय दिया है, उसे हल्के में लेना ठीक नहीं है। इस पुस्तक को रचने में जिस गहरी समझ और दूरदर्शिता का परिचय लेखक ने दिया है उसका उपयोग अगर नारी विमर्श के सिद्धांतकारों ने किया होता तो भारत में ‘महिला सशक्तीकरण’ का आंदोलन कभी असफल नहीं होता। भारतीय परिप्रेक्ष्य में ‘महिला सशक्तीकरण’ की सैद्धांतिकी गलत दिशा में चली गई, क्योंकि हमने ये समझा ही नहीं कि किस नारी को सशक्त बनाना है और उसके सशक्तीकरण का स्वरूप क्या होना चाहिए। पश्चिम की तर्ज पर महिला सशक्तीकरण के आंदोलन का असफल होना स्वाभाविक था। भारत में महिलाओं के अनेक जीवन स्तर हैं, उनका अलग-अलग वर्गीय चरित्र है और भिन्न स्तर की मानसिक बुनावट है। अत: उनके सशक्तीकरण के टूल्स भी भिन्न होंगे। उन्हीं में से एक टूल है, मधुबनी पेंटिंग। पुस्तक में चित्रित सभी चित्रकारों ने मधुबनी चित्रकला सीखकर न केवल अपने जीवन स्तर को समृद्ध किया है, बल्कि सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल करते हुए कला के क्षेत्र में स्वयं को ऊँचाई पर स्थापित भी किया है। इन महिला चित्रकारों में जगदम्बा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, बौआ देवी, गोदावरी देवी, दुलारी देवी और शांति देवी ने पद्मश्री सम्मान प्राप्त कर मिथिला और बिहार प्रदेश को गौरवान्वित किया है। महिला सशक्तीकरण का वास्तविक अर्थ क्या है, और उसका स्वरूप क्या होना चाहिए – इस बात को समझने के लिए यह पुस्तक एक जरूरी पाठ है।
जीवनीकार ने मिथिलांचल की जिन 25 महिलाओं के जीवन चरित को पुस्तक में स्थान दिया है उनका जीवन स्तर अत्यंत दयनीय स्तर का है। आर्थिक, सामाजिक एवं पारिवारिक दृष्टि से भी उनमें पर्याप्त भिन्नता है। लेखक ने दलित, दिव्यांग, अशिक्षित, सवर्ण, परित्यक्ता और विधवा आदि सभी को समान करुणा व सहृदयता के साथ चित्रित किया है। चित्रण की शैली अत्यंत सरल एवं भावना-प्रधान है। साधारण और प्रचलित शब्दों में बिम्बनिर्माण की कला सिन्हा जी की भाषिक विशेषता है। आत्मीयता और भावुकता के क्षण में उनकी भाषा कलात्मक हो उठती है और पाठक अपनी आँखों के सामने घटनाओं को घटित होते हुए महसूस करने लगता है।
कुल मिलाकर यह पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है। अपने देश और समाज से प्रेम करने वालों के लिए इस पुस्तक में ऐसा बहुत कुछ मिलेगा, जिसे महत्वपूर्ण कहा जा सकता है।