वेरियर एल्विन (Verrier Elwin) भारतीय जनजातीय और लोक संस्कृति के अग्रणी अध्येता थे, जिन्होंने अपने गहन अध्ययन, संवेदनशील दृष्टिकोण और भारतीय लोकजीवन से आत्मीय संबंध के माध्यम से आदिवासी कला, संस्कृति और जीवनदर्शन को अकादमिक जगत के केंद्र में स्थापित किया। उनकी पुस्तक “Folk Paintings of India” भारतीय लोक चित्रकला की विविध परंपराओं, विषय-वस्तुओं, शैलियों और सांस्कृतिक संदर्भों पर आधारित एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जो न केवल कलात्मक दृष्टि से मूल्यवान है, बल्कि मानवशास्त्रीय और सांस्कृतिक अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यंत उपयोगी है।
लोक कला के प्रति एल्विन का दृष्टिकोण
वेरियर एल्विन ने भारतीय लोक चित्रकला को केवल “ग्रामीण सौंदर्यबोध” की अभिव्यक्ति नहीं माना, बल्कि इसे भारतीय जनमानस की सृजनात्मकता, धार्मिकता और सामाजिक चेतना का प्रतीक बताया। उनके अनुसार लोक चित्रकला “जनजीवन की दृश्य भाषा” है — एक ऐसी भाषा जिसमें समाज अपने विश्वासों, उत्सवों और मिथकीय कथाओं को रंगों के माध्यम से व्यक्त करता है।
एल्विन का दृष्टिकोण विशुद्ध कलावैज्ञानिक नहीं, बल्कि मानवशास्त्रीय है। उन्होंने लोक कलाकारों के सामाजिक परिवेश, जीवनशैली, और धार्मिक विश्वासों को चित्रकला के साथ जोड़ा। उनका मानना था कि लोक कला केवल सौंदर्य नहीं रचती, बल्कि वह जीवन का दस्तावेज़ भी होती है।
क्षेत्रीय विविधता और शैलियाँ : इस पुस्तक में एल्विन ने भारत की प्रमुख लोक चित्रकला परंपराओं का विस्तार से वर्णन किया है — जैसे बिहार की मधुबनी, पश्चिम बंगाल की पटचित्र और जादुपटिया, ओडिशा की पट्टाचित्र, राजस्थान की फड और फडचित्र, महाराष्ट्र की वारली, और मध्य भारत की गोंड एवं भील चित्रकला।
उन्होंने बताया कि हर क्षेत्र की कला अपने भौगोलिक, सामाजिक और धार्मिक परिवेश के अनुरूप विकसित हुई है। उदाहरण के लिए, मधुबनी में देवी-देवताओं और वैवाहिक संस्कारों की चित्रकला स्त्रियों द्वारा बनाई जाती है, जबकि राजस्थान की फड चित्रकला एक चलायमान कथा परंपरा से जुड़ी है, जिसमें चित्र ही “मंच” और “पाठ” दोनों का कार्य करते हैं।
विषय-वस्तु और प्रतीकात्मकता : एल्विन ने लोक चित्रकला के विषयों को धार्मिक, पौराणिक और लोककथात्मक श्रेणियों में विभाजित किया। उनके अनुसार लोक कलाकार के लिए चित्रकला एक “साधना” है, न कि केवल एक “कला”। देवी-देवताओं, ग्रामदेवियों, जनजातीय पूर्वजों, पशु-पक्षियों और वृक्षों के चित्रण में जो भावनात्मक श्रद्धा और आत्मीयता दिखाई देती है, वह किसी गहन सांस्कृतिक आस्था का प्रतीक है।
उन्होंने यह भी कहा कि लोक कला की प्रतीकात्मकता अत्यंत समृद्ध है — जैसे वृक्ष जीवन और उर्वरता का प्रतीक है, मछली समृद्धि का, सूर्य-चंद्र संतुलन और काल-चक्र के, जबकि स्त्री आकृति मातृत्व और सृजन की प्रतीक बनकर उभरती है।
जादुपटिया और कथा-परंपरा : वेरियर एल्विन ने बंगाल और बिहार क्षेत्र की जादुपटिया परंपरा पर विशेष ध्यान दिया। उन्होंने इसे “लोक कथाकार की चित्रात्मक अभिव्यक्ति” कहा। जादुपटिया कलाकार चलते-फिरते कथावाचक होते हैं जो अपने चित्रपट को धीरे-धीरे खोलकर लोककथाएँ, धार्मिक आख्यान या मृत्यु के बाद आत्मा की यात्रा जैसी दार्शनिक विषय-वस्तुएँ प्रस्तुत करते हैं। एल्विन ने लिखा कि जादुपटिया न केवल कला रचता है बल्कि समाज की नैतिक चेतना को भी जगाता है — यह लोक का “चित्र-पुरोहित” है।
लोक चित्रकला और धर्म : एल्विन ने लोक कला को “धर्म और जीवन के बीच का सेतु” कहा। उनके अनुसार, लोक कलाकार अपने चित्रों में ईश्वर से संवाद करता है — मिट्टी, कपड़े या दीवार पर बनाए गए ये चित्र पूजा का माध्यम भी हैं और सामाजिक अनुशासन का साधन भी। उन्होंने देखा कि अधिकांश लोक चित्रकला त्योहारों, संस्कारों और ऋतु-चक्र से जुड़ी होती है — जैसे संक्रांति, विवाह, दीवाली या फसल कटाई।
आधुनिकता और संरक्षण की चुनौतियाँ : एल्विन ने आधुनिक युग में लोक चित्रकला के सामने आने वाली चुनौतियों की ओर भी संकेत किया। शहरीकरण, औद्योगिकीकरण और बाजार-प्रधान कला ने पारंपरिक लोक कलाकारों की जीवन-शैली को प्रभावित किया। उन्होंने चेताया कि यदि इन परंपराओं को प्रोत्साहन और संरक्षण नहीं मिला तो भारत अपनी “दृश्य लोक-संस्कृति” की आत्मा खो देगा।
उन्होंने सरकारी और शैक्षणिक संस्थानों से आग्रह किया कि वे लोक कलाकारों को प्रशिक्षण, बाज़ार और सम्मानजनक आजीविका प्रदान करें, ताकि यह कला परंपरा जीवित रह सके।
वेरियर एल्विन की “Folk Paintings of India” केवल एक कला-शास्त्रीय ग्रंथ नहीं, बल्कि भारतीय लोकसंस्कृति की आत्मा का अध्ययन है। उन्होंने लोक कलाकार को “भारतीय मानस का दर्पण” कहा — जो मिट्टी, रंग और प्रतीकों में उस लोक-विश्व को जीवित रखता है जिसे अक्सर सभ्य समाज नज़रअंदाज़ कर देता है।
उनकी यह पुस्तक आज भी भारतीय लोकचित्र परंपरा के अध्ययन के लिए एक मूल स्रोत मानी जाती है। एल्विन ने सिद्ध किया कि कला केवल संग्रहालय की वस्तु नहीं, बल्कि जीवित संस्कृति का हिस्सा है — वह मनुष्य की संवेदना, विश्वास और सृजनशीलता का अमिट दस्तावेज़ है।
दरअसल वेरियर एल्विन का यह कार्य भारतीय लोक चित्रकला को विश्व-परिप्रेक्ष्य में पहचान दिलाने वाला महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने यह दिखाया कि लोककला केवल ग्रामीण जीवन का अवशेष नहीं, बल्कि उसकी आत्मा का प्रतीक है — और इस आत्मा की रक्षा, भारतीय संस्कृति की रक्षा के समान है।
स्रोत : chatgpt
आवरण चित्र : पंडित नेहरु जी के साथ वेरियर एल्विन (instagram)
