जिस तरह प्राणियों में मानव श्रेष्ठ है उसी तरह मनुष्यों में भी प्रतिभाशाली, सृजनशील,अविष्कारक व्यक्ति श्रेष्ठ होता है I इंजीनियर, चिन्तक, कलाकार तथा वैज्ञानिकों की सृजनशीलता के फलस्वरूप नयी खोजें होती हैं I इसके कारण समाज में परिवर्तन होता है, परम्पराओं और नियमों में बदलाव आता है I धर्मों के बीच से ही नए धर्म जन्म लेते हैं I आज के समाज में विश्व-सभ्यता और संस्कृति में परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत तेज हो गयी है I इसी के परिप्रेक्ष्य में सृजनशील कलाकृति में उभरने वाली नवीनता अनेक सवालों को खड़ा कर मानव-मन को झकझोरती है I कला-क्षेत्र के नाविन्यपूर्ण रचनात्मक अविष्कार ही परिवर्तनशील समाज-व्यवस्था में रसिक मन का संतुलन बनाये रखते हैं I कला में नवीनता के स्वागत के लिए तैयार मन सामाजिक जीवन में आने वाले परिवर्तन का भी स्वागत करता है I
यहाँ कलाकार शब्द का प्रयोग व्यापक सन्दर्भों में किया गया है I शब्द, विचार, रंग, ध्वनि, अभिनय आदि अनेक माध्यमों के द्वारा सृजन करने वाले व्यक्ति को कलाकार कहा जाता है I कलाकार शब्द में साहित्यकार, वादक, गायक, शिल्पकार, वास्तुशास्त्री, चित्रकार, नाटककार, नर्तक आदि सर्जक व्यक्तियों का समावेश होता है I पूर्व-परंपरा की तकनीक एवं शैली में अपने अनुभवों और अध्ययन -चिंतन को जोड़ कर कलाकार प्रचलित तकनीक को नए सन्दर्भ प्रदान करता है I उद्देश्य और प्रभाव को केंद्र में रख कर उचित साधन का इस्तेमाल करता है I जब कलाकार अपने संवेदनशील और समाज -सापेक्ष्य व्यक्तित्व के अनुरूप सहज, उत्स्फूर्त रचना-निर्मिति करता है तब कलाकृति में सामाजिक प्रतिबद्धता होने के बावजूद प्रचार नहीं होता I
कला को जब नियमों में बाँधा जाता है तब वह शास्त्र में रूपांतरित हो जाती है, अकादमिक होकर बिकाऊ स्वरूप प्राप्त करती है और अनुपयोगी साबित होती है I कला के कारण साधारण जन में रसिकता पैदा होती है और रसिक व्यक्ति उदार और संवेदनशील सिद्ध होता है, समाज की तटस्थ एवं क्रूर प्रवृति को नष्ट करने की दिशा में अग्रसर होता है I रसिकता स्थिरता के कारण आने वाले दोहराव की ऊब से मुक्ति दिलाती है I कला- प्रवाह की स्थिरता ऊबे हुए सामाजिक- मन को असामान्य दशा में पहुंचाती है I आज के बम्बईया सिनेमा की स्थिरता इसका उदाहरण है I मज़ेदार बात तो यह है कि समाज को असामान्य दशा से बाहर लाने के लिए जो चिन्तक कलाकार साधनारत होते हैं, समाज उन्हें “सनकी” करार देता है परन्तु विचारशील कलाकार का यह जागरूक “सनकीपन” समाज की प्रगति के लिए उपयोगी होता है, इसे समझना जरुरी है I रसिकों का सामयिक मनोरंजन करने वाली कला को कला द्वारा किया मज़ाक ही कहा जा सकता है कलाकर्म नहीं कहा जा सकता I कला में सम्मोहन उद्देश्य-विषय की सार्थकता के अनुकूल होना चाहिए I केवल सम्मोहित करने वाली कला धर्मान्धता की अफीम जैसी साबित होगी I वर्तमान में व्यापक समूह की मनोदशा को समझ कर जो कलाकार आगत भविष्य को मानवीय कलादृष्टि से अभिव्यक्त करता है, वही श्रेष्ठ होता है तथा उसी की कला सार्थक होती है I
पुस्तक : चित्रकला और समाज
लेख : सामाजिक प्रतिबद्धता और कलाकार का अंश
लेखक : भाऊ समर्थ
प्रकाशक : सेतु प्रकाशन