पी.राज.सिंह यानी पृथ्वीराज सिंह यूं तो अंग्रेजी के व्याख्याता रहे हैं। किन्तु भोजपुरी भाषा के विकास और लोक कलाओं व लोकाचारों के संरक्षण के भी सशक्त हिमायती हैं। यहाँ प्रस्तुत है वरिष्ठ कलाकार कुमुद सिंह रचित पुस्तक "कला भाव" पर उनकी प्रतिक्रिया...![]()
कला भाव और कला की अभिव्यक्ति जीवन के साथ साथ चलती रहती है। सभी कालों एवम परिस्थितियों में इसका प्रस्फुटन होता रहा है । घोर वैज्ञानिक व भौतिकतावादी समय काल में भी मानव समुपस्थित परिस्थितियों और माध्यमों में अपने हृदय के उद्वेगों को अवश्य ही व्यक्त करता है । कहा जा सकता है कि सभी जीवों से अलग कला मनुष्य के सामाजिक होने की स्वाभाविक अंतर्निहित चरित्र की तरह ही सहज और स्वतःस्फूर्त घटित होती रहती है। लोक कलाएं मानव के सभ्यतागत विकास का पगचिन्ह हैं ।
लोक कलाएं कृषि पशुपालन जीवन के समाज के उद्वेगों को विभिन्न माध्यमों में व्यक्त करती हैं।लोक कलाओं में हमारी बौद्धिक परंपरायें ,रीति रिवाज ,उत्सव ,आचरण ,जीवन दर्शन अभिव्यक्त होती रही हैं। सहजता, सरलता, निश्छलता एवं आडंबरहीनता लोक के गुण व स्वभाव होते हैं। यही गुण और स्वभाव, आनंद और सौंदर्य का स्रोत हैं। लोक कलाओं में समष्टि का भाव होता है। इसमें किसी व्यक्ति का हस्ताक्षर नहीं होता। सभी कुछ सामूहिकता का भाव लिए होता है। इसमें कल्याण ,मंगल ,आरक्षा एवं साहित्य का भाव होता है । हमारी सभ्यता के विकास की जड़ें, हमारे आध्यात्मिक विकास की रूपरेखा, हमारे संस्कार,रीति रिवाज, परंपरायें,हमारी प्रकृति पर्यावरण के सह जीवन, हमारी लोक कलाओं में चित्रित होते हैं। लोक कलाएं हमारे सांस्कृतिक विरासत का स्मृति कोष हैं। यह सभी देश काल जनित भेदभाव को पाटकर उत्कृष्ट आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विकास का मार्ग प्रशस्त करती हैं।

आज आवश्यकता है कि लोक कला के प्रतीकों , कलाकृतियों को बारम्बार विभिन्न भावों के साथ गढ़ने एवं युवा पीढ़ी को इस के सृजन के लिए प्रेरित किया जाय ।
कुमुद सिंह द्वारा लिखित पुस्तक ” कला भाव ” डाक से दो दिनों पूर्व ही प्राप्त हुआ। इसमें कुल 12 अध्याय हैं । ये अध्याय लोक कला के विभिन्न पक्षों पर लिखित आलेखों का संकलन हैं । यदि कुछ अध्यायों का यहाँ नाम रखा जाये तो वे हैं । लोक कला में सह अस्तित्व का भाव , लोक कला के लोकप्रिय प्रतीक,कोहबर चित्रण और हिंदू वैवाहिक दर्शन, बौद्ध दर्शन एवं कला का एकात्म : अजंता की चित्रकला, रंगों का मनोवैज्ञानिक प्रभाव आदि। ये सभी आलेख प्रारंभिक स्तर का होते हुए भी लोक जीवन एवं लोक संस्कृति को कलाओं के मार्फत समझने का छोटा प्रयास हैं।
कुमुद सिंह जी स्वयं कला शिक्षक एवम कलाकार होने के साथ-साथ इसकी अध्येता और विश्लेषक भी हैं। कई बार कला के बरतने वाले अपने माध्यमों में उच्चतम कला की रचना तो करते हैं पर उन्हें व्याख्यायित, विश्लेषित नहीं कर पाते। कई फेसबुक लाइव कार्यक्रमों को सुनने के बाद मैं आश्वस्त हूँ कि विश्लेषण और समझाने की कला में भी कुमुद जी कुशल हैं। यह विशेषता उनमें कलाकार होने के अतिरिक्त है ।
पुस्तक के कवर और प्रत्येक अध्याय के पहले संलग्न चित्र या रेखांकन भी उनके द्वारा बनाये गये हैं। उन चित्रों में पुस्तक तथा अध्यायों की मूल भावना को लोक कलाओं के प्रचलित माध्यमों एवं विंबो द्वारा समाहित करने का प्रयास किया गया है। यह पुस्तक कला की सामान्य समझदारी विकसित करने में सहायक है । यह विषय वस्तु में गहरे प्रवेश भी कराती है । पुस्तक के आवरण चित्र में 12 कमल दल 12 अध्यायों के प्रतीक हैं । उनपर मँडराते 12 पक्षियों का रेखांकन है । मंडप के आधार में सात स्त्रियों का रेखांकन सात मातृकाओं का विम्बन हैं आदि । इसी तरह प्रत्येक अध्याय के प्रारंभ में संलग्न 11 रेखाचित्र उस अध्याय की मूल भावना को चित्रित करते हैं ।
कोहबर चित्रण और हिंदू वैवाहिक दर्शन अध्याय से यहाँ कुछ पंक्तियाँ उद्धृत हैं। आप भी देखें।
” इस प्रकार कोहबर कला के उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि वर वधु विवाहोपरांत जिस गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर रहे हैं, वह विलास के लिए नहीं वरण मर्यादा में रहकर विवेक के साथ नियम पूर्वक कामसुख का उपभोग करने के लिए है। इसके अतिरिक्त एक प्रतीकात्मक अर्थ यह भी हो सकता है कि वर-वधू एक दूसरे के साथ हर्ष उल्लास में रहते हुए अपने सभी कर्त्तव्यों को पूर्ण करते हुए पंच तत्वों से बने इस नाशवान शरीर के प्रति मोह माया त्याग कर कर्म करें और अंतिम लक्ष्य ( मोक्ष ) को प्राप्त करें । भारतीय जीवन का आधार ही धार्मिक और दार्शनिक रहा है और उसी तरह कलाकार भी दार्शनिक पहले हैं, तब कलाकार या सौंदर्यद्रष्टा। यही बात कोहबर चित्रण में भी स्पष्टता से अंकित होती है । “
साधुवाद और शुभकामनायें !
nicely written, thanks
आभार