पुस्तक चर्चा : मिथिला चित्रकला का सिद्धांत

Arvind Ojha

पिछले दिनों अपने हिमालय यात्रा से लौटते ही मिथिला लोक संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के प्रति समर्पित युवा प्रतिभाशाली लेखक, संस्कृतिकर्मी और मेरे मित्र राकेश कुमार झा की सद्यप्रकाशित किताब “मिथिला चित्रकला का सिद्धांत” मुझे अपने स्टूडियो में मिला। किताब पाकर मुझे जिन दो कारणों से विशेषकर खुशी हुई उसमें पहली तो यह कि फोन पर बिहार की लोककला के बारे में हुई हमारी एक लम्बी बातचीत और इस किताब को पढ़ने के लिए किसी “ऑनलाइन लिंक” को उपलब्ध कराने के मेरे व्यक्तिगत आग्रह के वावजूद राकेश भाई ने अपनी किताब मुझे सप्रेम भेंट की और दूसरी खुशी उनके इस विश्वास के लिए क्योंकि जब भी कोई लेखक अपनी किताब किसी को भेंट स्वरूप देता है तो उसके इस देने में यह मौन आग्रह जरूर होता है कि भेंट लेने वाला कम से कम उसकी रचना प्रक्रिया के तमाम अनुभवों का किसी न किसी रूप व हद तक साक्षात्कार करें और साथ ही उसके अथक प्रयासों को अपनी सहुलियत और समझ की विशिष्ट परिधि में यथेष्ट जगह भी दें । मिथिला चित्रकला के अलग-अलग लोक संदर्भों को आज के इस समय में समझने और बखूबी बरतने की राकेश झा की यह दृष्टि निःसंदेह सराहनीय है ।

यह कहना ग़लत न होगा कि राकेश जी का यह प्रयास मिथिला चित्रकला के आधारभूत तत्वों, नियमावलियों और संरचना प्रक्रिया की संक्षिप्त लेकिन विशिष्ट समझ देता है । लोक परंपरा के वृहद इतिहास में मनुष्य ने चित्रकला को बतौर कला माध्यम अपने अवचेतन में उपस्थित प्राकृतिक शक्तियों से उपजे भय और त्रास से मुक्ति के लिए तथा जीवन के सकारात्मक पक्ष के प्रति अपनी आस्था और विश्वास की सहज अभिव्यक्ति के रूप में अपनाया। कालांतर में मनुष्य की यह कलात्मक दृष्टि समष्टि से होती हुई व्यष्टि पर केन्द्रित होती गई और इस तरह चित्रण के इस दीर्घ परंपरा ने भिति चित्र के बाद भू चित्रण और फिर मनुष्य के देह चित्रण तक की केन्द्रीय यात्रा पूरी की। राकेश जी ने जहां इस किताब में मिथिला चित्रकला को बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में विलियम जी आर्चर द्वारा ढूंढें जाने से लेकर विश्व पटल पर इसकी भव्य व्याप्ति के ऐतिहासिक तथ्यों को बखूबी रेखांकित किया है और साथ ही मिथिला चित्रकला के भिति चित्र, भू चित्र और देह चित्र के परिभाषित नियमों का भी विवरण प्रस्तुत किया है। वहीं मिथिला चित्रकला का दार्शनिक संदर्भ, प्रतीक चिन्ह, रंग निर्माण, संरचना सिद्धांत, कोहबर और अरिपन जैसे विशिष्ट कला आयामों के अनेक प्रकारों के साथ मिथिला चित्रकला में तंत्र कला का प्रभाव और तंत्र के कलात्मक रुपक तत्वों का भी समावेश किया है। विदित हो कि मिथिलांचल किसी समय में वैदिक शास्त्रीयता के साथ-साथ तंत्र विद्या का भी केंद्र रहा था जिसकी परिणति वहां के दैनंदिन अलंकरणों तथा कलात्मक अभिव्यक्तियों में सहजता से परिलक्षित होता है। तंत्र सिद्धांत के प्रभाव स्वरूप मिथिला चित्रकला में नव दुर्गा, दस महाविद्याएं और दसावतार की दार्शनिक अवधारणाओं की उपस्थिति स्वाभाविक है जिसे राकेश जी ने पूरे विस्तार से इस किताब में रखने की चेष्टा की है। कुल मिलाकर यह किताब मिथिला चित्रकला को उसके व्यापक संदर्भ में समझने का एक संक्षिप्त लेकिन एकत्रित दस्तावेज कहा जा सकता है।

यदि इस किताब पर सुझाव की बात करें तो दों तीन ऐसे प्रमुख बिंदु जरूर है जिसपर लेखक का ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। मिथिला चित्रकला का आरंभिक स्वरूप और ऐतिहासिक जानकारियां इस किताब में अनुपस्थित है मसलन मिथिला चित्रकला के पुरातन स्वरूप और आधुनिक स्वरूप के बीच इस कला के क्रमिक विकास का अंतर। मिथिला चित्रकला अपने आरंभिक बिन्दु से गतिमान हो किन किन पड़ावों से होती हुई बीसवीं शताब्दी के मध्य तक की यात्रा करती है इसका विवरण निःसंदेह मिथिला चित्रकला को बतौर कलात्मक अभिव्यक्ति समझने में और ज्यादा सहायक होता। वैसे तो तंत्र कला भारतीय कला मनीषा का एक उत्कर्ष बिन्दु माना जाता है जिसका व्यापक प्रभाव समस्त भारतीय लोक कलाओं सहित विश्व की अनेक लोक कलाओं पर भी दृष्टिगत है। मिथिला चित्रकला में भी तंत्र कला का आधारभूत समावेश जरूर है, लेकिन इस किताब में मिथिला चित्रकला के आत्यांतिक स्वरूप से कहीं ज्यादा तंत्र कला के रुपकों, उसके दर्शन और विषय वस्तु की चर्चा है जो पाठक की सहज अनुभूति में एक संतुलित दृष्टि पैदा करने में सक्षम नहीं जान पड़ता। मिथिला चित्रकला का तंत्र से इतर भी अपना स्वतंत्र विकास क्रम है जो स्वयं में बेहद समृद्ध है जिसपर ज्यादा चर्चा होनी चाहिए थी। एक और महत्वपूर्ण बात जो मुझे बार-बार खटकती रहीं वह यह थी कि यह किताब मिथिला चित्रकला के नियमों और उसके कला प्रक्रिया के आयामों पर ज्यादा प्रकाश डालता है बजाए इसके सैद्धांतिक पक्ष के। सिद्धांत एक स्वप्रमाणित अवधारणा है जिसकी गति अंदर से बाहर की ओर होती है वहीं नियम किसी व्यक्ति, विचार या वस्तु के दिशा निर्देशन हेतु एक नियामक आचार संहिता होता है, जिसकी गति बाहर से अंदर की ओर होती है। इस किताब में मिथिला चित्रकला के संदर्भ में वर्णित विषय-वस्तु नियम और दिशा निर्देश के कहीं ज्यादा नजदीक जान पड़ता है हालांकि तंत्र के प्रभाव को बताते समय तंत्र दर्शन के सिद्धांतों को संक्षिप्त रूप में जरूर रखा गया है । इसलिए इस किताब का नामकरण “मिथिला चित्रकला का सिद्धांत” बतौर पाठक पढ़ने में थोड़ी असहजता पैदा करता है । किताब में “टायपो” संबंधी कुछ अशुद्धियां भी है जिसे ठीक करने की आवश्यकता है ।

दिल्ली के एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित कला लेखक से महीना पहले ही मोटे तौर पर इस किताब पर मेरी चर्चा हुई थी जिसमें उन्होंने इस बात को प्रमुखता से रखा था कि लोक कलाओं में सिद्धांत और नियम की बात करना बेईमानी है क्योंकि लोक कलाएं अपने स्वरूप और सतत प्रवाह में सुंदर इसलिए ही है कि वो सिद्धांतों और नियमों से परे है । सिद्धांत में आते ही लोक कला शास्त्रीय बन जाती है और फिर उनका गतिमान स्वरूप अप्रासंगिक होने लगता है। एक बड़े संदर्भ में यह बात स्पष्टतया सही भी है लेकिन यह बात भी स्वयं में महत्वपूर्ण है कि यदि लोक का मनोविज्ञान उर्जा का एक ऐसा सतत प्रवाह के रूप में देखा जाता है जिसमें मनुष्य की समस्त कलात्मक अभिव्यक्तियां अपने श्रेष्ठतर अनुभूति सौंदर्य को रचने और समय के किसी रुके हुए पल में इन्हें संरक्षित करने को प्रयत्नशील होती है तो फिर यह बात भी सही मानी जा सकती है कि लोक की अवधारणा बेशक गति का ही एक रूप क्यों न हो लेकिन गति के समस्त रूपों के भी तो अपने-अपने नियम होते ही है !

एकबार पुनः राकेश झा को उनके इस किताब के प्रथम भाग की विशिष्ट रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !

पुस्तक : मिथिला चित्रकला का सिद्धांत
लेखक : राकेश कुमार झा
प्रकाशक : मिथिला स्कूल ऑफ़ आर्ट फाउंडेशन, मधुबनी
मूल्य : 551 / रु.

-अरविन्द ओझा

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