“रूप मिट्टी में छुपे होते हैं जिन्हें आँखें तलाशती, देखती हैं और उँगलियाँ अपने कौशल से उस रूप को अवतरित होने में मदद करती हैं। रूप के प्रकटन से ही छाया का भी आगमन होता है। प्रकाश शिल्प को छूता है और छाया भी तरह-तरह से शिल्प रूप के साथ लिपटी रहती है। शिल्प सृजन में छाया की निर्मिति भी होती है पर छाया को प्रकट करने का श्रेय प्रकाश को है। छाया भी शिल्प को रहस्यमयी और गम्भीर भी बनाती है। छाया शिल्प के साथ मिली एक सुन्दर भेंट है जो शिल्प के सौंदर्य को बढ़ाती है।”
-सीरज सक्सेना
किसी ने पूछा क्या करते हो, जवाब मिला कलाकार हूं । इसके बाद का दूसरा प्रश्न था: कलाकार तो हो लेकिन करते क्या हो? अब इसे महज चुटकुला समझें या सच्चाई, लेकिन सच तो यह है कि अगर आप कलाकार हैं तो इससे मिलते-जुलते सवाल से आपका सामना अवश्य हुआ होगा। कहने का आशय यह कि आज भी हमारे समाज में कला और कलाकार को लेकर कई तरह की भ्रांतियां सहज प्रचलित हैं। या यूं कहें कि कला और समाज के बीच एक तरह की दूरी बनी हुई है। इसके कारणों की पड़ताल करें तो एक बात यह भी सामने आती है कि हमारे बीच ऐसी पुस्तकों का नितांत अभाव है, जिसके जरिए इन दूरियों को पाटा जाए। या कहें तो ऐसी पुस्तकें बहुत कम हैं जिसे पढ़कर आप किसी कलाकार के जीवन और उसकी कला यात्रा से रूबरू हो पाएं। देखा जाता है कि कला पर जो कुछ पुस्तकें उपलब्ध हैं उनमें से ज्यादातर या तो कला पाठ्यक्रम से जुड़ी पुस्तकें हैं अथवा कला इतिहास की पुस्तकें। कलाकारों पर केन्द्रित कुछ किताबें अगर हैं भी तो वह ऐसी जिसे किसी कला समीक्षक या लेखक के नजरिये से लिखा गया है। अलबत्ता उसमें कलाकार की कही कुछ बातें अवश्य होती हैं। किन्तु पूरी तरह नहीं। राकेश श्रीमाल हमारे दौर के एक ऐसे कला लेखक हैं जो कला लेखन में नए प्रयोगों में विश्वास रखते हैं। विगत वर्षों के उनके लेखन को देखें तो उसमें लीक से हटकर चलने की जिद और भरोसा हावी नजर आता है।
प्रस्तुत पुस्तक ‘मिट्टी की तरह मिट्टी’ को कुछ इसी तरह के सफल प्रयास के तौर पर देखा जाना चाहिए। पुस्तक कलाकार सीरज सक्सेना से राकेश श्रीमाल के संवाद की उपज है। जिसमें बातें तो सीरज की कला यात्रा की हैं लेकिन उसे रूप-स्वरूप मिला है राकेश श्रीमाल की कलम से। सीरज सक्सेना हमारे बीच उन कलाकारों में से हैं जिनकी प्रतिभा बहु-आयामी है। उनका साइकिल प्रेम हो या संगीत व साहित्य प्रेम यह उन्हें अन्य कलाकारों से अलग तो करता ही है। कला माध्यमों की बात करें तो यहां भी सीरज किसी एक माध्यम से चिपके रहने के बजाय मल्टी-मीडिया से जुड़े रहना पसंद करते हैं। वह भी सभी माध्यमों के अलग अलग अस्तित्व व मिजाज के अनुकूल। मसलन प्रिंट मेकिंग, सिरेमिक, टेराकोटा से लेकर रेखांकन व चित्रांकन तक, और लगभग नियमित। बहरहाल इस पुस्तक में जो संवाद संग्रहित हैं वे मृत्तिका शिल्प से संबंधित हैं।
पुस्तक की भूमिका में अपनी बात कहते हुए राकेश लिखते हैं- इस संवाद पर अधिक कुछ नहीं बोलते हुए, केवल यही कहने का मन है कि हिन्दी में कला पर इस तरह की बातचीत का सर्वथा अभाव क्यों हैं। ‘इस तरह की’ से सीधा तात्पर्य यह है कि कलाकार के जीवन, उसके संघर्ष, जिजीवषा, इच्छाओं, बचपन, परिवेश, सपनों और न मालूम क्या-क्या को कुरेदा या टटोला क्यों नहीं जाता। क्या हिन्दी क्षेत्र से आने वाले समकालीन कलाकार खुद इसे जरूरी नहीं समझते या कला के बाजार में इस तरह की स्मृतियों या वास्तविक्ताओं की जरूरत अब भारत में नहीं बची। यह संवाद एक छोटा सा प्रयास है, जंग लगी दीवारों पर सेंध लगाने का। यह कितना उचित है या अनुचित, इसे आगत ही तय करेगा ।’
वहीं पुस्तक के आमुख पर साहित्यकार और ब्लॉगर अरुण देव की यह बातें भी काबिलेगौर हैं- हिन्दी समाज की सांस्कृतिक और वैचारिक साक्षरता के लिए यह जरूरी है कि कला और सामाजिक अनुशासनों की मौलिक किताबें हिन्दी में छपें। साहित्य कलाओं के समुच्चय का एक सदस्य है- लोक, शिल्प, चित्र, नृत्य, संगीत, रंगमंच, फिल्म आदि की उपस्थिति के साथ ही यह पूर्ण होता है। अकेले-अकेले होकर ये सब बिखर गये हैं, समाज पर इनके लगभग नहीं के बराबर प्रभाव के पीछे एक कारण यह भी है कि कई पीढ़ियाँ बिना इसके संज्ञान के विकसित हुईं ।
देखा जाए तो यह पुस्तक किसी एक कलाकार की जीवनी, उसकी कला यात्रा या निजी देश-विदेश की यात्राओं के विवरण से ज्यादा हमारे समाज में कला की उपस्थिति और विकास यात्रा का एक संपूर्ण दस्तावेज है। इस पुस्तक में सीरज अपनी बात रखते हुए उन तथ्यों को भी सामने रखते हैं जिसे अक्सर कला के जोखिम के तौर पर देखा जाता है।
पुस्तक का नाम: मिट्टी की तरह मिट्टी
लेखक: राकेश श्रीमाल
प्रकाशक: सेतु प्रकाशन प्रा. लि.
मूल्य: 1099 /
Web: www.setuprakashan.com
Email: setuprakashan@gmail.com
-सुमन कुमार सिंह