रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कला: आचार्य नलिन विलोचन शर्मा

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने , साहित्य-क्षेत्र की तरह चित्रकला के क्षेत्र में भी भारतीय और यूरोपीय कला का समन्वय करते हुए महत्वपूर्ण प्रयोग किए हैं। भारत के प्रसिद्ध कलाविद् आनंद कुमार स्वामी ने रवीन्द्र की कृतियों के पक्ष की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। पर वे भी इसके महत्व की गहराई में नहीं गए हैं। रवीन्द्र के चित्रों में हाथ का ऐसा कच्चापन दिखलाई पड़ता है, जैसा कि एक अभ्यासरहित व्यक्ति में होना स्वाभाविक है और इसे स्वयं उन्होंने स्वीकार भी किया है। पिकासो और मातिसे के कुछ अतिशय सरलीकृत आकलनों को देखकर भी यही अभियोग लगाया गया था; किन्तु यह प्रमाणित हो चुका है कि रूढ़ रेखांकन में भी जहां ये कलाकार अपना सानी नहीं रखते , वहां रवीन्द्र के लिए चित्रकला गौण विषय रही है। गगनेंद्रनाथ ने और भी महत्वपूर्ण प्रयोग किए हैं और वे अधिक प्रसिद्ध नहीं हो सके इसका कारण यही है कि लोग इनके प्रयोगों के महत्व को समझ नहीं सके। यदि ऐसी बात नहीं थी, तो क्या कारण है कि वे साधारण कोटि के प्राचीन कला के अनुकरण करने वालों के बराबर भी ख्याति नहीं प्राप्त कर सके?
हमें खेद के साथ कहना पड़ता है कि मथुरा- अमरावती के मूर्ति-निर्माताओं के वंशधरों में कोई एप्स्टाइन का प्रतिरथ नहीं है। अजंता-बाग के चित्रकारों के उत्तराधिकारियों में कोई पिकासो और मातिसे का समकक्ष नहीं दीख पड़ता और न बाण और हर्ष जैसे प्रकांड बुद्धिवादी पूर्वपुरुषों का दावा करने वालों में कोई जेम्स ज्वॉयस या टी. एस. इलियट के साथ उल्लेखनीय साहित्य-स्रष्टा ही है। काव्य के क्षेत्र में कुछ हद तक रवीन्द्र की कुछ कविताएं और कुल मिलाकर दस-बीस छोटी कहानियां- विश्व के कला-कोष में आधुनिक भारत का इतना ही चंदा है, यों चाहे हम जो कुछ अपने बारे में कहते रहें। एक समृद्ध परंपरा के रहते हुए भी ऐसी हीनता अवश्य खेदजनक है!
अंत में हमें यही कहना है कि भारतीय कला का उद्धार प्राचीनता को अपनाने में ही नहीं है, चाहे वह कितना ही जाज्वल्यमान क्यों न रहा हो। वे टेकनीक और ढंग विस्मृत हो गए हैं, यद्यपि उन आदर्शों से आज भी हम प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। पश्चिम में जो प्रयोग हो रहे हैं वे अधिक वैज्ञानिक हैं, अतएव अब हमें उनको नि:संकोच अपना लेना चाहिए, जैसे हमने साहित्यिक- क्षेत्र में कहानियों तथा उपन्यासों के साहित्यिक रूपों को अपना लिया है।
– नलिन विलोचन शर्मा
(18/2/1916-12/9/1961)
‘आधुनिक कला और भारत’ शीर्षक आलेख से साभार।
पुस्तक: नलिन विलोचन शर्मा, संकलित निबंध
संपादक: गोपेश्वर सिंह
प्रकाशक: राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत।

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