यह बात तो जगजाहिर है कि कलाकारों और उनकी कला पर जितनी भी चर्चा हो जाए I किन्तु उनके जीवन और कलाकर्म को संकलित करने के प्रयासों की बेहद कमी रही है I कुछ इन्हीं कमियों को दूर करने का प्रयास दिखता है बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा की नवीनतम पुस्तक ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ में I पुस्तक में क्या है और इस तरह के किसी पुस्तक का क्या महत्व है बता रहे हैं कला समीक्षक अनीश अंकुर I वैसे तो यह बेहद गर्व की बात है कि आज़ादी के बाद से बिहार की माटी से जुड़े पंद्रह कलाकारों ने पद्मश्री सम्मान हासिल किया है I जो संभवतः किसी अन्य राज्य या प्रदेश की तुलना में विशेष उल्लेखनीय है I अनीश अंकुर ने अपने इस आलेख में विस्तार से पुस्तक पर चर्चा की है, प्रस्तुत है आलेख का पहला भाग ……
अनीश अंकुर
अशोक कुमार सिन्हा की पुस्तक ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ का विमोचन 7 जुलाई को
‘बिहार म्यूजियम’, पटना द्वारा कला प्रदर्शनी के साथ, समय-समय पर कला संबंधी पुस्तकों का भी प्रकाशन किया जाता है। बिहार म्यूजियम द्वारा इस कड़ी में नई पुस्तक ‘ बिहार के पद्मश्री कलाकार’ का प्रकाशन किया गया है। बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखित इस पुस्तक में बिहार के कला जगत में अपने अप्रतिम योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित पंद्रह कलाकारों का व्यक्तिचित्र अशोक कुमार सिन्हा ने खींचा है।
अशोक कुमार सिन्हा बिहार के साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत में जाना-पहचाना नाम हैं। उनकी अब तक छत्तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हाल में अपनी मैक्सिको यात्रा के बाद यात्रा वृत्तांत पर आधारित पुस्तक का लोकार्पण पटना में किया गया। अशोक सिन्हा का बिहार के साहित्य, संस्कृति व कला जगत से गहरा जुड़ाव रहा है। कई नामचीन साहित्यकारों और कलाकारों से उनका निजी संबंध रहा है।
अपनी खोजी वृत्ति के कारण अशोक कुमार सिन्हा ने काफी परिश्रम से, सामग्री जुटाकर पद्मश्री प्राप्त पंद्रह कलाकारों के जीवन की एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत कर बिहार के कलाजगत के लिए दस्तावेजी महत्व का काम किया है। पुस्तक में कलाकार का जीवन परिचय, उसके कलात्मक योगदान के साथ उसकी कृतियों की आकर्षक तस्वीरें भी पाठकों के लिए उपलब्ध कराई गईं हैं।
इन सभी कलाकारों की जीवन परिचय लिखना कोई आसान काम नहीं था। इसके लिए कई किस्म के स्रोतों को आधार बनाया गया है । जैसा कि लेखक खुद बताते हैं ” वैसे लोगों के बारे में पुस्तकों और प्रकाशित लेखों में प्रकाशित तथ्यों, सूचनाओं, साक्षात्कारों, सुनी-सुनाई बातों या उनसे संबद्ध लोगों के माध्यम से जानकारी कर जीवनी लिखी है। शेष अन्य कलाकारों से मेरी अंतरंगता अथवा निकट का संबंध रहा है। इस पुस्तक में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का चित्रण उनसे बातचीत के क्रम में प्राप्त जानकारी और उनके कार्यों के अध्ययन के आधार है। ”
इन चित्रों से हमें रचनाकारों के सृजन संसार से भी परिचित होने का मौका मिलता है। किताब को अशोक सिन्हा ने हिंदी में लिखा है पर अंग्रेजी पाठकों की सुविधा के लिए उसका अनुवाद भी, साथ ही, उपलब्ध करा दिया है। पाठक हिंदी-अंग्रेजी दोनों में पढ़ सकता है। अंग्रेजी अनुवाद किया है अदीबा ने ।
बिहार के कला जगत में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ दस्तावेजी महत्व की ऐसी पुस्तक साबित हो सकती है जो इन पद्मश्री कलाकारों के बारे में और अधिक रुचि पैदा करेगी तथा शोधार्थियों को शोध के लिए उत्प्रेरित करेगी। इस पुस्तक में शामिल होने वालों में हैं:
उपेंद्र महारथी :
पुस्तक की शुरुआत बिहार के कला जगत में बार-बार नाम लिए जाने वाले उपेंद्र महारथी के जीवन से होती है। उपेंद्र महारथी का नाम वैसे तो हमेशा लिया जाता है पर उनके जीवन के बारे में ठीक-ठीक जानकारी बहुत कम लोगों को रही है। अशोक कुमार सिन्हा बताते हैं कि उपेंद्र महारथी वैसे तो उड़ीसा के रहने वाले थे पर बिहार की मिट्टी उन्हें इतनी भाई कि यहीं रहने और बसने का फैसला लिया। उनका जन्म उड़ीसा के पूरी जिले के नरेंद्रपुर गांव में हुआ था। अपनी मां के सानिध्य में रहकर उन्होंने अपने यहां की पारंपरिक कलाओं के साथ चित्रांकन की विशिष्ट विधि ‘सौंरा चित्रांकन’ को सीखा ।
उपेंद्र महारथी ने कला की विधिवत शिक्षा कलकता के स्कूल ऑफ आर्ट्स से ली थी। बंगाल में पढ़ने के कारण उन पर बंगाल स्कूल के महारथियों रवीन्द्र नाथ ठाकुर, अवनींद्र नाथ ठाकुर, नंदलाल बोस जैसे कलाकारों का प्रभाव पड़ना लाजिमी था। उड़ीसा की लोक कला और बंगाल शैली के संसर्ग में उनकी कला संबंधी दृष्टिकोण का विकास हुआ। अपनी चित्रकला के लिए उपेंद्र महारथी ने जातक कथाओं और बुद्ध के जीवन को अपना विषय बनाया था। शुरुआती दौर में कागज पर रंगों का अधिक प्रयोग किया पर बाद में लकड़ी की तख्ती, शीशा और कैनवास पर भी तैल रंगों से कृतियां बनाने लगे।
1931 में चित्रकला में प्रथम श्रेणी से पास करने के बाद कला को जीविकोपार्जन का साधन बनाने के बजाए आजादी के आंदोलन से उनका जुड़ाव हुआ। वे क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। इसी मकसद से देश के विभिन्न भागों के घूम -घूम कर काम करने लगे। इसी क्रम में वे 1932 में बिहार आए। फिर यहीं के होकर रह गए। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बिहार सरकार के आग्रह पर पटना आकार उद्योग विभाग में डिजायन विशेषज्ञ के रूप में काम करने लगे। इस दौरान राज्य में लुप्त हो रही लोक कलाओं और लोकशिल्प परंपरा को एक स्वतंत्र पहचान दिलाने के उद्देश्य से अनेक सुझाव बिहार सरकार के सामने रखा।
परिणामस्वरूप बिहार की लोक कला को देशव्यापी पहचान मिली। भारत सरकार ने उनकी रुचि और सक्रियता को देखते हुए उन्हें 1954 में जापान में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प सम्मेलन में भाग लेने का अवसर प्रदान किया। अपनी जापान यात्रा के बाद उपेंद्र महारथी ने टिकुली को शीशे के बदले लकड़ी पर एनामेल पेंट करना सिखाया। यह तकनीकी उन्होंने अपनी जापान यात्रा के दौरान ही सीखी थी। मिथिला चित्रकला को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने से लेकर टिकुली कला की तकनीक में परिवर्तन लाने का श्रेय उपेंद्र महारथी को जाता है।
1955 में शिल्प अनुसंधान केंद्र, पटना के निदेशक के पद पर रहते हुए अपनी प्रशासनिक कुशलता से बिहार की शिल्प परंपराओं के उत्थान के लिए काफी प्रयास किया। इस आलेख से हमें यह भी पता चलता है कि उपेंद्र महारथी ने कई पुस्तकों की भी रचना की जिसमें “बुद्ध धर्म का उत्थान”, “चंद्रगुप्त”, और “वेणुशिल्प” प्रमुख है। उनकी प्रमुख कृतियों में है: ‘बुद्ध को खीर अर्पित करती सुजाता’, ‘बुद्ध का परिनिर्वाण’ , बोधिवृक्ष, ‘अर्द्धनारीश्वर’ ‘मोहजाल में फंसा मानव’ , ‘आदिवासी युवतियां’ आदि।
इस पुस्तक को पढ़ने के दौरान इस बात का पाठक को अहसास होता है कि उपेंद्र महारथी खुद कलाकार थे बल्कि बहुत से कलाकारों-विशेषकर गोदावरी दत्त, शिवन पासवान, शांति देवी, – को उभरने में मदद की। खासकर मिथिला चित्रकला के कई पद्मश्री कलाकारों को उनके मुश्किल वक्त में सहायता की थी। उनकी कृतियों को खरीदकर, उन्हें प्रोत्साहन देकर, कई बार उनके काम करने की पद्धति में तब्दीली लाकर। इस मायने में वे एक संस्था निर्माता भी कहे जा सकते हैं।
उपेंद्र महारथी को 1969 में पद्मश्री सम्मान मिला। 1976 में वे बिहार विधान परिषद के सदस्य भी बनाए गए। बिहार के प्रमुख नेताओं से उनके निजी संबंध थे। पुस्तक लेखक खुद उनके नाम पर बने संस्थान से जुड़े रहे हैं। यह संस्थान उद्योग विभाग के अंर्तगत काम करता है। पहले इसे इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल डिजायन के रूप में जाना जाता था। उपेंद्र महारथी का निधन 1981 में हुआ।